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प्रधानमंत्री की हत्या की कथित साजिश और मीडिया का खेल

भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में सरकार की पोल खुल चुकी है। इसके बावजूद वो मीडिया का इस्तेमाल करके अपने हथियारों को पैना बनाए रखने की कोशिश में है। क्या भीमा कोरेगांव की लड़ाई सरकार हार चुकी है? ताजा घटनाक्रम में मीडिया की भूमिका और प्रबुद्ध लोगों की प्रतिक्रियाओं पर कमल चंद्रवंशी की रिपोर्टः

देश में मुख्यधारा के मीडिया की साख और विश्वसनीयता पर एक बार फिर बट्टा लगा है। नया मामला है भीमा कोरेगांव की हिंसा का। इस मामले पर देश भर में कोरा झूठ फैलाया जा रहा है।  पिछले तीन दिनों से जैसा सरकार की सुरक्षा एजेंसियां, खुफिया विभाग और महाराष्ट्र सरकार चाहती है, लगातार वही खबरें जस की तस परोसी जा रही हैं। इसकी बानगी के लिए देखते हैं दिल्ली से प्रसारित होने वाले एक राष्ट्रीय चैनल की पहली खबर जिसका प्रारंभिक और मुख्य हिस्सा जहां दृश्यों और ग्राफिक प्लेट के साथ पृष्ठभूमि में कमेंटरी (वॉयस ओवर) के साथ चलता है। इसे शब्दों में प्रस्तुत करें तो इस तरह से पढ़ा जाएगा :

भीमा कोरेगांव में हिंसा का एक दृश्य

“भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में हुई गिरफ्तारियों के बाद नक्सलियों की एक बड़ी साजिश का खुलासा करते हुए पुणे पुलिस ने ऐसे सबूत मिलने का दावा किया है जिनसे पता चलता है कि नक्सली राजीव गांधी हत्याकांड की तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का प्लान बना रहे थे। भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में बीते दिनों हुई पांच गिरफ्तारियों के बाद नक्सलियों की एक बड़ी साजिश का खुलासा हुआ है। पुणे पुलिस का कहना है कि उसे ऐसे सबूत मिले हैं, जिससे पता चलता है कि नक्सली  ‘राजीव गांधी हत्याकांड’ की तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश रच रहे थे। पुलिस ने पुणे कोर्ट को बताया है कि प्रतिबंधित नक्सलवादी संगठन भाकपा (माओवादी) से संबंध होने के आरोप में पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिनमें से एक के घर में यह पत्र मिलने का दावा किया गया है। इस मामले पर पूर्व पुलिस अधिकारियों ने नक्सलियों के समर्थकों पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि माओवादियों और समर्थकों दोनों की कमर तोड़ने की जरूरत है। नक्सलियों के पास मिले पत्र से खुलासा हुआ है कि माओवादी पीएम मोदी को मारने के लिए ‘एक और राजीव गांधी कांड’ की योजना बना रहे हैं। 18 अप्रैल को रोना जैकब द्वारा कॉमरेड प्रकाश को लिखी गई चिट्ठी में कहा गया है कि हिंदू फासिज्म को हराना अब जरूरी हो गया है। मोदी की अगुवाई में हिंदू फासिस्ट तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे में उन्हें रोकना जरूरी है। चिट्ठी में लिखा गया है कि मोदी की अगुवाई में बीजेपी बिहार और बंगाल को छोड़ करीब 15 से ज्यादा राज्यों में सत्ता में आ चुकी है।”

इसी में दूसरी खबर राजनाथ सिंह और तीसरी खबर रामदेव की है। “पीएम की हत्या की साजिश के खुलासे पर केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि सरकार और सुरक्षा एजेंसियां पीएम की सुरक्षा को लेकर हमेशा गंभीर रहती हैं। जहां तक माओवादियों का सवाल है तो वो हार चुके हैं, कुछ जिलों में रह गए हैं और हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।”

भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर

जबकि रामदेव ने कहा, “राजीव गांधी की तरह ही पीएम मोदी की हत्या करने की साजिश के खुलासे से वे बहुत आहत हैं। सभी राजनीतिक दलों से अपील है कि ऐसी भद्दी राजनीति छोड़कर पीएम की कुशलता के बारे में सोचें। मामले की उच्चस्तरीय जांच की जानी जरूरी है।”

वहीं, लेखक संजीव चंदन ने जानकारी दी है- “प्रधानमंत्री को मारने की योजना वाले और बाबा साहेब के पोते और रिपब्लिकन नेता प्रकाश आंबेडकर को माओवादी बताने वाले इन पत्रों पर सवाल खड़े होते हैं। नागपुर हाईकोर्ट और ह्यूमेन राइट्स लॉ नेटवर्क से जुड़े एक वकील ने पत्र की भाषा के आधार पर कहा कि वे पत्र प्लांट किए गए हैं। एडवोकेट निहाल सिंह ने कहा कि हम सब कई मामले न्यायालयों में देखते हैं, उनकी चार्जशीट पढ़ते हैं, जिसमें ऐसे पत्र भी पुलिस प्रस्तुत करती है। उनके आधार पर हम माओवादियों के काम के तरीके को समझते भी हैं। वहीं, नागपुर के आंबेडकरवादियों के अनुसार मीडिया में प्रसारित कथित नक्सलवादी पत्रों में डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर का भी नाम है, जो पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है। पुलिस का टार्गेट होने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त पर कई आंबेडकरवादियों ने बताया कि सरकार और राजनीतिक संगठन अपनी राजनीति के लिए बाबा साहेब के परिवार को भी बदनाम कर रहे हैं। जबकि, सबको पता है कि बाबा साहेब के पोते प्रकाश आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैं, नक्सलवादी नहीं।”

यह भी पढ़ें : ‘भीमा-कोरेगांव : दलितों की शौर्यगाथा और पेशवाई की पराजय का प्रतीक’

इस बीच जब हमने प्रकाश आंबेडकर से संपर्क किया तो कहा, “इस तरह के मीडिया को उसकी करतूत के लिए उसी की भाषा में जवाब दिया जाएगा, मैं जानता हूं कई लोगों को ऐसी भाषा में जवाब देना अच्छा नहीं लगेगा…।”  बताते चलें कि हाल के दिनों में मोदी सरकार और बीजेपी के सबसे नजदीकी समझे जाने वाले एक अंग्रेज़ी न्यूज चैनल ने बाबा आंबेडकर के पोते को साजिशन बदनाम करने की मुहिम छेड़ी है, जो अब भी जारी है। सियासी गलियारों में चर्चा आम है कि इस चैनल से जुड़े लोग पीएमओ के लोगों के साथ बैठकर देश की सभी प्रमुख एजेंसियों के जरिए अपना टार्गेट चुनते हैं।

प्रकाश आंबेडकर

उल्लेखनीय है कि मीडिया चैनलों पर पीएम की हत्या की साजिश की खबरों के बीच ही ऐल्गार परिषद के संयोजक आकाश साबले की प्रतिक्रिया आई है। साबले ने कहा कि इस वर्ष 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव विजयोत्सव के 200वें साल के जश्न को मनाने जो भीड़ जुटी वह स्वत:स्फूर्त थी। यह कोई प्रायोजित भीड़ नहीं थी। यहां के फासीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमने वह कार्यक्रम आयोजित किया था। उसका हिंसा से कोई लेना देना नहीं है। इस साल के शुरू में ही जो कार्यक्रम शुरू हुआ था, हम तभी से कह रहे हैं कि मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े को बचाने के लिए सरकार प्रयास कर रही है। हमारे और अन्य संगठन के पांच लोगों की गिरफ्तारी इसी प्रपंच का हिस्सा है। बताते चलें कि शनिवारवाड़ा के मैदान में ऐल्गार परिषद का आयोजन करने वाले सुधीर ढवले को मुंबई स्थित गोवंडी के घर से गिरफ्तार किया गया था। वहीं एडवोकेट सुरेंद्र गडलिंग, शोमा सेन और महेश राऊत को नागपुर और रोना विल्सन को दिल्ली से गिरफ्तार किया गया था। साबले ने हैरानी जताई कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा था कि पूरे प्रकरण की जांच आयोग की रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई की जाएगी लेकिन आयोग की रिपोर्ट तो अब तक आई नहीं, न ही मुख्यमंत्री के पास गई है। ऐसे में कार्रवाई करना किसी भी तरह से उचित नहीं है।

