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महाबली : समानता व बंधुत्व का स्वप्न

महाराष्ट्र से केरल तक भारत के एक बहुत बड़े हिस्से में महाबली समतावादी बहुजन-श्रमण परंपरा की सांस्कृतिक विरासत के रूप में मौजूद हैं। बलि आम जन के लिए समता और न्याय की अपराजेय भावना के प्रतीक हैं। इस विरासत के संदर्भ में बता रहे हैं, अजय एस. शेखर :

‘हम वामन की सोच को त्यागें और महाबली के न्यायपूर्ण राज को फिर से हासिल करें।’

-सहोदरन अय्यप्पन, “ओनापट्टू” में  

महात्मा फुले ने 19वीं शताब्दी के मध्य में, भविष्य के भारत की कल्पना बलिराज के रूप में की थी – अर्थात महाबली का राज, जहाँ सब समान होंगे।

हमें यह याद रखना होगा कि महात्मा फुले को वैदिक संस्कृत गुरुकुल में इसलिए प्रवेश नहीं मिल सका क्योंकि वे शूद्र थे और अंततः उन्हें एक स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को भी पढ़ाया और वे आगे चल कर आधुनिक भारत की पहली महिला अध्यापक बनीं। फुले दंपत्ति ने वंचितों – विशेषकर दलितों के लिए स्कूल के द्वार खोले। केरल की आधुनिकता के अग्रदूत नारायण गुरु, जो कि स्वयं जातिच्‍युत अवर्ण थे, ने भी वैदिक वर्णाश्रम धर्म को चुनौती देने के लिए, अछूतों के लिए शिक्षा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। फुले ने लिखा, “अंग्रेजों ने हमें शिक्षा पाने और तपस्वी बनने का अधिकार दिया और वे ही हमारे गुरु हैं। अगर मैं राम के काल में जन्मा होता, तो मैं शम्बूक की गति को प्राप्त होता क्योंकि हिन्दू के शासन का आधार (मनु) स्मृतियाँ हैं।’’

यह दिलचस्प है कि बलि का मिथक आज भी जिंदा है और महाराष्ट्र से लेकर केरल तक प्रचलित है। ये दो राज्य, देश के ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं जहाँ के लोग लम्बे समय से समुद्र के रास्ते दुनिया के अन्य हिस्सों – विशेषकर बौद्ध विश्व – से जुड़े हुए थे। यह स्पष्ट है कि वामन के हाथों बलि की पराजय की कहानी, दरअसल, मध्यकाल की शुरुआत में, वैष्णव ब्राह्मणवाद द्वारा बौद्ध धर्म को परास्त करने के घटनाक्रम का रूपक है। विष्णु और शिव के सहस्रनाम भी जैन और बौद्ध स्थलों पर विजय और उनसे जुड़े स्थानीय देवी-देवताओं का नामोनिशान मिटाने के अभियान की ओर संकेत करते हैं। इस अभियान में वैष्णव और शैव भक्ति पंथों के मुखौटों का इस्तेमाल किया गया। इस तरह, ब्राह्मणवाद ने मध्यकाल में पूरे भारत पर विजय हासिल कर ली और बौद्ध धर्म की तार्किक संशयात्मकता और उससे उपजे समतावाद, जो जाति और ब्राह्मणवाद के निषेध पर आधारित था, को समूल उखाड़ फेंका।   

