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लोक संस्कृति को समर्पित लोकरंग

हमारी जनसंस्कृति से बहुजन जिस तरह से गायब रहे हैं उस वजह से इसे जनसंस्कृति नहीं कह सकते। इसके इसी चरित्र के खिलाफ और एक वास्तविक जनसंस्कृति के संवर्धन की महती जिम्मेदारी को निभाने का बीड़ा उठाया है लोकरंग ने। संगठन ने इस वर्ष  भी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में कार्यक्रमों का आयोजन किया। विद्याभूषण रावत की रिपोर्ट :

लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने 14-15 अप्रैल को जोगिया, जनूबी पट्टी, फाजिलनगर, कुशीनगर में लोक-कलाओं में सांस्कृतिक  भडैतीफूहड़पन के विरुद्ध और जनसंस्कृति के संवर्धन के लिए समर्पित लोकरंग 2018 का आयोजन किया जिसमें लोक कलाकारों के अलावा संस्कृतिकर्मियों, लेखकों, नाटककारों, पत्रकारों आदि ने भाग लिया। लोकरंग 2018 पत्रिका का लोकार्पण विचारक और चिंतक प्रो. लाल बहादुर वर्मा और हिंदी साहित्य में बहुजन विमर्श के पैरोकार प्रेम कुमार मणि ने किया। दो दिन के इस कार्यक्रम में आसपास के गाँवों के हजारों लोगों ने इसमें शिरकत की और पूरी रात कार्यक्रमों का लुफ्त उठाया।

दाे दिवसीय (13-14 अप्रैल 2018) लोकरंग महोत्सव का उद्घाटन करते प्रख्यात साहित्यकार व बहुजन चिंतक प्रेम कुमार मणि

राजस्थान के कलाकारों का सूफी संगीत और उनके झूमर नृत्य ने लोगों का मन मोहा वहीं कठपुतली कलाकारों ने भी जनता का दिल जीता। मालवा के कलाकारों का वर्षागीत और लोकनृत्य खुशनुमा था तो देवास से आये दयाराम सरोलिया के निर्गुण गायन ने आत्मीय अनुभूति करवाई। बिहार का जट-जटिन नृत्य भी मोहक रहा हालाँकि यह ब्राह्मणवादी संस्कारों को लिए हुए था। जबकि यह नृत्य बहुजन परंपरा का नृत्य है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था शीलू राजपूत का आल्हा गायन। पहली बार कोई महिला आल्हा गा रही थी और जिस भाव-भंगिमा से उन्होंने आल्हा गायन किया उसने दर्शकों और लोक संस्कृति के मर्मज्ञों को बेहद प्रभावित किया। एक युवा कलाकार लोक संस्कृति को समर्पित है, इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है!

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लोकरंग में पिछले कुछ वर्षों से नीदरलैंड में रह रहे प्रख्यात भोजपुरी गायक राज मोहन जी लगातार अपना कार्यक्रम पेश करते आ रहे हैं। उनकी आवाज़ में पूर्वांचल की खुश्बू बसती है। राज मोहन के माता पिता करीब सौ वर्ष पूर्व सूरीनाम में बस गए थे लेकिन इतनी दूर रहकर भी अपनी संस्कृति को उन्होंने न केवल बचाए रखा अपितु नयी संस्कृति के साथ उसका फ्यूज़न भी किया। कुशीनगर की कलाकार निर्मला यादव का निर्गुण गायन बहुत प्रभावशाली रहा। बाराबंकी के प्रख्यात सूफी स्थल देवा शरीफ से आये इकबाल वारसी की कव्वालियों ने भी रात की रौनक बढ़ा दी।

