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अमन-चैन के लिए आदिवासियों के इलाके में पदयात्रा का प्रस्ताव

आदिवासी भलीभांति जानते हैं कि उन्हें उनके जंगलों से विस्थापित करने की भरपूर कोशिश हो रही है। संविधान और सरकार उनकी सुरक्षा करने में विफल साबित हो रही है। दूसरी ओर माओवाद की समस्या और राज सत्ता की दमनकारी नीतियों ने आदिवासियों का जीवन अशांत कर रखा है। इन्हीं परिस्थितियों में इस क्षेत्र में शांति स्थापना के लिए हुए एक प्रयास की शुरुआत की जा रही है। अशोक झा की रिपोर्ट :

आदिवासियों की व्यापक बसावट वाले मध्य भारत में माओवाद और राज सत्ता के बीच चल रहे खूनी खेल के कारण उपजी अशांति को समाप्त करने का एक और प्रयास शुरू हुआ है। इस क्रम में पिछले सप्ताह छत्तीसगढ़ के तिल्दा में एक तीन दिवसीय बैठक हुई और इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि इस क्षेत्र में शांति के लिए एक और गहन प्रयास किया जाए। यह निर्णय भी किया गया कि  इस तरह के प्रयास में आदिवासियों की भूमिका प्रमुख होगी क्योंकि इस अशांति से सर्वाधिक प्रभावित वही लोग हैं। बैठक में माओवाद प्रभावित इलाकों में पदयात्रा निकालने के प्रस्ताव पर आदिवासी समुदाय द्वारा जुलाई के अंत में एक बैठक करने और इस पर निर्णय लेने की बात कही गई। यह भी कहा गया कि इस पदयात्रा के समर्थन में देश के अलग-अलग हिस्सों में पदयात्रायें निकाली जा सकती हैं।

बैठक में जुटे देश भर के बुद्धिजीवी : (बायें से) सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी, पत्रकार मोहन, फिल्मकार अजय और सामाजिक कार्यकर्ता मिलिंद

विकल्प संगम विषय पर इस बैठक का आयोजन सीजीनेट स्वरा और सर्व आदिवासी समाज के संयुक्त तत्वावधान में बीते 8 -10 जून के बीच छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के समीप तिल्दा में किया गया। बैठक में काफी संख्या में आए आदिवासियों का कहना था कि मुख्यधारा के विकास ने विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है और प्रकृति के साथ सर्वाधिक सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने वाले आदिवासियों को भी लोग विनाश की इस धारा में अब शामिल कर लेना चाहते हैं।

इस बैठक में शांति  के प्रयासों पर हुई चर्चा में इस बात पर जोर डाला गया कि आदिवासियों के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं के बारे में आदिवासियों की राय ली जाए।  उनसे पूछा जाए कि वे चाहते क्या हैं। उन पर कुछ भी थोपा न जाए। अमूमन यही होता है कि उनके लिए बनी योजनाओं के निर्धारण और क्रियान्वयन में उन्हीं से नहीं पूछा जाता।  

बैठक में शामिल लोग

 

बैठक में संविधान की पांचवीं अनुसूची और पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996, संक्षिप्त में पेसा (पीईएसए) क़ानून को अब तक लागू नहीं किए जाने के बारे में भी चर्चा हुई।  इस क़ानून को पास हुए लगभग 23 साल हो गए हैं पर अभी तक इसके लिए नियम नहीं बनाए गए हैं। इस अधिनियम के तहत निर्दिष्ट अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों में पंचायतीराज व्यवस्था को लागू किए जाने से छूट है।  इन क्षेत्रों में ग्रामसभा पंचायत का स्थान लेगी और सामाजिक और आर्थिक विकास योजनाओं को वही स्थानीय जरूरतों के मुताबिक़ लागू करेगी। पर ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। ग्रामसभा कितनी प्रभावी हो सकती है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि  ओडिशा के नियामगिरि में ग्रामसभा ने एक विदेशी कंपनी को बॉक्साइट खनन की अनुमति देने से इंकार कर दिया।

