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आदिवासियों के साथ लेखकों और इतिहासकारों ने बहुत बेईमानी की है : ग्लैडसन डुंगडुंग

आदिवासी लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग ने आदिवासी अस्मिता के संघर्ष और उनके अस्तित्व पर बहुत लिखा है और ख़ुद भी संघर्षरत हैं। उनका कहना है कि प्राकृतिक सम्पदा के लिए आदिवासियों को नक्सली बताकर मारा जा रहा है। समाजसेवी एवं लेखक विद्या भूषण रावत ने उनसे विस्तृत चर्चा की। प्रस्तुत है संपादित अंश :

हाल ही में आपकी किताब आई है ‘इंडलेस क्राइ इन द रेड कॉरिडोर’। इसके ज़रिए अाप क्या कहना चाहते हैं?

हम यह बताना चाहते हैं कि इस देश के शासकों ने आम लोगों को लूटा। तकरीबन 9 हज़ार किलोमीटर का जो क्षेत्र है, नेपाल से आंध्र प्रदेश तक। जिसको ये लोग रेड कॉरिडोर बोलते हैं। रेड कॉरिडोर में ये लोग दिखा रहे हैं कि यहां नक्सली हैं, माओवाद है। भारत का नक्शा उठाकर देखिए तो दिखता है कि इस क्षेत्र में आदिवासी रहते हैं। जंगल, खनिज सम्पदा सब इसी कॉरिडोर में है और ये लोग इसी को नक्सली कॉरिडोर बोलते हैं। इसको ये रेड कॉरिडोर क्यों बोल रहे हैं? क्योंकि यहां के प्राकृतिक संसाधनों को निकालना है, लूटना है और उनको बेचना है। 2008 में भारत सरकार ने इसे ब्रिटिश की एक्जीक्यूशन नॉबेल लिमिटेड नाम की बेकिंग कंपनी को स्टडी करने के लिए दिया। उसने इनको बताया कि आपका पूरा बिजनेस इस रेड कॉरिडोर में अटका हुआ है। अगर इसका आप उपयोग करें, तो भारत की इकॉनमी जंप कर जाएगी। जी.के. पिल्लै साहब ने उनको वादा किया कि हम 2013 तक रेड कॉरिडोर को खाली करा देंगे। यह बाकायदा लिखित में है। और इसी के तहत दो लाख पैरा मिलिट्री फोर्स को इस क्षेत्र में भेज दिया गया। उन्होंने आदिवासी लोगों को देखिए किस तरह मारा, उनको नक्सली घोषित किया। कम से कम यह तीन राज्यों में मैंने देखा और किताब में इसका जिक्र किया है कि किस तरह से एक आदिवासी को नक्सली बताकर, उसकी निर्मम हत्या कर दी जाती है। बाद में पता चलता है कि यह तो निर्दोष आदमी है। कम से कम एक हज़ार निर्दोष आदिवासियों को इन्होंने इस तरह से मार दिया गया। लगभग पांच सौ आदिवासी महिलाओं का यौन शोषण किया। उन पर अत्याचार किये। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड से लगभग 27 हज़ार लोग इन्होंने जेल में डाल दिए।

आदिवासी समाजसेवी एवं लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग

सारंडा जंगल, जिसके बारे में मैंने ‘मिशन सारंडा’ किताब लिखी। सरकार कहती है कि हम वहां स्कूल नहीं चला सकते। आंगनबाड़ी नहीं चला सकते। रोड नहीं बना सकते। मैंने साबित कर दिया कि वहां माइनिंग कंपनियां माइनिंग कर रही हैं। वहां पर राज्य कुछ नहीं कर सकता, तो माइनिंग कंपनियां माइनिंग कैसे कर रही हैं? रिपोर्ट आयी कि वहां पर माइनिंग कंपनियां कोई 50 लाख, कोई 25 लाख, सब माओवादियों को पैसा दे रही हैं। इतना ही नहीं, वो हथियार भी दे रही हैं। लेकिन, वहीं कोई आदिवासी गन प्वाइंट पर किसी माओवादी को मजबूरी में खाना खिला दे, तो उसे जेल में डाल देते हैं।

इससे यह स्पष्ट है कि आदिवासियों को मारकर, ये उनके जल, जंगल, जमीन और संसाधन, सब छीन लेना चाहते हैं। अंग्रेजी की एक कहावत है कि अगर एक कुत्ता, जिससे आपकी दुश्मनी है, तो उसे पागल घोषित करके मार दीजिए। आपसे कोई नहीं पूछेगा। तो वही तरीका ये आदिवासियों के साथ अपना रहे हैं। नक्सली कह दिया और मार दिया। तो कोई कुछ नहीं बोलता है।

अफसोसजनक बात है कि आदिवासियों के विकास के बारे में वे बातें कर रहे हैं जो उनके बारे में जानते और समझते भी नहीं हैं। मूल सवाल है कि विकास तो चाहिए ही। लेकिन यह कैसे हो, यह वे कैसे तय कर सकते हैं। आपको याद होगा कि चिदंबरम ने पार्लियामेंट के अंदर बोला था कि आदिवासी म्यूजियम में रखे जाने वाले लोग नहीं हैं। असल सवाल यही है कि वे आदिवासियों के विकास के बारे में बिना कुछ जाने कैसे बात कर सकते हैं?

ठीक है, अाप के विकास को हम मान लेते हैं। लेकिन, यह तो बता दीजिए कि सारंडा जंगल, जहां पर 1925 में माइनिंग शुरू हुआ। प्रति वर्ष 3 हजार करोड़ रुपये का आयरन वहां से सरकार निकालती है। फिर भी आदिवासियों के लिए वहां पर न अच्छी सड़क है। न अच्छा स्कूल है। न अच्छा हॉस्पिटल है। क्यों नहीं है वहां पर कुछ भी? आज भी सारंडा जंगल की 70 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी से क्यों जूझ रही हैं? वहां के 80 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार क्यों हैं?

झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है और अपने ही राज्य में आदिवासी अल्पसंख्यक हैं?

देखिए, चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस हो, शुरू से ही इनका एजेंडा रहा है कि आदिवासियों को ख़त्म कर दो। इसके लिए तरीका निकाला। आज़ादी के समय से ही कि दलित/आदिवासी को मुख्य धारा में लाना है। क्या है मुख्य धारा? यही कि आप अपना सब कुछ छोड़ो और हमारी तरफ आ जाओ। ये चाहते हैं कि हमारी अपनी अस्मिता ख़त्म हो जाए। तो हमारी मुख्य लड़ाई अस्मिता की है। सुप्रीम कोर्ट ने भी 5 जून 2011 को कहा था कि आदिवासी इस देश के मूल निवासी हैं। इनको इसी से डर था। इसीलिए यह सब कुछ खत्म करना चाहते हैं।

पूरी दुनिया के अलावा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना कि आदिवासी मूल निवासी हैं। परंतु भारत सरकार को यह सच स्वीकारने में क्या दिक्कत है?  

संविधान सभा में इस पर बड़ी चर्चा हुई, जिसमें जयपाल सिंह मुंडा ने स्पष्ट बोल दिया कि हमें संविधान में आदिवासी शब्द चाहिए, उससे कम कुछ भी नहीं। संविधान के अनुच्छेद-13 (5) में आदिवासी शब्द डाला गया है। लेकिन, इसमें क्या है कि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर नहीं चाहते थे कि आदिवासी शब्द आए। कई लोग यह भी कहते हैं कि बाबा साहब को डर लग गया कि अगर आदिवासियों को मूलनिवासी कह दिया जाएगा, तो हमारे दलित लोग जो हैं उधर चले जाएंगे या क्या होंगे। बाबा साहब ने कहा भी था कि आदिवासी शब्द का कोई अर्थ नहीं है।

इसका कोई संदर्भ है?

हां, संदर्भ है। संविधान सभा में चर्चा में उन्होंने कहा है कि आदिवासी और अछूत दोनों एक ही तरह के शब्द हैं। इसका तो मतलब ही नहीं है। तो मुझे लगता है कि जब वह खुद ही इतना प्रताड़ित हुए थे, तो कहीं न कहीं आदिवासियों के लिए उन्होंने जो कहा, तो या उन्हें समय नहीं मिला आदिवासी समाज को समझने के लिए या वो अध्ययन नहीं कर सके। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब वह एक जगह भाषण देते हैं, तो कहते हैं कि सरकार को चाहिए अनसिविलाइज्ड (असभ्य) आदिवासियों का विकास करे। तो जो अनसिविलाइज्ड उनके मन में आता है, तो आदिवासियों के प्रति उनके दिमाग में इतना नकारात्मक भाव क्यों बैठा हुआ था?

नकारात्मक नहीं था। एक तो पहले ही डॉ. आंबेडकर अपने ही समाज की उलझनों में थे। आदिवासी तो छुआछूत का शिकार नहीं थे। तो, पहले तो संविधान सभा की चर्चा सामने लानी चाहिए। क्योंकि संविधान सभा में डॉ. अांबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा, ये दो ही लोग नहीं थे और भी लोग थे। तो डॉ. आंबेडकर को आरोप नहीं लगा सकते।

नहीं, मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं। मैं समझने की कोशिश कर रहा हूं। क्योंकि अश्विनी कुमार पंंकज ने एक किताब लिखी है। उसमें ये सब चीज़ें उन्होंने…!

उनसे भी मेरी बात हुई थी। मैंने उनसे कहा कि देखिए जब संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए बात हो रही थी। तो डॉ. आंबेडकर तो सबके साथ खड़े थे।

देखिए, इसमें मैं इस बात को गलत मानता हूं कि आदिवासी जो है, वह जाति है। वह जाति है ही नहीं। तो उनको जो अनुसूचित जनजाति दर्ज कर दिया, यह गलत है। उनको अनुसूचित जन लिखना चाहिए। आज आप देखिए आदिवासियों के लिए जाति प्रमाण पत्र दिये जा रहे हैं। तो जब आप हैं ही नहीं उस व्यवस्था में, तो आपको जाति प्रमाण पत्र की क्या जरूरत है? आदिवासी जन या आदिवासी नस्ल का सर्टिफिकेट देना चाहिए।

अच्छा, चाहे वह नेहरू हों, डॉ. आंबेडकर हों, चाहे जयपाल सिंह मुंडा हों, सब पश्चिम से पढ़ कर आए थे। तो इसमें उदारवाद शब्द जो है या लोकतांत्रिक उदारवाद या पश्चिमी उदारवाद। एक तरफ हम उन्हीं से सीख रहे हैं कि आप लोकतंत्र दे रहे हैं। दूसरी तरफ, हमारा उपनिवेशीकरण भी उन्होंने ही किया। तो यह अंतर्विरोध है। जो आदिवासी शब्द है, वह भी कहीं इसी तरह है? मूल भी कह दिया और असभ्य बता दिया।

एबोरिजनल (मूल निवासी) में नकारात्मकता भले हो, लेकिन बाद में इसमें इन लोगों को मुश्किल हो गयी। कि एबोरिजनल मतलब वह वहां का मूल हो गया, आप बाद में आए हैं। लेकिन, आदिवासी को शुरू से इन्होंने ऐसे दिखाया कि यह तो इंसान ही नहीं है या किसी जानवर का थोड़ा-सा विकसित रूप है। मतलब इंसानों में उसकी गिनती ही नहीं की। तो आज भी आप देखिए कि आदिवासियों के प्रश्न अगर केंद्र में नहीं हैं, तो उसका यही कारण है।

अांबेडकरवादी आंदोलन का हम विश्लेषण करते हैं, तो लोग कहते हैं कि एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति आ गई लोगों में, क्योंकि बाबा साहब ने कहा कि हमें रूढ़ परम्पराओं को छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। तो क्या आदिवासियों को भी ऐसा नहीं करना चाहिए?