बलि के साथ ‘समस्या’ यह थी कि वह एक न्यायप्रिय शासक और जननेता था। वह परोपकार और ज़रूरतमंदों की नि:स्वार्थ सेवा के लिए जाना जाता था। ब्राह्मणवादियों को यह पच नहीं रहा था कि एक बौद्ध बहुजन शासक अपनी मानवता और नैतिकता के लिए पहचाना जाये और उन्होंने बलि की नैतिक प्रतिबद्धताओं का इस्तेमाल उसे ही पदच्युत करने के लिए किया। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि विष्णु के वामन जैसे कई अवतारों – जो, दरअसल, ब्राह्मणवादियों के एजेंट थे –  ने संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप, विशेषकर उसके दक्षिणी राज्यों में छलकपट से श्रमण राजाओं को गद्दी से हटाकर सत्ता पर कब्ज़ा किया। इसके कुछ उदाहरण हैं महिषासुर, बलि और रावण। मध्यकाल के आरंभिक दौर से हिन्दुओं के साहित्यिक महाकाव्यों में मनुष्यों के दानवीकरण और पशुकरण का सिलसिला शुरू हुआ। उन्हें बंदरों, भालुओं और अन्य जानवरों के सदृश प्रस्तुत किया गया। बलि भी दानवीकरण के शिकार बने। वैष्णव ब्राह्मण कथाओं में उन्हें दानव निरुपित करते हुए राक्षस व असुर के नाम से संबोधित किया गया और फिर यह बताया गया कि किस प्रकार छल से उनका सफाया किया गया। उन्हें असुर इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने समाज के सबसे निचले तबके के साथ उदारता और सहृदयता का व्यवहार कर वैदिक वर्णाश्रम धर्म के नियमों को तोड़ा। उन्होंने वर्ण-आधारित जातिगत व लैंगिक पदक्रम की कभी परवाह नहीं की। इस पदक्रम को आंबेडकर, उमा चक्रवर्ती और शर्मीला रेगे ने ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता की संज्ञा देते हुए दोहरा भंवरजाल बताया है। बलि, वर्ण और जाति के शत्रु बन गए और उसकी जड़ अर्थात पुरोहित वर्ग के ब्राह्मणवाद के भी। कांचा इलैया लिखते हैं कि 21वीं सदी में भी मीडिया में लालू और राबड़ी यादव का दानवीकरण और पशुकरण करने के लिए भैंस के रूपक का इस्तेमाल किया गया। “भैंसासुरों” का सिर आसानी से कलम किया जा सकता है। मध्यकाल में बौद्धों को दानव या म्लेच्छ बताकर उन्हें दूसरों से ‘अलग’ श्रेणी में रखा गया और फिर उनका सफाया कर दिया गया। लगभग यही आज मुसलमानों के साथ किया जा रहा है।

केरल के लोग आज भी महाबली या मावेली को भूले नहीं है। नारायणगुरु के प्रमुख अनुयायी सहोदरन अय्यप्पन ने २०वीं सदी की शुरुआत में अपने गीतों के जरिये मावेली की याद को पुनर्जीवित किया। सहोदरन ने मावेली की मुक्तिदायिनी स्मृति को अमर बनाने के लिए दो कविताएँ लिखीं– “ओनाप्पट्टू” और “युक्तिकालम ओनापट्टू”। वे लोगों से यह अपील करते हैं कि वे बौने वामन की विचारधारा को त्यागें। यह अपील आज के भारत में भी प्रासंगिक है। वे हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की समस्याओं और इस व्यवस्था के द्वारा रचे गए नरसंहारों का वर्णन करते हैं। वे मध्यकालीन दलित कवि पक्कनार की मावेली पर लिखित पंक्तियों को उद्धृत कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। सहोदरन द्वारा इन कविताओं के लेखन के पहले, नारायणगुरु के एक अन्य अनुयायी मुलूर ने पक्कनार और पुलायनर का स्मरण करते हुए उन्हें केरल की काव्य परंपरा का आरंभिक कवि बताया था – उस काव्य परंपरा का जो संगम काल से शुरू होती है। मुलूर पद्मनाभ पनिक्कर ने अपने मित्र और दलित सुधारवादी कुरुम्बन देवतर को उनके जनजागरण अभियान में प्रयोग करने के लिए पुलावृतंगल नामक कविताओं का संकलन भी तैयार किया था। उन्होंने बुद्ध के धम्मपद का पाली से मलयालम में अनुवाद भी किया था। ओणम का त्यौहार महाबली की याद में मनाया जाता है, वामन नामक उस ब्राह्मण बौने की याद में नहीं जो विष्णु का अवतार था। इस दंतकथा से साफ है कि वैष्णव ब्राह्मणवाद ने छल से बलि को पराजित किया था। इस सिलसिले में यह स्मरण करना प्रासंगिक होगा कि कुछ वर्षों पूर्व, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा केरलवासियों को ओणम की जगह ‘वामन जयंती’ की शुभकामनाएं देने पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शाह की यह चाल, क्षेत्रीय उत्सवों और किंवदंतियों का ब्राह्मणीकरण करने की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है।  