यह भी पढ़ें : ‘भीमा कोरेगांव : एकजुट हो रहे हैं, दलित-बहुजन और अल्पसंख्यक’

बहरहाल जाने माने साहित्यकार और दलित-बहुजन सचेतक प्रेमकुमार मणि ने अपने सोशल मीडिया पेज से लगभग अपील करते हुए लिखा है कि वो इस मामले को जनता के बीच इसलिए लाना चाहते हैं कि लोग पूरे मामले की गंभीरता को समझें। भीमा कोरेगांव दलितों के शौर्य का निश्चित तौर से एक प्रतीक है और उसे उत्सव रूप देने का उन्हें अधिकार है और होना चाहिए। गौर करें कि आखिर किन स्थितियों में दलितों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से लड़ाई की। ईस्ट इंडिया कंपनी की कोई राष्ट्रीयता नहीं थी। वह एक कंपनी थी। पेशवा ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने सामाजिक ढाँचे में महारों को अछूत, शूद्र और काहिल-कामचोर चिन्हित कर रखा था। लड़ाकू जातियां तो मराठा, पेशवा, राजपूत थे। कंपनी के लोगों ने इन दीन-हीन, काहिल-कमचोर करार दिए लोगों को अवसर दिया और एक झटके में इन लोगों ने कमाल कर दिखाया। तथाकथित बहादुर लोग भाग खड़े हुए। बड़ी संख्या में हताहत भी हुए। निश्चित ही यह प्रेरणा दिवस है। इसने बताया कि योग्यता या बहादुरी किसी खास जाति-कुनबे की चीज नहीं है। अवसर देने पर इसका पता चलता है। अब महाराष्ट्र की भाजपा सरकार माओवाद के नाम पर उनके नेताओं और सहयोगियों को तंग और तबाह करना चाहती है। दलित-बहुजनों के बीच उठ रही चेतना और जागरूकता को वो ध्वस्त करना चाहती है। महाराष्ट्र सरकार में हिम्मत है तो वह बाबा साहब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर को क्यों नहीं गिरफ्तार करती। दलित-बहुजनों के सभी अभियानों को माओवादी बतला कर उन पर नक्सली मुकदमे चलाना, जेलों में नाना प्रकार के कष्ट देना, धीरे-धीरे उन्हें अधमरा कर देना यह सब पूंजीवादी सरकारों की नीतियां रह गई हैं।”

बहरहाल जिस कथित चिठ्ठी को पेश किया जा रहा है कि उसके न सिर्फ बनावटी होने का शक किया जा रहा है बल्कि वह सबूत के तौर पर भी नाकाफी है। हिंदी लेखक और समालोचक प्रियदर्शन ने कहा, “क्योंकि अभी तक इस चिट्ठी के अलावा पुलिस ने ऐसा कोई सबूत नहीं पेश किया है जिससे पता चले कि इस इरादे को बाकायदा साजिश की शक्ल दी जा रही थी। अब खतरा दूसरा है। एक चिट्ठी को आधार बनाकर कहीं पुलिस प्रतिरोध की हर आवाज को दबाने का रास्ता ना खोजने लगे। चिट्ठी से पहली दुर्घटना यह हुई है कि भीमा कोरेगांव हिंसा के वास्तविक गुनाहगारों का सवाल पीछे छूट गया है।”

(कॉपी संपादन : कबीर)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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