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ओबीसी उद्यमिता की मिसाल बने राघव राम मौर्य

राघव राम मौर्य कहते हैं कि ख्वाब देखना और उसे पूरा करना ही जीवन है। हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस भी है कि आज भी सामाजिक व्यवस्था जस की तस है। आज भी जब वे अपने गांव जाते हैं तो ऊंची जातियों के लोगों को यह रास नहीं आता है कि वे महंगी कार की सवारी करते हैं। नवल किशोर कुमार बता रहे हैं उनकी सफलता की कहानी :  

बहुजन उद्यमी श्रृंखला

(दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के उद्यमियों की सफलता से संबंधित आलेख की श्रंखला के तहत दूसरे लेख में प्रस्तुत है राघव राम मौर्य की उद्यम यात्रा)

प्रसिद्ध कवि व शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा है – “कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता/एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारों”।

आसमान में सुराख बनाने की कुछ ऐसी ही मिसाल पेश की है उत्तर प्रदेश के एक गरीब किसान परिवार से संबंध रखने वाले राघव राम मौर्य ने। कम शिक्षित होने के बावजूद राघव राम मौर्य ने लगन और मेहनत से वह मुकाम हासिल किया है जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। बेशक जीवन की यात्राओं में उन्हें कदम कदम पर नई- नई चुनौतियां मिलती रहीं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बल्कि इन चुनौतियों से उनमें आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति विकसित होती गई। आज वह न केवल अपना परिवार बल्कि लगभग 300 लोगों को रोजगार दे रहे हैं। राघव उन लोगों के लिए भी प्रेरणास्रोत हैं जो अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश हैं।

राघव राम मौर्य, ओबीसी उद्यमी, मौर्य प्रिंटिंग प्रेस प्राइवेट लिमिटेड

48 वर्षीय राघव राम मौर्य आज दिल्ली के औ्द्योगिक क्षेत्र ओखला में उद्यमी हैं। यह उनका पुश्तैनी कारोबार नहीं बल्कि उन्होंने इस मुकाम अपनी मेहनत और लगन से हासिल किया है। करीब 14 वर्ष की उम्र में अपने घर से दिल्ली भागकर आने के बाद उन्होंने वे काम किए जिन्हें लोग तिरस्कार की नजरों से देखते हैं। उन्होंने होटलों में बर्तन मांजे, फैक्ट्रियों में चाय पहुंचाने का काम किया। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। आज उनके पास करीब चालीस हजार वर्ग फीट में प्रिंटिंग प्रेस स्थापित है। उनका उद्यम अब इतना बड़ा है कि करीब तीन सौ लोग यहां काम करते हैं।  राघव राम मौर्य बताते हैं कि शुरू में उन्हें पांच रुपए दिहाड़ी मिलती थी। आज वे प्रतिमाह उद्यम में काम करने वालों को करीब 40-45 लाख रुपए वेतन देते हैं।

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उनकी सफलता की कहानी बड़ी दिलचस्प और प्रेरणादायक है। उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले के रामापुर गांव में 1970 में जन्मे। जन्म की तारीख याद नहीं है। पिता लल्लू मौर्य किसान थे। परिवार की आजीविका सब्जियां बेचकर चलता था। जिसे वे स्वयं अपने खेतों में उगाते थे।

छठी जमात पढ़े हैं राघव

केवल छठी जमात तक बढ़े राघव एक दिन घर से भाग गए। वह बताते हैं कि बचपन में वे बहुत शरारती थे। एक दिन मां ने जमकर पीटा। यह घटना 1984 की है। भागकर पहले देहरादून गया। वहां डाकपत्थर नामक जगह पर एक होटल में काम किया। काम था – जूठे बर्तन मांजना और ग्राहकों को पानी पिलाना। फिर एक दिन वहां से दिल्ली चला आया। दिल्ली में मामा और बड़े भाई दोनों चौकीदार थे। मामा जी ने एक चाय दुकान में रखवा दिया। वहां भी काम वही। बर्तन मांजना और चाय पहुंचाना।

बड़े भाई एक प्रिंटिंग प्रेस में चौकीदार थे। प्रेस का नाम था कुमार प्रिंटिंग प्रेस। आज भी यह प्रेस सजीव है। लेकिन राघव राम मौर्य की कंपनी मौर्य प्रिंटिंग प्रेस प्राईवेट लिमिटेड की करीब आधी। राघव बताते हैं कि जिस कंपनी में उन्होंने काम शुरू किया वहां पांच रुपए प्रतिदिन दिहाड़ी मिलती थी। मालिक राजस्थानी मूल के थे और पुरबिया यानी पूर्वांचल से आने वाला मैं अकेला था। इस कारण भेदभाव भी झेलना पड़ता था।