जनश्रुति यह है कि हर साल, मावेली ओणम के दौरान अपने लोगों से मिलने आते हैं। यह उत्सव समतावादी युग की याद में मनाया जाता है। अगर हम इतिहास को देखें तो हमें पता चलेगा कि जहाँ तक केरल का प्रश्न है, यह युग, बौद्ध काल था। ओणम के अवसर पर बनाये जाने वाले फूलों के कालीन और अन्य परम्पराएं बौद्ध सौंदर्यशास्त्र से जुड़ी हुई हैं, जो संस्कृति और प्रकृति की एकता पर ज़ोर देता है और जिसके पर्यावरणीय सरोकार हैं। फूलों के कालीन पर पिरामिड के आकार का बौद्ध स्तूप जैसा ओंताप्पन रखा जाता है, जो नए वस्त्र भेंट किये जाते हैं, वे पीले रंग के होते हैं और केले के पत्तों पर भोजन परोसा जाता है। यह सब बौद्ध धर्म की लाक्षणिकता और दर्शन से सम्बद्ध हैं। मलयालम माह चिंगम, जिसमें ओणम मनाया जाता है, सिम्हम या शाक्य सिम्हा के नाम पर है।

शाक्य सिम्हा या बुद्ध को केरल में चकया चिंगा कहा जाता है। उन्हें ओनाताप्पन अर्थात ओणम के देव के नाम से भी जाना जाता है। केरल के सभी बड़े मंदिरों में, देवताओं को अप्पन कहा जाता है। यह तमिल मूल का पाली शब्द है और इसका संस्कृत से कोई लेना देना नहीं है। चाहे गुरुवयूर हो या वायकोम अर्थात विष्णु या शिव – उन्हें अप्पन ही कहा जाता है। इससे भी यह साबित होता है कि केरल के सभी प्राचीन मंदिर, मध्यकाल तक बौद्ध पवित्र स्थल या महायान पल्ली या विहार थे। जैसे-जैसे भक्ति का जोर बढ़ा, महायान पवित्र स्थलों में स्थित बोधिसत्वों को अय्यपा, मुरुका और कन्नन में परिवर्तित कर दिया गया। यह तर्क भी दिया जाता है कि ओनाताप्पन, दरअसल मैत्रेय हैं – भविष्य के बुद्ध।

आज भी, महाराष्ट्र से लेकर केरल तक महाबली, समतावादी श्रमण परंपरा के जीवित रहने का अहसास दिलाते हैं। आमजनों के लिए बलि, समानता और न्याय की अजेय आत्मा हैं। ब्राह्मणवाद ने छल और विश्वासघात के जरिये इस नैतिकतावादी और समतावादी संस्कृति को – भारत में बहुजन या जन संस्कृति थी – पर विजय प्राप्त की। जब ब्राह्मणवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और कट्टर हिंदुत्व के रास्ते एक बार फिर हमला करेगा तो हमें करुणा और अहिंसा की मजबूत नींव पर आधारित नैतिकता और ज्ञान के प्रकाश में उसका प्रतिरोध करना होगा। हम सबके हृदय में ओनाताप्पन या शाक्य सिम्हा का वास हो और आंबेडकर के शब्दों में हम अपने हृदय और सूखी आद्रभूमि में हजारों कमल के फूल खिलने दें।    

(अंग्रेजी से अनुवाद : अशोक व कापी एडिटर : इमामुद्दीन)

 


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लेखक के बारे में

डॉ. अजय एस. शेखर

डॉ. अजय एस. शेखर कलाडी, केरल में स्थित एसएस यूनिवर्सिटी ऑफ संस्कृत में अंग्रेजी के सहायक प्राध्यापक और ''सहोदरन अय्यप्पन: टूवर्डस ए डेमोक्रेटिक फ्यूचर" के लेखक हैं। हाल में केरल की संस्कृति और सभ्यता के बौद्ध आधार पर पुत्तन केरलम शीर्षक से मलयालम में उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई है

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