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वैश्विक तापमान में वृद्धि : धरती का अस्तित्व खतरे में

जब तक पर्यावरण है तभी तक हम भी हैं और आप भी हैं और यह पूरी दुनिया है। पर उपभोक्तावादी संस्कृति हमारी धरती और हमारे पर्यावरण का विनाश कर रही है। हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी को जानबूझकर काट रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और नव-उदारवादी व्यवस्था ने भोग-विलास की जिस आदत को इतनी शिद्दत से हमारे अंदर पाला-पोसा है अब वह हमें ही नष्ट करने पर आमादा है। पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख :

(5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष)

मानव सहित सभी प्रजातियों तथा स्वयं धरती का अस्तित्व खतरे में है। शायद ही कोई तथ्यों से अवगत व्यक्ति इससे इंकार करे। तमाम आनाकानी के बावजूद चीखते तथ्यों तथा भयावह प्राकृतिक आपदाओं एंव विध्वंसों ने दुनिया को तथ्य  को स्वीकार करने के लिए इस कदर बाध्य कर दिया है कि वे इस हकीकत से इंकार न कर सके। इस स्थिति से निपटने के लिए, कई अंंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और संधि-समझौते हो चुके हैं। ये सम्मेलन या कार्य-योजनाएं दुनिया भर के पर्यावरणविदों तथा मनुष्य एवं धरती को प्यार करने वाले लोगों की उम्मीदों का केन्द्र रहे हैं, क्योंकि इस सम्मेलन की सफलता या असफलता पर ही मानव जाति के अस्तित्व का दारोमदार टिका हुआ था। इसी से यह तय होना था कि आने वाले वर्षों या सदियों में कौन से देश का अस्तित्व बचेगा या कौन सा देश समुद्र में समा जायेगा या किस देश का कितना हिस्सा समुद्र में डूब जायेगा, कितने देश या क्षेत्र ऐसे होगें, जिनका नामो-निशान ही नहीं बचेगा। कितनी प्रजातियां कब विलुप्त हो जाएंगी। मानव प्रजाति का अस्तित्व कितने दिनों तक कायम रहेगा। समुद्री तूफान,सुनामी या अतिशय बारिश किन क्षेत्रों को तबाह कर देगी, किस पैमाने पर जान-माल की क्षति होगी। कितने इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगे। बाढ़, सूखा या असमय बारिश कितने लोगों पर किस कदर कहर ढायेगी।

आर्कटिक ग्लेशियर के पिघलने से दुनिया के जलम्ग्न होने का है खतरा

पहले वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) या जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) क्या है तथा इसके क्या परिणाम हो रहे हैं और क्या होने वाले हैं यह जानना धरती और मनु्ष्य जाति के अस्तित्व की रक्षा के लिए जरूरी है।

हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी का औसत तापमान लाखों वर्षों से 15 डिग्री सेन्टीग्रेड बना रहा है। क्षेत्र विशेष में, समय विशेष पर तापमान में वृद्धि या कमी होती रहती है, लेकिन औसत तापमान स्थिर रहता है।  इसी औसत तापमान में वृद्धि को वैश्विक तापमान में वृद्धि या ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। चूंकि इसके चलते बड़े पैमाने पर जलवायु में परिवर्तन होता है, इसी के चलते इसे जलवाय परिवर्तन या क्लाइमेट चेंज भी कहते हैं। 1980 के दशक में इस मानव निर्मित समस्या की गंभीरता की ओर पर्यावरणविदों तथा वैज्ञानिकों का ध्यान गया। संयुक्त राष्ट्र ने इस विश्वव्यापी समस्या की गंभीरता को स्वीकार करते हुए, 1992 में पहला पर्यावरण सम्मेलन किया जिसे पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन नाम दिया गया। इसे पृथ्वी सम्मेलन भी कहा गया। इसी सम्मेलन में विश्व के सबसे अनुभवी समाजवादी  राजनेता क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने चेतावनी देते हुए कहा था कि “एक महत्वपूर्ण जैविक प्रजाति – मानव जाति – के सामने अपने प्राकृतिक वास-स्थान के तीव्र और क्रमशः बढ़ते विनाश के कारण विलुप्त होने का खतरा है… मानव जाति के सामने आज एक अनिश्चित भविष्य मुंह बाये खड़ा है, जिसके बारे में यदि हम समय रहते ठोस और प्रभावी कदम उठाने में असफल रहते हैं, तो धनी और विकसित देशों की जनता भी, दुनिया की गरीब जनता के साथ मिलकर एक ही जमीन पर खड़ी, अपने अस्तित्व के खतरे और अंधकारमय भविष्य से जूझ रही होगी।” उस समय, इस चेतावनी को कम करके आंका गया। लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि के परिणाम विभिन्न रूपों में दुनिया में प्रकट होने लगे। एक लाख वर्षों का आइस डाटा यह बताता है कि औद्योगिक क्रान्ति से पहले वैश्विक तापमान में वृद्धि के कोई संकेत नहीं हैं। औद्योगिक क्रान्ति  के बाद पृथ्वी के औसत तापमान में 0.7 सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है, कुछ आंकड़े इसे 1 डिग्री सेन्टीग्रेड तक बताते हैं।