नहीं, परम्पराओं का कोई सवाल नहीं। क्योंकि आदिवासी कोई जाति व्यवस्था में तो है नहीं। हमको किसी चीज को छोड़ने की जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं है कि आप देखेंगे कि आदिवासी फिलॉसफी का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ। यही मुख्य कारण रहा जिसकी वजह से आदिवासियों को दबाया गया। होता क्या है कि जब आप किसी से कोई चीज छुड़वाना चाहते हैं, जिससे आप को ख़तरा है, तो आप इतना नकारात्मक प्रचार-प्रसार कर दीजिए कि वह अपने आप उसे छोड़ दे। आदिवासियों के साथ यही किया गया। दूसरा, समानता आदिवासी समाज में इतनी अधिक है, जो दूसरे किसी समाज में नहीं है। दो तरह की समानता एक सामान्य समानता और दूसरी लैंगिक समानता। हमारे यहां जब एक संपन्न आदमी किसी गरीब से अपने खेत में काम कराता है, तो उसके साथ खुद भी काम करता है। उसके साथ बैठकर खाता है। ख़ुशी-त्यौहार मनाता है। उसे बुलाता है शादी-बगैरह में और उसके यहां भी जाता है। वहीं आप यूपी-राजस्थान-बिहार या दूसरे राज्यों में देखिए। कहीं भी ऐसा नहीं है। वहां पर भेदभाव किया जाता है गरीबी-अमीरी के हिसाब से। दूसरा, आदिवासी बेटियां अपनी मर्जी से अपना पति चुनती हैं। आपके सभ्य समाज में बताइए? पता चला लाखों महिलाओं को ज़िन्दा जलाया गया या हत्या कर दी, दहेज के कारण। बच्चियों को पैदा ही नहीं होने दिया। या लड़की पैदा हो गई, तो उसको मार दिया। यह है सभ्य समाज?

झारखंड में जैव विविधता उद्यान के नाम पर जंगल कटान का विरोध एवं विस्थापितों के लिए मुआवजे की मांग करते आदिवासी

सीएनटी एक्ट को जिस तरह आप लोगों ने संघर्ष करके रोका है। भारत के दूसरे राज्यों के लिए यह बहुत बड़ा उदाहरण है। तो इस एक्ट में सरकार क्या-क्या बदलाव ला रही है?

इसमें सीएनटी और एसपीटी दोनों का मामला है। सीएनटी की धारा 21, 49, 71 में संशोधन था और एसपीटी की धारा 13 में संशोधन था। पहला संशोधन यह था कि यह जो कृषि की ज़मीन है, उसको गैर-कृषि करना। तो यह बहुत खतरनाक खेल था और यह बहुत चालाकी से कर रहे थे। जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री बने, उन्होंने भूमि अधिग्रहण बिल में तीन बार बदलाव किया। इन्होंने क्यों ऐसा किया? क्योंकि भूमि अधिग्रहण एक्ट में जो पुनर्वास कानून-2013 है, उसमें स्पष्ट कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण नहीं करना है। जब तक आपको बहुत ही ज्यादा ज़रूरी नहीं है। दूसरी, उसमें महत्वपूर्ण बात है कि कृषि योग्य भूमि को नहीं लेना है। अगर लेना पड़े, तो आपको फिर दूसरी जमीन को कृषि भूमि बनाकर देना पड़ेगा। तो इससे बचने के लिए इन लोगों ने क्या किया कि कृषि योग्य भूमि को भी गैर कृषि भूमि घोषित कर देंगे। तो आप जब कोर्ट जाएंगे, तो ये बोलेंगे कि यह तो गैर-कृषि है और कानून में है। धारा 49 को अभी भी इन्होंने वापस नहीं लिया है। अभी हम लोग उसके लिए आंदोलन कर रहे हैं। धारा 49 के अनुसार, जमीन ले सकते हैं उद्योग और माइनिंग के लिए। जैसे इसमें यह दिया है कि जितना इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा है, उसको 3 महीने के अंदर एक प्रतिशत टैक्स देकर नियमित करना। इसीलिए व्यापारी लोग एकजुट होकर भाजपा सरकार को समर्थन देते हैं, उसको फंड देते हैं। और यह इनको बचाना चाहती है। क्योंकि, अगर आने वाले समय में आदिवासी समाज के लोग जज बन गए या सरकार में बैठ गए, तो सारे इंफ्रास्ट्रक्चर को तोड़ देंगे। तो इनका उद्देश्य व्यापारियों को बचाना है। इसीलिए जितनी ज़मीन बच गयी है, उसको भी ये लेना चाहते हैं।

झारखंड को आप देखें तो आंदोलन का नेतृत्व आदिवासियों के हाथ में है। और दूसरी जगह आदिवासियों का नेतृत्व गैर आदिवासियों के हाथ में है। इसमें आपको क्या लगता है?

