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चला गया लकड़ियों में जीवन उकेरने वाला ‘बढ़ई ब्राह्मण’

सुरेंद्र पाल जोशी आधुनिक भारतीय कला के बड़े शिल्पकार थे। ‘काठ होते लोगों’ से लेकर आपदा से ख़त्म हुए केदारनाथ के गांवों में लकड़ी पर उकेरी गई काष्ठकारी को उन्होंने नया आयाम दिया। लेकिन असमय हुए उनके निधन से कला अध्याय के कई सपने बीच में ही बिखर गए। जयपुर से लौट कर बता रहे हैं कमल चंद्रवंशी :

सुरेंद्र पाल जोशी नहीं रहे। बीते 12 जून को वह ‘औजी’, बाजीगर और शिल्पकार नहीं रहा जो अपने ढोल-दमाऊ में से किसी के भीतर कपड़ों पर लगी एक सेफ्टी पिन के बूते अटका रहा। उस ‘डोम’ की कारीगरी और उसके बजाने के ‘ढब’(तरीका) में हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कार बंधे हैं। कई साजों में इसकी नक़ल की गई, कई वाद्यों की धुन से उसको मिलाया जाता रहा। उस ‘ढोल-दमाऊ’ का अंत हो गया। और हां, वह बढ़ई और काष्ठकार भी नहीं रहा जिसने उत्तराखंड की घाटियों में लकड़ी पर महीन कारीगरी से बने घरों के साथ पांच हज़ार लोगों के ख़त्म होने की संवेदना को अपने भीतर महसूस किया। घरों पर काष्ठकारी करने वाला आधुनिक कला का यह बढ़ई हमारे बीच से उठ गए। आपदा कल की बात है जब केदारनाथ में प्रलय आयी थी। लेकिन जो कल की बात नहीं है वह तीस साल पहले की है। और वह बात भी काठ की है- ‘काठ होते लोगों’ की। उसमें रेहड़ी फेरी, ठेले और खोमचे वाले हैं जो सारे संसार के काठ को पेट और सिर के बल ढोकर चल रहे हैं। काठ होते ये लोग हमारी तरह ही हाड-मांस के ‘मेहनत-मज़ूरी’ करने वाले हैं।  

स्मृतियां शेष : काष्ठ कलाकार सुरेंद्र पाल जोशी (23 जुलाई 1955 – 12 जून 2018)

लेकिन ये ना तो संयोग हो सकता है और ना ही कोई मज़ाक कि तीस साल पहले की हमारी कोई छवि, कोई छांव आज की शक़्ल से हूबहू मिल जाती लगे। लेकिन सुरेंद्र पाल जोशी की लखनऊ में पहली प्रदर्शनी और देहरादून में उनके ही बनाए गए राज्य के पहले संग्रहालय में लगी ताज़ा कृतियों से इतना साम्य, इतनी एकमयता, एकरूपता कैसे हो सकती है? ‘काठ होते लोग’ से लेकर ‘केदारनाथ की काष्ठकारी’ तक। लेकिन सुरेंद्र पाल जोशी असल में एक ‘बढ़ई ब्राह्मण’ थे और जानते थे कि बढ़ईगिरी मौजूदा दौर के अश्लीलता की हद तक अमीर हो चुके कला के संसार को पटखनी दी जा सकती है। यह किसी छोटे क़स्बे के कलाकार का अगड़ों की उनकी मांद में, उनके पाले में घुसकर ललकारने जैसा था। वह कामयाब रहे।

बहरहाल, ये नहीं सोचा था कि काठ के इस शिल्पकार, जो पहाड़ी होने के बावजूद एक ‘कठ’माली के तौर पर ही पहचान रखता था- उससे आख़िरी ‘मुलाक़ात’ जयपुर के झालना के काठ बाज़ार के एक अंधियारे श्मशान में होगी जहां रात अब गिरी कि तब गिरी थी। कठमाली देहरादून में अमूमन उन लोगों को कहा जाता है जिनकी जड़ें, कहते हैं कि एक ज़माने में उत्तराखंड के पहाड़ों में थी लेकिन उनकी कुछ पीढ़ियां देहरादून जैसे मैदान में रच बस गई हैं। इसका एक शाब्दिक अर्थ भर रह गया है लेकिन हक़ीक़त में ये ऐसा है जैसे गोरखपुर के किसी शख़्स का दिल्ली में बस जाना या फिर लुधियाना के सिख का गढ़वाल में होना- घर बसाना और वहीं का हो जाना।