अपने कर्मियों के साथ राघव राम मौर्य

उन दिनों फैक्ट्रियों में ठेका प्रथा थी। मैं भी ठेकेदार के तहत किसी फैक्ट्री का मजदूर था। फिर जो ठेकेदार अठन्नी अधिक देता, उसके साथ काम करने चला जाता। यही दिनचर्या थी। उन दिनों खर्च भी बहुतकम था। मैं तीन अन्य लोगों के साथ मिलकर रहता और पूरे महीने का खर्च कुल मिलाकर तीन सौ रुपए होते। सभी 75-75 रुपए खर्च करते। धीरे-धीरे काम समझ में आने लगा।

1990 में आया जीवन का यू टर्न

करीब दो वर्ष के अंदर मैं भी ठेकेदार बन गया। यहां से लाइफ ने यू टर्न ले लिया। मेरा यह कारोबार चल निकला। 1990 तक मैं प्रिंटिंग प्रेसों के गलियारे में सबसे बड़ा ठेकेदार हो गया। एक साथ कई फैक्ट्रियों में मेरे मजदूर काम करते थे। एक साल बाद 1991 में कुछ अपना करना का जज्बा मन में आया। एक लाख रुपए का निवेश कर डाय कटिंग मशीन लगाई। काम शुरू हुआ। इससे पहले कि सफलता मिलती, बड़ा झटका लगा। मशीन खराब हो गयी। फिर से शून्य की स्थिति हो गयी। लेकिन हिम्मत नहीं हारी।

बड़े भाई को सौंपी ठेकेदारी की जिम्मेदारी

राघव बताते हैं कि ठेकेदारी फिर से शुरू हो गई। लेकिन मन में अपने उद्यम का विस्तार करने का ख्वाब जिंदा था। उन दिनों पारामाउंट बॉक्स मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी के मालिक धर्मवीर चौधरी ने बड़ी मदद की। उन्होंने अपनी गारंटी देकर एक मशीन दिलवा दी। उनका यह उपकार में मैं कभी नहीं भूल सकता। काम फिर से शुरू हो गया। राघव के अनुसार वे स्वयं अपनी छोटी सी फैक्ट्री में मजदूर की तरह काम करते और काम चल पड़ा। ठेकेदारी का काम देखने के लिए बड़े भाई को घर से बुलाया। पांच-छह विश्वासपात्र मजदूर थे।उन्हें अलग-अलग कंपनियों का ठेका देकर खुद अपने उद्यम में जुट गया।

पार्टनरशिप में शुरू किया काम

वर्ष 1996 में एक साथी मिले अनिल मित्तल। उन्होंने निवेश किया और कार्य क्षेत्र का विस्तार बढ़ा। राघव बताते हैं कि तब वे अत्याधुनिक प्रिंटिंग से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए डिब्बे आदि तैयार करने लगे। 2000 में अनिल अलग हो गए। लेकिन काम फिर भी चलता रहा। 2001 में फिर बड़ा नुकसान हुआ। बारिश के कारण सभी मशीनें ही नहीं तैयार माल भी बर्बाद हो गया।

परिवार का हमेशा साथ मिला

एक बार फिर शून्य से शुरू करना पड़ा। 2004 में मौर्य प्रिंटिंग प्रेस प्राईवेट लिमिटेड की स्थापना की। तब से लेकर आजतक उद्यम चल रहा है। इस बीच परिवार को समय नहीं दे पाने का मलाल राघव राम मौर्य को है। लेकिन परिवारवालों ने भी कोई शिकायत नहीं की। लेकिन संतोष इस बात का है कि उद्यम का जो सपना उन्होंने देखा, उसे पूरा किया। वे बताते हैं कि आज उनकी कंपनी में करीब तीन सौ कर्मचारी हैं। सभी मेरे परिवार के सदस्य जैसे हैं। मैं स्वयं भी उनके साथ मिलकर काम करता हूं।

एक और लक्ष्य, गांव में अत्याधुनिक स्कूल खोलना

बहरहाल राघव राम मौर्य बताते हैं कि उनकी बड़ी इच्छा है अपने गांव में अत्याधुनिक स्कूल खोलने की। एक ऐसा स्कूल जहां सभी जातियों के गरीबों के बच्चे निशुल्क पढ़कर जीवन के ऊंचे ख्वाब देख सकें। ऐसा ख्वाब जो राघव स्वयं न देख सके। वे कहते हैं कि ख्वाब देखना और उसे पूरा करना ही जीवन है। हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस भी है कि आज भी सामाजिक व्यवस्था जस की तस है। आज भी जब वे अपने गांव जाते हैं तो ऊंची जातियों के लोगों को यह रास नहीं आता है कि वे महंगी कार की सवारी करते हैं।

(कॉपी एडिटर : ब्रह्मदेव)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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