लोकरंग महोत्सव 2018 के दौरान उपस्थित जनसमूह

ऐसा नहीं कि लोकरंग में केवल गीत-संगीत ही था। छत्तीसगढ़ से आये योगेन्द्र चौबे के कुशल निर्देशन में प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का मंचन अविस्मरणीय बना रहेगा। सभी कलाकारों के अभिनय ने भरोसा दिलाया कि बिना किसी बड़े तामझाम के, कम सुविधाओं के साथ भी, क्लासिकल कहानियों का बेहतरीन मंचन हो सकता है। इससे भी बड़ी बात यह कि गाँव के जिन लोगों ने प्रेमचंद को नहीं पढ़ा हो उनका भी इस मंचन के जरिये उनसे परिचय हो गया। आज के दौर में जब शहर और गाँव दोनों ही स्थानों के लोग पढने-लिखने से दूर भाग रहे हैं, वहाँ लोक-संस्कृति को इस तरह जिन्दा रखने के प्रयासों की सराहना करनी पड़ेगी।

लोकरंग महोत्सव 2018 के दौरान सामाजिकता के निर्माण में लोक नाट्यों की भूमिका विषयक संगोष्ठी को संबोधित करते  इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा व साथ में प्रेम कुमार मणि और कथाकार मदन मोहन

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले की संस्था सम्भावना कला मंच ने डाक्टर राजकुमार के नेतृत्व में बेहद संजीदगी से सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों को पेंटिंग के जरिये प्रस्तुत किया। सम्भावना के युवा कलाकारों ने जोगिया गाँव की दीवारों पर खुबसूरत कलाकृतियों की पेंटिंग की थी जिसने इस पूरे कार्यक्रम में जनता की भागीदारी को बढ़ाने में बहुत योगदान दिया। सम्भावना के बनाये पोस्टरों ने भी लोगों
का ध्यान अपनी ओर खींचा।

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के सुदूर जोगिया-जनूबी पट्टी गांव में बखार (इसका उपयोग अनाज रखने के लिए किया जाता है) पर डिजिटल गाय की पेंटिंग। गाय की राजनीति पर सोचने को मजबूर करती संभावना कला मंच की कलाकृति

राजस्थान के बांदीकुई से आये बहुरुपिया कलाकारों ने बेहतरीन कला का प्रदर्शन कर इस कार्यक्रम को जीवंत बना दिया। ऐसे समय में जब लोक कलाओं के बहुत से महत्वपूर्ण हिस्से ख़त्म हो रहे हैं, बहुरुपिया कलाकारों के प्रदर्शन ने उनके समाज के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की ओर सभी का धयान आकर्षित किया। शमशाद और नौशाद के नेतृत्व में इन बहुरुपिया कलाकारों ने साफ़ बताया कि कैसे उनकी यह अंतिम पीढ़ी होगी जो इस कला को समर्पित है क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस कला को अपनाकर अपना पेट भरने के लिए भी दर-दर भटकें और अपनी इज्जत के लिए बड़े लोगों का मोहताज बने रहें। दोनों भाइयों की कहानी यह भी बताती है कि कैसे भारत में धर्म परिवर्तन के बावजूद जाति का दंश बना रहता है। बहुरुपिये आज भी छुआछूत के शिकार हैं। मुसलमान उन्हें मुस्लिम मानने को तैयार नहीं और वर्णव्यवस्था में उन्हें भांड जाति में रखा गया। दुखद यह कि जाति के इतने निचले पायदान पर होने के बावजूद वे सरकार की विकास योजनाओं से कोसों दूर हैं।

लोकरंग महोत्सव 2018 को संबोधित करते आयोजक संस्था लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष सुभाष कुशवाहा

लोकरंग में जहाँ लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी करते हैं वहीं इसकी एक बेहद खास बात लोक-संस्कृति के विभिन्न प्रश्नों पर गंभीर बहस का आयोजन है। इस वर्ष 14 अप्रैल को हुई विचार-गोष्ठी का शीर्षक था ‘सामाजिकता के निर्माण में लोक नाट्यों की भूमिका’ जिस पर  प्रो. लाल बहादुर वर्मा, प्रो. दिनेश कुशवाहा, प्रेम कुमार मणि, जीतेन्द्र भारती, योगेन्द्र चौबे आदि ने अपने विचार रखे। लेकिन विद्या भूषण रावत, मनोज कुमार सिंह  और सिद्धार्थ ने कुछ नए प्रश्नों को उठाकर इस बहस को एक बिलकुल नयी दिशा दी। यह बहुत ही आवश्यक था क्योंकि लोक कलाओं के नाम पर हम ब्राह्मणवादी परम्पराओं का बोझ नहीं ढो सकते। इसलिए लोक कलाओं में जातीय उत्पीड़न के प्रतिरोध का साहित्य खोजना आवश्यक है।