सुरेंद्र पाल जोशी का परिचय

मूलरूप से अल्मोड़ा (कुमाऊं) के सुरेंद्र पाल जोशी का जन्म 1955 में देहरादून के गुनियालगांव में हुआ था। उन्होंने 1980 में लखनऊ के आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज में प्रवेश लिया था। ‘काठ होते लोग’ उनकी पहली प्रदर्शनी थी जो उस दौर में प्रभावी रेखांकन थे। 1988 में वह राजस्थान कॉलेज ऑफ आर्ट जयपुर की फ़ाइन आर्ट फैकल्टी में सहायक अध्यापक बने। 1997  में फ़ैलोशिप मिलने के बाद ब्रिटेन में म्यूरल आर्ट पर उन्होंने काम कर किया था। 2008 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति(वीआरएस) लेकर उन्होंने नए सिरे से कला का सफ़र शुरू किया। वह नए प्रयोगों के लिए जाने जाते थे। जयपुर में उन्होंने घर बना लिया था लेकिन उत्तराखंड से उनका मातृभूमि जैसा जुड़ाव था। 2015 के बाद से वह देहरादून के हेमवती नंदन बहुगुणा एमडीडीए (मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण) कांप्लेक्स में राज्य की पहली आर्ट गैलरी ‘उत्तरा समकालीन कला संग्रहालय’ को मूर्तरूप देने के लिए काम कर रहे थे। आठ महीने पहले यानी नवंबर 2017 में इसका उद्घाटन हुआ था। जोशी को एशियन कल्चरल सेंटर फ़ॉर यूनेस्को (जापान), राजस्थान ललित कला ऐकेडमी, फैलोशिप फ़ॉर म्यूरल डिजाइन बाई द ब्रिटिश आ‌र्ट्स काउंसिल, राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड, गोल्ड मेडल यूनेस्को मिले थे।  वह समकालीन कला में इतने लोकप्रिय थे कि एमएफ हुसैन से लेकर एस.एच. रजा तक उनके काम की तारीफ़ कर चुके थे। उनके आख़िरी दिनों में प्रकाशित ‘उत्तरा म्यूजियम..’ पुस्तक में उनकी इन बड़े कलाकारों के साथ तस्वीरें, आलेख और टिप्पणियां हैं। जोशी को म्यूरल बनाने का उन्हें बेहद शौक़ था, इंडियन ऑयल दिल्ली, यूनी लिवर मुबंई, शिपिंग कॉर्पोरेशन विशाखापत्तनम में सुरेंद्र पाल जोशी ने विशालकाय म्यूरल बनाए। 2000 के बाद उन्होंने पेंटिंग पर ही ध्यान देना शुरू कर दिया।

लकड़ी पर प्रलय की आकृति : काष्ठ कलाकार सुरेंद्र पाल जोशी की इस कलाकृति को उत्तराखंड के उत्तरा समकालीन कला संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है

वह कहते थे, ‘नौकरी में रहते हुए भी मेरे मन में स्टूडेंट्स वाली फ़ीलिंग रहती थी। मुझे लगता था कि सरकारें न तो आर्ट्स के लिए कुछ करना चाहती हैं और न स्टूडेंट्स के लिए ही। इन हालात में मैं खुद को बंधनों में जकड़ा हुआ महसूस करता था। मैं जानता था कि दो नावों में एक साथ सवारी संभव नहीं, सो वर्ष 2008 में नौकरी से वीआरएस ले लिया।’

संघर्ष में बीता बचपन और मुसीबतों के बीच निकाली राह

पढ़ाई के दिनों में जब सुरेंद्र पाल दसवीं और इंटर कर रहे थे, वह परिवार की आजीविका के लिए दून घाटी के बाजारों में लाउडस्पीकर लेकर लॉटरी के टिकट बेचते थे। कला समीक्षक विनोद भारद्वाज कहते हैं, “सुरेंद्र का प्रारंभिक जीवन विपदा से लड़कर उसे अनुकूल बनाने की भी लड़ाई थी। और अब उत्तराखंड में इसी मानसिकता के महीन टैक्सचर को सुरेंद्र म्यूजियम कल्चर के दायरे में रहकर भी उससे परे चले जाने के जटिल प्रक्रिया में खोज रहे थे। कितने आधुनिक कलाकार ऐसे होंगे जो लाउडस्पीकर लेकर लॉटरी बेचने का काम भी जगह-जगह पर भटक कर चुके हों। उनकी शुरुआती कला में ठेले का पहिये का रूपाकार और उसकी बुनावट केंद्र में था जहां ठेले वाला अपने पिता (की मृत देह) को देखने के बजाय ठेले के पहिए को देखता है। काठ (लकड़ी) के बीच आदमी के काठ (संवेदनहीन) हो जाने की भी सुरेंद्र एक कहानी लिख गए।“