यहां भी बहुत कोशिश हो रही है। यहां भी दूसरे लोग कोशिश करते हैं कि उनका नेतृत्व हो। लेकिन, हर एक समय में कोई न कोई लीडर पैदा हो गया आदिवासी समाज में। क्योंकि झारखंड में पिछले 3 सौ साल के आंदोलन का इतिहास है। आदिवासियों के साथ सबसे ज्यादा लेखकों, साहित्यकारों, कवियों और इतिहासकारों ने बेईमानी की है। ये बोलते हैं कि 1857 की लड़ाई आज़ादी की पहली लड़ाई थी। तो 1855 में क्या था? जब 15 हजार संथाल लोग मारे गए। सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू को फांसी दी गई। आज जो भी लोग अपने आप को देशभक्त सिद्ध करते हैं, वे बता दें कि एक भी क्षेत्र, जहां पर उन्होंने घोषणा कर दी हो कि वे अंग्रेजों का नेतृत्व स्वीकार नहीं करते हैं। आदिवासियों ने की। सिद्धू और कान्हू के साथ 60 हजार संथाल लोग थे, जिन्होंने अंग्रेजों से साफ कह दिया कि हम अपने राजा ख़ुद हैं। हम तुम्हारा शासन स्वीकार नहीं करेंगे। अंग्रेजों ने लिखा है वो जब गोली चला रहे थे, तो संथाल लोग सीना तानकर, सीने पर गोली खा रहे थे। इससे पहले के इतिहास में जाएं, तो सबसे पहले बाबा तिलका मांझी 1770 में, पहाड़ी आदिवासी लोगों से अंग्रेज मिले और रेवेन्यू इंपोज किया। तो आदिवासी लोगों ने उन्हें साफ कह दिया कि जल-जंगल-ज़मीन भगवान ने दिये हैं। इन्हें हम आपको नहीं देंगे। वहीं, जब पाकिस्तान की मांग हो रही थी। तब बाबा साहब ने दलित स्थान मांगा। तब जयपाल सिंह मुंडा ने भी आदिवासी स्थान मांगा। लेकिन, उनका आदिवासी स्थान पाकिस्तान या दलित स्थान जैसा नहीं था। उन्होंने कहा कि हम रहना भारत में ही चाहते हैं। लेकिन हमारे इलाकों को आप स्वायत्तता दे दीजिए। उसमें आप दखल नहीं देंगे।

डॉ. आंबेडकर वही तो कह रहे थे। वो अलग दलित स्थान की मांग नहीं कर रहे थे। क्योंकि भारत की मुख्य समस्या चुनावी व्यवस्था है। आदिवासी क्षेत्र में गैर आदिवासी को नियुक्त करके भेज दिया जाता है। मुस्लिम इलाके में गैर मुस्लिम चुनकर आ रहे हैं। तो वो उनके दर्द को बिना समझे काम कैसे करेंगे? तो जो संसद की बहुत बड़ी ग़लती है और उसमें सभी लोग जिम्मेदार हैं…!

कहीं न कहीं, मुझे जो लगता है वह यह कि बाबा साहब आंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा में कोई बातचीत नहीं हुई थी। क्योंकि, मैंने देखा कि संविधान सभा के बाहर कहीं पर भी कोई जिक्र नहीं है कि इन दोनों की बैठक हुई हो, बातचीत हुई हो। कल्पना कीजिए ये दोनों अगर मिले होते, नई स्ट्रेटजी बनाते, तो शायद आदिवासियों-दलितों की हालत कुछ अलग होती।

आजादी के बाद, जैसे डॉ. आंबेडकर को देखें तो बहुत लोगों, जैसे डॉ. राम मनोहर लोहिया आदि लोगों के साथ उनके अच्छे तालमेल हो गए थे। उनसे चर्चा चल रही थी कि दलित लोगों की, गरीब लोगों की गरीबी कैसे दूर की जाए? लेकिन 1956 में डॉ. आंबेडकर का निधन हो गया। मतलब एक बहुत बड़ा नुकसान! लेकिन, कैप्टन मुंडा? जो मतलब एक्चुअली इग्नोर्ड इन इंडियन कल्चर। क्या कारण है?

मुझे लगता है कि क्योंकि कांग्रेस में वो थे। पर उन्होंने जो भाषण दिया, जो लिखित है। उन्होंने सवर्णों को बहुत टारगेट किया। अपने भाषण में कहा है कि सवर्ण यह नहीं चाहते कि हम आदिवासी आगे बढ़ें। तो जयपाल सिंह मुंडा ने इसको समझा और झारखंड पार्टी बनाने के बाद सीधे 32 सीटें जीतीं। उसी समय कांग्रेस को डर लग गया कि यह आने वाले समय में बहुत बड़ा खतरा हमारे लिए हो सकते हैं। तो इसको लेकर उसने उन्हें दबाया। दूसरा, डॉ. आंबेडकर के बारे में उनके दोस्तों ने, अन्य लोगों ने बहुत लिखा है। लेकिन, जयपाल सिंह मुंडा के बारे में लोगों ने नहीं लिखा। बल्कि, उनके कुछ अपने लोग उन्हें नीचे करने में लग गये। और बाद के नेताओं ने भी जयपाल सिंह मुंडा की बात नहीं की। चाहे वह शिबू सोरेन हों या बाबूलाल मरांडी या कोई और। आप देखिए कि उस समय 9 गोल्ड मेडल जीतने वाले जयपाल सिंह मुंडा। उस समय के अकेले भारतीय कैप्टन थे। वही, आप देखिए कि जब झारखंड बनाने का आंदोलन चल रहा था, तब सबसे पहले आरएसएस-भाजपा ने इसका विरोध किया था कि ये देश के टुकड़े करना चाहते हैं। और आज सबसे ज्यादा आनंद वही कर रहे हैं। आरएसएस-भाजपा धर्म की राजनीति करते हैं। धर्म की लड़ाई ख़त्म, तो भाजपा ख़त्म।

क्या आपको नहीं लगता कि जो बड़े आंदोलन होते हैं, उनमें धर्म का सहारा लेना पड़ता है? जैसे डॉ. आंबेडकर बुद्धिज्म लेकर चले।

देखिए, आरएसएस की उत्पत्ति 1925 की है और आदिवासी समाज में लोगों को संगठित करने का काम 1915-16 में शुरू हो गया था। लेकिन पॉलिटिकल स्तर पर देखेंगे, तो 1952 में जयपाल सिंह मुंडा दिख जाते हैं। और आरएसएस 1980 के बाद आता है। लेकिन, देश में शासन कर रहा है। तब मुझे यह समझ में आता है कि जयपाल सिंह मुंडा या उनके ग्रुप ने जब आदिवासी महासभा बनाई, तब वो बहुत ताकतवर थे। उन्होंने वही ज़मीनी मुद्दे (भाषा, संस्कृति, पहचान, जल, जंगल, जमीन के मुद्दे)  उठाए, जो आज भी हैं। लेकिन, जो बड़ी गलती इन्होंने की, वह यह कि आदिवासी महासभा को झारखंड पार्टी में बदल दिया। इससे आदिवासी महासभा की पहचान ख़त्म हो गयी। इनको करना यह चाहिए था कि आदिवासी महासभा को आगे बढ़ाते हुए उसकी बागडोर किसी और के हाथ में दे देनी चाहिए थी और उसके कई अलग संगठन बनाकर राजनीति में सक्रिय रहते। जैसे आरएसएस ने किया। तो वह कोशिश आज हम कर रहे हैं।