पर्यावरणविदों तथा वैज्ञानिकों का मानना है कि शायद थोड़े – बहुत विनाश के साथ पृथ्वी 2डिग्री सेन्टीग्रेड तक की तापमान वृद्धि को बर्दाश्त कर ले। यह अलग बात है कि इतनी भी वृद्धि तमाम भयावह एवं विध्वंसक  प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देगी। कुछ देश समुद्र के आगोश में समा जाएंगे, कुछ देशों के बड़े हिस्से तथा कुछ देशों के छोटे हिस्सों को समुद्र निगल लेगा। जब 0.7 सेन्टीग्रेड की वृद्धि पर इतनी प्राकृतिक आपदाएं घटित हो रही हैं, 2 डिग्री सेन्टीग्रेड बढ़ने पर क्या होगा?

अप्रैल 2015 में नेपाल में आये भूकंप के कारण व्यापक तबाही मची थी। अपने नेस्तनाबुद हुए घर को दिखाती एक महिला। (तस्वीर : ऑक्सफेम)

अनुमान यह है कि यदि वर्तमान स्थिति बनी रही तो, 2200 ईस्वी तक विश्व का औसत तापमान 3 डिग्री सेन्टीग्रेड से 10 सेन्टीग्रेड तक बढ़ सकता है। प्रति वर्ष तापमान में होने वाली वृद्धि इस आशंका की पुष्टि करती है। 1998 के बरक्स 2013 काफी गर्म रहा, 2014 में नया रिकार्ड कायम हुआ,  अभी तक के आंकड़े बता रहे हैं कि 2015 के अंतिम आंकड़े तापमान वृद्धि के पुराने सभी रिकार्ड तोड़ देंगे।

प्रश्न है कि तापमान वृद्धि क्यों हो रही है ? प्रकृति की अपनी एक संतुलन व्यवस्था है, इसी संतुलन के तहत लाखों वर्षों से पृथ्वी का औसत तापमान स्थिर रहा है। धरती के वातावरण का उष्मा बजट अर्थात सूर्य से आने वाली किरणों तथा धरती से उत्सर्जित होने वाली उष्मा के बीच संतुलन कायम रहा है, जिसके चलते औसत तापमान स्थिर बना रहता था। इस पूरी प्रक्रिया में ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाइ आक्साइड CO2 , कार्बन मोनो आक्साइड CO, मेथेन CH4 , नाइट्रेट्स आदि) की भूमिका निर्णायक होती है। औद्योगिक क्रान्ति के बाद जंगलों के विनाश तथा बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईधन (पेट्रोलियम पदार्थों –डीजल, पेट्रोल तथा प्राकृतिक गैस) के इस्तेमाल के चलते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कई गुनी वृद्धि हो गई। एक तरफ इन गैसों का उत्सर्जन बढ़ा, तो दूसरी तरफ एक हद तक इन्हें अवशोषित करने में सक्षम पेड़-पौधों की भारी पैमाने पर कटाई हुई। औपनिवेशिक दौर में यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के जंगलों की अंधाधुंध कटाई की। बाद में यही काम इन देशों के नए शासकों ने भी किया। मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था तथा उपभोक्तावाद की विश्वव्यापी जीवन-शैली जंगलों को निगलती गई। सिर्फ पिछले पचास वर्षों के दौरान 70 लाख वर्ग किलोमीटर उष्ण कटिबंधी जंगलों को काट दिया गया। वायुमण्डल में उपस्थित ग्रीन हाउस गैसों का 72 प्रतिशत कार्बन डाई आक्साइड है। 1970 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि तापमान को संतुलित बनाए रखने की व्यवस्था ध्वस्त हो गई है।