काष्ठ कलाकार सुरेंद्र पाल जोशी की कलाकृति। इसे ढोल ढमाऊ कहा जाता है। यह एक वाद्य यंत्र है।

आधुनिक कला के भीतर मौजूद त्रासदी पर इकोनॉमिक एंड पालिटिकल विकली के पूर्व संपादक और हिंदी के कवि रुस्तम ने कहते हैं कि अब अच्छे चित्रकार सामने भी नहीं आ पाते, ओझल हो जाते हैं, मारे जाते हैं, और कई ख़राब चित्रकार करोडपति, अरबपति बन जाते हैं। एक अच्छा चित्रकार होना काफी नहीं होता। आपको बाज़ार के तौर-तरीक़ों में भी पारंगत होना चाहिए।“ लेकिन वैश्विक बाज़ार जब अगड़े अमीरों के शिकंजे में हो तो वहां सुरेंद्र पाल की उपस्थिति के पीछे किस कदर का संघर्ष और प्रतिस्पर्धा रही होगी, इसका अनुमान किया जा सकता है। यह सुरेंद्र पाल की अपनी कला के प्रति वचनबद्धता ही थी। यह बात अलग है कि जिसने विश्व स्तर पर अपनी पहचान कायम की, उस कलाकार के आंतरिक संघर्ष को बाहरी दुनिया ने महसूस ही नहीं किया। तमाम विषमताओं के बावजूद कला के लिए प्रतिबद्ध जोशी  उत्तराखंड में बनाए गए राज्य संग्रहालय के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं लिया।

निधन पर सबने जताया शोक  

सुरेंद्र पाल जोशी ने 63 साल की उम्र में संसार को अलविदा कहा। जयपुर, देहरादून, दिल्ली, लखनऊ में कला प्रेमियों में उनके निधन से गहरा दुख है। उत्तराखंड के पूर्व  मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उत्तरा म्यूजियम के लिए बड़ी पहल की थी। उन्होंने कहा कि देहरादून में उत्तराखंड आर्ट गैलरी के सम्मुख खड़े होकर मैं अश्रुपूर्ण नेत्रों से सुरेंद्र पाल जोशी को, उत्तराखंड के महान सपूत को, श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं। सुरेंद्र उत्तराखंड को एक अद्भुत पहचान देकर गए हैं। आर्ट गैलरी के रूप में राज्य की शान बढ़ा करके गए हैं। मैं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत से आग्रह करता हूं कि इस आर्ट गैलरी को हम सुरेंद्र पाल जोशी की स्मृति को अर्पित कर इसका नाम सुरेंद्र पाल गैलरी कर दें। जोशी के करीबी वरिष्ठ कलाकार विनय शर्मा कहते हैं कि वो उनको तीन दशक से जानते थे। जोशी अपने आख़िरी समय तक कला को समर्पित रहे। ललित कला विभाग में प्रोफेसर एन. वर्मा ने कहा, ” हमने एक खुशहाल व्यक्ति खो दिया, वह देश के युवाओं के लिए अपनी महान कलाकृतियां छोड़ गए हैं उनकी कला सदा याद की जाती रहेंगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता सी.पी. जोशी ने कहा कि सुरेंद्र पाल का काम समाज और कला की दुनिया हमेशा याद रखेगी। राजस्थान की बीजेपी कमेटी ने कहा उनके काम को कभी नहीं भुलाया जा सकता। वहीं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि सुप्रसिद्ध चित्रकार सुरेंद्रपाल जोशी के असामयिक निधन से उत्तराखंड और यहां के कला जगत की अपूरणीय क्षति हुई है। देहरादून में स्थापित ‘उत्तरा समकालीन कला संग्रहालय’ इस महान चित्र शिल्पी की स्मृतियों को सदैव संजोए रखेगा।

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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