दूसरा हम आदिवासी साहित्य पर काम कर रहे हैं। आदिवासी समाज को साहित्य ने खत्म कर दिया। उनके बारे में कुछ लिखा ही नहीं गया। …और अगर लिखा गया तो बहुत ग़लत-ग़लत लिखा गया कि आदिवासी जंगली हैं। अनपढ़ हैं। नंगे रहते हैं। तो यह हमको खत्म करने के लिए बहुत बड़ी साजिश थी। लेकिन, अब हम जो सही-सही चीजें हैं, उनको लिख रहे हैं। जो ग़लत चीजें हैं, उनका खंडन कर रहे हैं।

आज हम बात करते हैं कि दलित-आदिवासी एक मंच पर आने चाहिए।

लंबी लड़ाई के हिसाब से और पूरे भारत के संदर्भ में आप देखें, तो हमने देश में एक मूल निवासी मूवमेंट चलाया है। तो मैं मानता हूं कि हां, बिल्कुल जरूरी है। एकता होनी चाहिए। अलग-अलग होकर आप बहुत दिनों तक नहीं लड़ पाएंगे। क्योंकि, बँटे रहने से दुश्मन का आसानी से निशाना बन जाएंगे। लेकिन कहीं न कहीं, इसमें बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। क्योंकि मुद्दे अलग-अलग हैं।

अच्छा, अगर 10 साल बाद हम देखेंगे, तो हमें लगेगा कि नहीं, आदिवासी जीवन ही सही है। क्योंकि, विकास की होड़ में कैसे इधर से उधर भाग रहा है आदमी। आप क्या कहेंगे?

पिछले 3-4 साल से लगातार मैं यूरोप जा रहा हूं। लोग बोल रहे हैं कि अगर जीना है तो आपके जैसे जीना पड़ेगा। लंदन के 25 परिवार वेल्स के जंगल में जाकर बस गए हैं। छोटे-छोटे घर बनाकर रह रहे हैं। मोबाइल-इंटरनेट उनको नहीं चाहिए। मैंने उनसे पूछा क्यों किया ऐसा? तो बोलते हैं कि यह विकास जो है, वह पागलपन है। जब धरती नहीं बचेगी, तो हम कहां बचेंगे? तो इसीलिए अगर दुनिया को बचाना है, तो आदिवासियों के रास्ते पर चलना ही पड़ेगा।

झारखंड में तैनात सीआरपीएफ जवान

झारखंड में आदिवासियों के सामने एक चुनौती बढ़ रही है। यहां जो दिकू पॉपुलेशन (बाहरी आबादी), बढ़ती जा रही है। क्या कहेंगे?

संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुसार जो बाहर की आबादी है, उस पर रोक लगानी चाहिए। इसके लिए जब हम बोलते हैं, तो लोग संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (2) (3) (4) का उदाहरण देकर बोलते हैं कि नहीं, आप देश में कहीं भी रह सकते हैं। कहीं भी नौकरी कर सकते हैं। लेकिन, वो इससे आगे अनुच्छेद 19 (5) (6) पर नहीं बोलते हैं, कि कोई राज्य बाहरी लोगों पर प्रतिबंध लगा सकता है।

मीडिया आदिवासियों को किस रूप में देखता है?

मीडिया आदिवासियों की खबर तभी छपता है, जब उसे लगता है कि यह बिकेगी। मीडिया इसको प्रोडक्ट के रूप में देखता है। यह देश का सबसे बौद्धिक और नस्ली संस्थान है। मगर आदिवासी क्षेत्र में कोई आदिवासी न्यूज एडिटर या ब्यूरो चीफ नहीं मिलेगा। सब दिकू लोग हैं। उनमें कई को हिंदी भी ठीक से लिखनी नहीं आती है, मगर हैं। यह मीडिया के लिए बड़ी शर्मनाक बात है। यहां रोककर रखा हुआ है आदिवासियों को। जबकि आपको हर क्षेत्र में अच्छे और बड़े स्तर पर आदिवासी मिल जाएंगे।

निजीकरण की प्रक्रिया को भारत में क्यों जारी रखना चाहते हैं?

हां, इसीलिए यह बड़ी चालाकी से किया जा रहा है। ताकि आप जब सवाल करेंगे कि आरक्षण क्यों नहीं दे रहे हैं? तो कह देंगे कि यह तो प्राइवेट हो गया। तो आरक्षण कैसे दें? आप मेरिट की बात करते हैं। मेरिट में दलित-आदिवासी कम हैं क्या? फिर यह बताओ कि देश में इतना करप्शन हो रहा है, तो कौन-से दलित-आदिवासी लूट रहे हैं देश को? देश को आपने 70 साल तक चलाया, उसके बाद भी आप एक समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं। देश में एक कार्यक्रम बता दीजिए, जिसको आपने 100 प्रतिशत लागू किया? सड़क बनती है, तो दो साल में ही टूटने लगती है।

आपकी आगे की योजना क्या है?

