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संस्कृति की पहचान और दावा

भारतीय इतिहासकारों ने हमेशा विजेताओं का इतिहास लिखा है। जो विजित हुए, उनके बारे में या तो नकारात्मक चित्रण किया गया है या फिर उनके पक्ष को कम लिखा गया है। ‘महिषासुर मिथक व परंपराएं’ इस संबंध में एक नया नजरिया प्रस्तुत करता है जो मिथकीय पाठ से अधिक पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर है। हिन्दुस्तान में प्रकाशित धर्मेंद्र सुशांत की समीक्षा

झारखंड के गुमला जिले के जोभीपाट गांव में हाल के वर्षों में बनायी गयी एक देवी मंदिर परिसर में लगाए गए चापाकल से पानी भरती असुर महिलाएं (फोटो – एफपी ऑन द रोड, 2016)

भारत को अक्सर विविधता में एकता पर आधारित देश कहा जाता है। सामान्य रूप से यह बात सही भी है, क्योंकि यहां जाति, धर्म, भाषा, भूगोल, रीति-रिवाज आदि अनेक मसलों पर लोगों के बीच स्पष्ट भिन्नता दिखाई पड़ती है, फिर भी यहां रहने वाले सभी लोग भारतीय हैं। लेकिन जब हम इस एकता के विभिन्न घटकों के बीच के सत्ता-समीकरण की पड़ताल करते हैं, तब उसकी जटिलता भी सामने आती है। इस जटिलता का एक अहम पहलू है किसी एक पक्ष का दूसरे पक्ष पर हावी होना, उसकी विशिष्टता की अनदेखी करना अथवा अमान्य करना। वस्तुत: यह हमारी राष्ट्रीयता की एक विचारणीय समस्या है। यहां के विभिन्न समुदायों या समाजों में प्रचलित मिथक और परंपराएं भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं। ‘महिषासुर : मिथक और परंपराएं’ में इस पर गंभीरता विचार किया गया है।

यह भी पढ़ें : महिषासुर मिथक व परंपराएं : एक बौद्धिक हस्तक्षेप

महोबा के चौकीसोरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर का स्मारक (फोटो – एफपी ऑन द रोड, 2017)

इसमें दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध के बहुप्रचलित मिथक की दूसरे कोण से पड़ताल की गई है। अमूमन इसे देवी द्वारा असुर या राक्षस के वध के रूप में कहा-सुना जाता है। स्पष्टत: इस पाठ में महिषासुर के चारित्रिक दोष उसके वध का कारण बनते हैं। लेकिन यह पुस्तक इससे भिन्न पाठ प्रस्तुत करती है, जिसमें महिषासुर कोई कुपात्र की बजाय एक जिम्मेदार राजा है, जिसकी हत्या कर दी जाती है। वस्तुत: यहां हम महिषासुर के प्रसंग में विजित और विजेता के अलग-अलग दृष्टिकोणों का द्वैत देखते हैं, जिसमें अनेक कारणों से विजित पक्ष की बात अनसुनी अथवा कम सुनी रह गई। लेकिन बदले वक्त में आदिवासी, पिछड़ा और दलित समुदाय महिषासुर के संदर्भ से अपनी सांस्कृतिक परंपरा को बिल्कुल अपने नजरिये से देखने-दिखाने की कोशिश कर रहा है। इनका आग्रह है कि महिषासुर के मिथक के पुरातात्त्विक आधार हैं और अनेक स्थानों पर उनकी पूजा की जाती है।

(24 जून 2018 को हिंदी दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान में प्रकाशित)

किताब :  महिषासुर : मिथक और परंपराएं

संपादक : प्रमोद रंजन

मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +917827427311 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार 

लेखक के बारे में

Dharmendra Sushant

धर्मेंद्र सुशांत साहित्यकार व वरिष्ठ पत्रकार हैं

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