खैर, बैठक में उत्तर पूर्व के राज्यों में अपनी हक़ की लड़ाई लड़ रहे संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया जिनमें आॅल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष प्रमोद बोडो भी शामिल हुए। प्रमोद ने शांति प्रयासों के लिए अहिंसक रास्ता अपनाये जाने को लेकर अपने और अपने संगठन के अनुभव साझा किए।  उनका कहना था कि हिंसा किसी समस्या का जवाब नहीं है और यह प्रतिहिंसा को जन्म देती है। इसका अनुभव उन लोगों के लिए बहुत ही कटु रहा है। उन्होंने कहा कि उत्तर पूर्व में शांति प्रयासों को मिली सफलता के बाद वह मध्य भारत में भी इस तरह के प्रयासों को अपना समर्थन देंगे।

बैठक में विभिन्न राज्यों जैसे झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि के आदिवासी इलाकों में पत्थलगड़ी का मामला भी उठा।  आदिवासियों ने इस बात पर अपना रोष जाहिर किया कि पत्थलगड़ी में शामिल आदिवासियों के खिलाफ सरकार झूठे मुक़दमे लगाकर उनकी धड़ पकड़ कर रही है।  इन लोगों ने कहा कि पत्थलगड़ी की प्रथा आदिवासी इलाकों में काफी पुरानी है और इससे संविधान का किसी भी तरह उल्लंघन नहीं होता है।

आदिलाबाद, तेलंगाना से आए आदिवासी नेता सिडाम आरजू का कहना था, “छत्तीसगढ़ के लगभग सारे नक्सली नेता हमारे क्षेत्र से ही आए हैं, हमारे क्षेत्र में ही यह आन्दोलन पहले शुरू हुआ। अब हमारे यहाँ शांति है पर हमारे ही गोंड भाई-बहन छत्तीसगढ़ जैसी जगहों पर दिक्कत में हैं। हम उनके बड़े भाई की तरह उनको मदद करना चाहते हैं।  हम उनको यह बताना चाहते हैं कि हमारे यहाँ शांति कैसे आई और हम माओवादी नेताओं से भी यह अनुरोध करना चाहते हैं कि अब बहुत हो गया और अब हम सभी को शांति के लिए प्रयास करना चाहिए।”

बैठक को संबोधित करते हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हरगोपाल

महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले के मेंढालेखा गाँव से आए आदिवासी नेता देवाजी तोफा ने कहा, “हम अपने गाँव वापस जाकर अन्य गांवों के लोगों के साथ इस बैठक में हुई चर्चा के बारे में बातचीत करेंगे और हम आगे कैसे इस प्रक्रिया में जुड़ेंगे उस पर निर्णय करेंगे।”

प्रोफ़ेसर हरगोपाल जो पूर्व में कई शांति प्रयासों और अपहरण के बाद अधिकारियों को छुडवाने की प्रक्रियाओं से जुड़े रहे हैं, उन्होंने कहा कि यद्यपि पिछली शांति प्रक्रियाओं में सरकार की तरफ से कई बार हमारे साथ धोखा हुआ है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें नए प्रयास नहीं करने चाहिए | मध्य भारत में जारी हिंसा में अब तक दोनों ओर से हज़ारों लोग मारे गए हैं और हमें हर मृत्यु को रोकने का हर संभव प्रयास करना चाहिए

सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष बी. पी. एस. नेताम ने कहा कि यद्यपि आदिवासी ही इस युद्ध में सबसे अधिक प्रभावित हैं और आजकल दोनों ओर से मरने वालों में भी अधिकतर आदिवासी ही हैं पर इस समस्या के समाधान के लिए कभी भी हम आदिवासियों से कुछ परामर्श नहीं किया गया, अब वह बदलना चाहिए। इसके अलावा आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम ने भी बैठक में हिस्सा लिया।

इस बैठक में पूर्व में कई शांति प्रयासों का नेतृत्व कर चुके प्रोफ़ेसर हरगोपाल और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरद चन्द्र बेहर भी शामिल हुए। इसके अलावा उड़ीसा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के आदिवासी और उनके संगठनों के नेताओं की भागीदारी रही। साथ ही अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख नन्द कुमार साय, कांग्रेस के आदिवासी नेता अरविन्द नेताम, वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन, श्रवण गर्ग, एडवोकेट अल्बर्ट किंडो और सुंदरगढ़, ओडिशा के आदिवासी नेता अनिल एक्का के अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, दिल्ली और ओडिशा से आए पत्रकार और सामजिक कार्यकर्ता भी शामिल हुए।  

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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