भाषा, संस्कृति, जल-जंगल-ज़मीन और पूरी आदिवासी संस्कृति को बचाना। इसके लिए आदिवासी समाज को कहीं न कहीं बौद्धिक बनाना पड़ेगा। तो मैं समझता हूं और कोशिश भी करता हूं कि आदिवासी को बचाने की लड़ाई बौद्धिक होगी। और जिस दिन आदिवासी समाज में बौद्धिक क्रांति आ जाएगी, उसको कोई नहीं जीत पाएगा। अभी वह कानून को नहीं जानता है कि कैसे चालाकी से सरकार उसकी ज़मीन हथिया रही है। नये-नये कानूनों को नहीं जानता, तो उसे जानना होगा। एक तरफ भाजपा दिखाती है कि हम आदिवासियों के हैं और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को नक्सली बताकर मार रहे हैं। उनकी औरतों के साथ बलात्कार कर रहे हैं। जहां 15 साल से भाजपा की सरकार है, वहां यह सब हो रहा है। तो यह सब आदिवासी तब समझेंगे, जब उनमें बौद्धिक क्रांति आएगी, तब वो विश्लेषण कर पाएंगे।

दूसरा यह लोग बोलते हैं कि धर्मांतरण हो रहा है। लेकिन 1951 में भी ईसाइयों की आबादी देश में 2 प्रतिशत थी और 2011 की जनगणना में भी 2 प्रतिशत है। तो धर्मांतरण कैसे हुआ? दूसरा, ईसाई मिशनरियां देश में सबसे ज्यादा शिक्षण संस्थान चलाती हैं, जिनमें अन्य धर्मों के बच्चे पढ़ते हैं। तो अगर इन संस्थानों में धर्मांतरण होता, जैसा आरएसएस-भाजपा का कहना है। तो सबसे ज्यादा आबादी तो ईसाइयों की होती। ज्यादा नहीं तो 10 प्रतिशत तो बढ़ती? तो आरएसएस और भाजपा के जितने आंदोलन चल रहे हैं, वो सब झूठ पर खड़े हुए हैं।

क्या भारतीय संसद को दलितों/आदिवासियों के साथ हुए अत्याचार के लिए माफी नहीं मांगनी चाहिए?

देखिए, आज नहीं तो कल इनको माफ़ी तो मांगनी पड़ेगी। इसीलिए हम इतनी रिसर्च कर रहे हैं कि अगर आप ऐसे नहीं मांगेंगे माफी, तो कहीं न कहीं हम आप को मजबूर कर देंगे। जिस दिन देश में दलित/आदिवासी/ओबीसी एकता मजबूत हो जाएगी, उस दिन इस देश के शासकों को माफी मांगनी पड़ेगी कि हमने आपके साथ अन्याय किया। इसीलिए हम जैसे लोगों का मुंह बंद करने के लिए लोग केस करते हैं। हमें रोकते हैं।

क्या इस लड़ाई में और लोगों को भी शामिल होना चाहिए?

नहीं, दिक्कत कुछ नहीं है। मगर गैर आदिवासी लोग जब लीडरशिप चाहते हैं, तो मुझे दिक्कत होती है। इसमें मेधा पाटकर हैं, पी.वी. राजगोपाल हैं और भी हैं, तो मैं उन्हें सैल्यूट करता हूं। पर लीडरशिप ही क्यों चाहिए? अरुंधति रॉय कहती/लिखती हैं कि माओवादी नहीं होते, तो आदिवासियों का क्या होता? आप कैसे कह सकते हैं यह? वह भी उस आदिवासी समाज को, जिसने अंग्रेजों को मजबूर कर दिया और टिकने नहीं दिया अपने क्षेत्र में।

झारखंड में अन्यायपूर्ण विकास का विरोध करते आदिवासी समाज के लोग

एक उदाहरण देता हूं- जब गांधी फाउंडेशन लंदन में 2011 में दो भारतीय आदिवासियों को अंतरराष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जाना था। तब उन्होंने दो लोगों को चयनित किया, बुलु इमाम और डॉ. विनायक सेन! दोनों के काम को मैं सैल्यूट करता हूं। लेकिन सम्मान आदिवासियों के लिए था। तब मैंने वहां पर आपत्ति की कि आपको भारत के 10 करोड़ आदिवासियों में दो आदिवासी नहीं मिले? तब उन्होंने जो बताया उसे सुनकर मुझे बहुत हैरत हुई। उन्होंने कहा हमें लिखकर दिया गया था कि भारत में कोई भी ऐसा आदिवासी नहीं है, जो लंदन आकर अंग्रेजी में अपनी बात रख सके। तब मैंने दूसरी चिट्ठी लिखकर पूछा कि भारत के 10 करोड़ आदिवासियों पर दो लोग भारी पड़ गये? मैंने कहा कोई बात नहीं, अगर सम्मान उनको ही देना था, तो भारत के आदिवासियों का नाम क्यों लिया? इसका मतलब आप ने आदिवासी समाज का अपमान किया। आप को माफी मांगनी चाहिए। तो उन्होंने माफी मांगी। कुछ लोगों ने मुझे भी पहले बहुत हाथों हाथ लिया। इस तरह के लोभी लोग समझ रहे थे कि ग्लैडसन उनकी गोद में खेलेगा। लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि यह तो अपने मन की करेगा, तो मुझे एकदम नेगलेक्ट कर दिया।

किसी ने इस पर कहा कि डॉ. सेन को सम्मान मिला, तो आपको क्यों दिक्कत हो रही है?

मुझे दिक्कत क्यों होगी? आप डॉ. सेन को नोबेल दे दीजिए। लेकिन यह सम्मान भारतीय आदिवासियों के लिए था, तो गै़र आदिवासी कैसे ले लिये।

लोग बोलते हैं कि आपके पर्सनल इश्यूज हैं। जैसे पासपोर्ट के हैं, उनको आप ज्यादा उठाएंगे?