लोक गाथा ‘आल्हा’ प्रस्तुत करतीं शीलू राजपूत

उत्तर भारत में लोक कलाओं में फुले-आंबेडकर परंपरा के प्रतिरोध साहित्य को जगह देनी पड़ेगी तभी यह समाज को नया विकल्प दे पाएगी। यह सही है कि ये लोक कलाएं समाप्त हो रही हैं और उनको बचाने की आवश्यकता है लेकिन इसके साथ ही इनकी आलोचना भी जरूरी है ताकि पूरी बहस गाँधी के ‘गाँव हमारे स्वर्ग हैं’  वाली स्टाइल में न बदल जाए। फुले की गुलामगिरी और किसान का कोड़ा जैसी बड़ी प्रतिरोधात्मक लोक-कल्याणकारी कृति हमारे यहाँ नहीं हैं लेकिन अर्जक संघ जैसे संगठनों ने अतीत में शम्बूक बध जैसे नाटक कर ब्राह्मणवादी मिथकों को चुनौती दी। आज भी फारवर्ड प्रेस जैसी पत्रिकाएँ इन मिथकों को चुनौती दे रही हैं और बहुजन मिथकों की व्याख्या कर रही हैं। लोक कलाओं में बहुजन प्रतिरोध मौजूद है लेकिन ब्राह्मणवादी चिंतकों ने उसे बहुत हद तक गायब कर लोक कलाओं को मुख्यतः गाँव की उन परम्पराओं का चारण बना दिया जिसमें वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध नहीं था। लिहाजा आज ऐसी कला शहरी अभिजात्य वर्ग के लिए मात्र मनोरंजन का साधन रह गया है जबकि अतीत में कला को समुदाय जीते थे और लोक कलाओं  के जरिये ही बहुजन साहित्य का निर्माण भी हुआ है।

लोकरंग महोत्सव 2018 के दौरान बहुरूपिया कलाकारों ने लोगों का मन मोहा

लोकरंग की इस कल्पना के पीछे हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा और उनकी कर्मठ टीम की भूमिका रही है जो पिछले 11 वर्षों से यह कार्यक्रम एक छोटे से गाँव में करते आये हैं जहाँ संसाधनों को जुटाना और  आगंतुकों के लिए रहने आदि की व्यवस्था करना ही बहुत मुश्किल भरा होता है। अक्सर लोक कलाओं के कार्यक्रम सरकार द्वारा प्रायोजित होते हैं या फिर दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों के अभिजात्य वर्ग के लोगों के एयर कंडीशंड हॉल में जनता से बहुत दूर आयोजित होते हैं। इसलिए इतने वर्षों से लोक कलाओं को समर्पित ये कार्यक्रम दूसरे प्रायोजित कार्यक्रमों से बहुत भिन्न हैं और इसके लिए लोकरंग की टीम की सराहना की जानी चाहिए। लोकरंग के बहाने साहित्यकारों, कला-मर्मज्ञों, कलाकारों आदि को बड़े शहरों के घुटन भरे वातावरण से बाहर निकल गाँव की खुली हवा में अपनी कला का प्रदर्शन करने और लोगों के साथ रूबरू होने का मौका मिलता है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। लोकरंग को एक व्यापक आन्दोलन बनाने की आवश्यकता है ताकि यह देश के लोकजीवन को पुनः मजबूती प्रदान कर सके और इसके जरिये बहुजन समाज की वैकल्पिक संस्कृति को धार दे सके।

(कॉपी एडिटिंग : अशोक)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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