नहीं, कोई पर्सनल इश्यूज है ही नहीं। मेरा पासपोर्ट तीन बार जब्त हुआ। आईबी में अंदर कुछ लोग हैं, जिन्होंने बताया कि आपका पासपोर्ट इसलिए लिया गया है कि सारंडा में आपने बहुत बड़ा अंतरराष्ट्रीय सवाल खड़ा किया है। मेरे पर्सनल इश्यूज का कोई सवाल ही नहीं था, पासपोर्ट के मामले में। होता क्या है कि आप जितना उठेंगे, उतने दुश्मन बनेंगे। बहुत सारे लोग जलते भी हैं। तुम्हें पर्सनल इश्यूज उठाकर शूट करने की कोशिश करते हैं। होता रहता है, करने दीजिए। इसलिए मेरा तो अपना कमिटमेंट है कि जब तक जिंदा हूं, समाज के लिए लड़ूंगा।

आप संघर्षों से ही आए हैं। पारिवारिक जीवन आपका पूरा संघर्षमय है। उस संघर्ष के बारे में कुछ बताएं?

मेरा परिवार पहले काफी समृद्ध था। मेरे दादाजी अध्यापक थे उस जमाने में और सोशल वर्क करते थे। उनका काफी एरिया में नाम था। उनके दो बेटे थे, मेरे पिताजी छोटे और उनके बड़े भाई। सिंडेरा में केलाघाट डैम से सटा बिरनी मेरा गांव है। जब मेरे दादा जी की नौकरी लगी, तो वे दूसरे गांव चले गये। वहां पर उन्होंने नौकरी तथा और भी काम करके 10 एकड़ जमीन खरीदी। उनको यह लगा कि दो बेटे हैं। दोनों को अलग-अलग जगह बसाएंगे, तो लड़ाई नहीं होगी ज़मीन को लेकर। 1980 में डैम बना हमारे गांव में। मैं वहां पैदा नहीं हुआ। मैं नई जगह पर पैदा हुआ। हमारे पैतृक गांव की खेती की सारी ज़मीन डूब गयी। हमें थोड़ा-बहुत पैसा मिला। आज तक वह केस चल रहा है।  तो मज़बूर होकर मेरे पिताजी को भी नये गांव जाना पड़ा, दादाजी के मृत्यु होने के बाद। तो जो ज़मीन एक भाई के लिए खरीदी गई थी, उसमें दो हिस्से हो गए। मेरे बड़े पिताजी को नौकरी मिल गई थी। फिर हम लोगों की स्थिति ऐसी हो गई कि घर में खाने तक को नहीं। मैं बहुत छोटा था। मुझे याद है कि हमारे पिताजी जंगल से लकड़ी लाकर उसे 17 कि.मी. दूर ले जाकर बेचते थे, तब घर में भोजन का इंतज़ाम होता था। फिर मेरे पिताजी के ऊपर वन विभाग ने मुकदमे किए, यह कहते हुए कि पेड़ काट दिया। पुलिस आई, मेरे पिताजी को रात में पकड़ कर ले गयी। तभी मेरी माँ का हाथ भी टूट गया। जेल से आने के बाद पिताजी एक दूसरे गांव की जमीन के मसले को कोर्ट में ले गये। बाद में मुंशीगीरी करने लगे। तो वह लड़ाई जीत गये। उसमें दूसरी पार्टी के लोग ज्यादा थे। तो 20 जून 1990 की सुबह में लगभग 7 बजे के आसपास जब पिताजी कोर्ट जा रहे थे, माँ के साथ तो हमारे गांव-कोर्ट के बीच में पड़ने वाली घाटी में मेरे माँ-बाप की हत्या कर दी। उसके बाद हम चारों भाई-बहनों को अलग-अलग रिश्तेदार ले गये। मैं मुश्किल से 12 साल का होऊंगा। आठवीं क्लास में था। बाद में मैं गांव आ गया। सभी जानते थे कि यह उनका बेटा है। अध्यापक भी जानते थे। तो मुझे हॉस्टल में रखा गया। फिर मैं हॉस्टल छोड़कर गांव चला गया। वहां पर कक्षा 9 की पढ़ाई की। वहां खेती की, कि अपनी किताबें-ड्रेस खरीदना है। मैट्रिक पास करने के बाद उस साल मैं 250 रुपये का इंतज़ाम नहीं कर पाया, जिसकी वजह से मेरा कॉलेज में एडमिशन नहीं हो पाया। तब मैं साइकिल-मिस्त्री का काम करने लगा, ताकि कुछ पैसे आ जाएं। उस दौरान मेरे बड़े पापा के यहां मैं रहता था, तो उनकी भैंस चराने भी जाता था। मेरी दीदी पटना में रहती थीं। वो केवल 900 रुपये महीने पर काम करती थीं। वो जब गांव आयीं, तो किसी ने उनसे कहा कि तुम अपने भाई को बाहर ले जाओ, नहीं तो इसका जीवन बर्बाद हो जाएगा। मेरी दीदी मुझे वहां से पटना ले गयीं। लेकिन उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मुझे रेगुलर कॉलेज भेज सकें। एडमिशन तो करा दिया उन्होंने, लेकिन मैं क्लास नहीं जा सका। तब उनकी जो संस्था थी एकता परिषद, उसकी लाइब्रेरी में बैठकर मैं पढ़ने लगा। प्रदीप प्रियदर्शी जी उस संस्था के डायरेक्टर थे। उन्होंने 6 महीने के बाद मुझे बुलाया और कहा कि तुम लाइब्रेरी में बैठते हो ऐसे ही। उस समय मैं उनके ऑफिस में झाड़ू लगाना, लैट्रिंग साफ करना, यह सब मैं बहुत करता था। कोई आ गया तो उसे चाय बना कर पिला दी। तो उनको लगा कि यह लड़का मुफ्त में इतना कर रहा है। तब उन्होंने कहा कि तुम लाइब्रेरी संभालो और जो करते हो वह सब करो। तुमको 500 रुपये महीना देंगे। जब 500 रुपये हर महीने मिलने लगे, तो मैंने टाइपिंग सीखनी शुरू कर दी। फिर अंग्रेजी की कोचिंग ज्वाइन कर ली। 6 महीने तक थोड़ी अंग्रेजी सीखी, लेकिन बहुत नहीं। उसी समय मैंने देखा कि लोग जिस मजदूर से काम करा रहे हैं, उसे दूसरी प्लेट में कुत्ते जैसा खाना दे रहे हैं। तब पहली बार मैं भोजपुर गया। वहां मैंने दलित लोगों के साथ काम किया एकता परिषद में। उसके बाद एक केस आया, जिसने मुझमें आत्मविश्वास भरा। कोई खेती से संबंधित मामले में सवर्ण लोगों ने एक दलित महिला को मारकर, उसका पैर तोड़ दिया। तो वो लोग उसे लेकर आए हमारे ऑफिस। उस समय कोई नहीं था। क्या करें? तब मैं बोला कि चलिए नौबतपुर थाना। थाने में एफआईआर दर्ज नहीं हो रही थी। मैं थानेदार के पास गया, तो बहस हुई। हालांकि, डर भी लग रहा था, लेकिन उसमें सफलता मिली और एफआईआर दर्ज हुई। जिनके खिलाफ केस हुआ, वो मुझे घूरकर देख रहे थे। धमकाने की कोशिश कर रहे थे। मैं उनका बैकग्राउंड नहीं जानता था, तो डर नहीं लगा। मैं घर चला आया। दूसरे दिन ऑफिस में बहुत तारीफ़ हुई कि छोटे-से लड़के ने एफआईआर करवा दी। वहां, जहां पर दबंग लोगों की चल रही है। उसके बाद मुझे फील्ड में भेजने लगे संस्था के डायरेक्टर।

एकता परिषद में कितने साल रहे थे?

5 साल के करीब। उस समय पढ़ भी रहा था। वहां से इंटर पास किया। उसके बाद कम्प्यूटर सीखा। उस समय भी परेशानी यह कि एक संस्था के डायरेक्टर बोले कि आप कम्प्यूटर यहां से कैसे सीख सकते हैं? फिर एक फादर थे, उन्होंने कहा कि तुम टाइपिंग जानते हो, तो हमारी टाइपिंग करो। तुमको एक हजार रुपये महीना देंगे। उस समय यह कितना चैलेंजिंग था कि एक हजार रुपये में, फीस भी देनी है, कमरे का किराया भी देना है। लेकिन, एक जज्बा था। तो 6 महीने में, लंच टाइम में जाकर मैं कम्प्यूटर सीखकर आता था। फिर नेशनल सेंटर फॉर एडवोकेसी स्टडी में मुझे पढ़ने को मिला। वह मेरी ज़िन्दगी में परिवर्तन का कारण बना। तब तक मैंने थोड़ा-बहुत लिखना शुरू कर दिया था। वहां पर लेक्चर डॉ. ज्ञानम प्रकाश दे रहे थे, एनथ्रोपोलॉजी के बारे में। यह मुझे मालूम ही नहीं था कि एनथ्रोपोलॉजी क्या है? मैं तो ऐसे ही पढ़कर आया था। अंग्रेजी भी टूटी-फूटी जानता था। बाकी हमारे साथी सब बड़े-बड़े कॉलेज से पढ़कर आए थे। एक-दो हमारे दोस्त जो इस बैकग्राउंड से थे। फिर भी वो लोग कॉलेज में पढ़े थे। मेरे पास खाली डिग्री थी। फिर मुझे लगा कि हम तो गये। सब सवाल पूछेंगे, जवाब नहीं दे पाएंगे। लेकिन, उस दिन रात जब मैं डेरा (कमरे) में गया। रात भर सोचता रहा। फिर मैंने सोचा कि नहीं, यही गोल्डन चांस है। मैंने निर्णय लिया के हिंदी छोड़कर साल भर केवल अंग्रेजी ही पढ़ना है। 6 महीने के बाद मैंने एक आर्टिकल लिखा। उसका टाइटल था- ‘अ वर्ल्ड कॉल इक्वालिटी’ वो भी दलित समुदाय के ऊपर। क्योंकि दलितों के साथ काम भी किया था। उस समय 2002 में झज्जर में कुछ दलितों को पीट-पीटकर मार डाला गया था। फिर वह आर्टिकल नेशनल मैगजीन ‘इंडियन्स करेंट्स’ में छपा। जॉन दयाल उस मैगजीन के संपादक होते थे। उन्होंने बहुत तारीफ की उस लेख की। फिर वहां से मैं उड़ीसा गया डिजर्टेशन के लिए। 6 महीने जंगल में रहा और वहां पर फॉरेस्ट राइट को लेकर मैंने रिसर्च किया। वहां 10 गांव मेरे पास थे, जिनमें हिंदू धर्म मानने वाले आदिवासी थे। लेकिन वहां आरएसएस के लोग मेरे पीछे पड़ गये। अखबार में छपवा दिया कि यहां पर धर्मांतरण शुरू हो गया। फिर ग्राहम स्टेन का केस हो गया। तो मुझे डर लग गया कि ये लोग ज़िन्दा जला देंगे। फिर मैं वहां से झारखंड वापस आ गया। झारखंड पहुंचकर फिर एकता परिषद से जुड़ गया। फिर हमने एक महीने की साइकिल रैली की। तब मैंने मानवाधिकार के सवाल उठाये। गांव-गांव, जंगल-जंगल जाकर अधिकार की लड़ाई करना। उसको ले जाकर कोर्ट में केस करना। कमीशन के पास ले जाना। विस्थापन में जाना, लोगों को जागृत करना। उसके बाद साहित्य का अध्ययन करना, फिर उसे लिखना।

अब तक आप कितनी पुस्तकें लिख चुके हैं?

लगभग 15 पुस्तकें हो गईं। 3 अंग्रेजी में और अधिकतर हिंदी में लिख रहा हूं। छोटी पुस्तकें भी लिख रहा हूं, ताकि गांव वालों तक पहुंचें। इंग्लिश में इसलिए लिख रहा हूं, ताकि दुनिया के लोग जानें आदिवासियों का दर्द।

(लिप्यांतर एवं कॉपी सम्पादन : प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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