वैश्विक तापमान में वृद्धि का परिणाम सबसे पहले आर्कटिक तथा अन्य ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आया। 1970 से 2014 के बीच आर्कटिक की 40 प्रतिशत बर्फ पिघल चुकी है जिसके चलते समुद्र के जलस्तर तथा तापमान में तेजी से वृद्धि हुई। समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के चलते समुद्र के किनारे के लगभग 50 देशों तथा उनके निवासियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। बहुत सारे अन्य देशों के समुद्र किनारे के क्षेत्रों का भी अस्तित्व खतरे में है। दुनिया के 40 करोड़ से अधिक लोग समुद्र किनारे रहते हैं। आंकड़ों के अनुसार, यदि तापमान में 3 डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जाए तो समुद्र के जलस्तर में 6 मीटर की वृद्धि होगी। जाहिर है जलस्तर में वृद्धि के परिणाम भयानक होंगे। हमारे पड़ोसी देश मालदीव का अस्तित्व ही खतरे में है। बांग्लादेश के 70 प्रतिशत हिस्से के डूब जाने की आशंका है। भारत के मुंबई जैसे तटीय महानगर भी इस ख़तरे की जद में हैं। जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल (आईपीपीसी) के अनुसार, समुद्र के जलस्तर के बढ़ने की रफ्तार 1961 में 1.8 मिलीमीटर सालाना थी, 1993 से 2014 के बीच 4 मिलीमीटर के आस-पास हो गई। समुद्र के पास के कुछ हिस्से डूबने भी लगे हैं। हमारे देश का सुंदरवन का इलाका भी उनमें से एक है।

खतरे से दूर नहीं है भारत की व्यावसायिक राजधानी मुंबई

विश्व के 50 समुद्रतटीय देश जो समुद्र तल से बहुत कम ऊँचाई पर स्थित हैं, उनका अस्तित्व भी खतरे में है। ये कितनी तापमान वृद्धि पर डूब जायेंगे इसका निश्चित अंदाजा तो नहीं है, लेकिन ज्यादातर वैज्ञानिक एवं पर्यावरणविदों का मानना है कि 2 डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि ही इनके अस्तित्व को समाप्त कर देगी, कुछ इसे 3 डिग्री सेल्सियस तक ले जाते हैं।समुद्र के तापमान में वृद्धि का सीधा असर मानसून पर पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि मानसून का सारा दारोमदार समुद्र पर टिका हुआ है। समुद्र के तापमान में वृद्धि मानसून की प्राकृतिक प्रक्रिया को उलट पुलट देती है। अभी कुछ वर्ष पहले चेन्नई में हुई भारी बारिश और तबाही का संबंध समुद्र के तापमान में वृद्धि से ही था। मध्य नवम्बर में सेंट्रल ट्रापिकल पेसिफिक में समुद्र की सतह 30C तक गर्म हो गई थी।

जलवायु परिवर्तन के चलते भारी बारिश ,असमय बारिश तथा सूखे की घटनाएं आम होती जा रही हैं। उत्तराखंड की त्रासदी के घाव अभी भरे भी नही हैं। 2013 में 14 से 17 जून तक सामान्य से 375 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई। वर्षा के साथ उत्तराखंड के ग्लेशियरों  के पिघलने के चलते भी भारी जल प्रवाह हुआ। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 5,700 लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश तथा उसके आस-पास के प्रदेशों में फसल काटने के वक़्त बेमौसम, ऐसी भारी और लगातार बारिश हुई कि अधिकांश फसल नष्ट हो गयी । कई प्रदेश लगातार कई वर्षों से सूखे की चपेट में हैं। फीलिपीन्स, इंडोनेशिया में समुद्री तूफान के चलते तबाही की खबरें लगातार आती रहती हैं। ठण्डे कहे जाने वाले यूरोप के देशों और अमेरिका में पिछले वर्षो में ऐसी गर्म हवा (लू) चली जिसकी वजह से काफी संख्या में लोग मारे गये। घर से निकलना मुहाल हो गया। ठण्ड में गिरी बर्फ ने भी सारे रिकार्ड तोड़ दिए। वैश्विक तापमान में वृद्धि प्रजातियों के लिए भी खतरा बन गई है। पृथ्वी की एक चौथाई प्रजातियां 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं, ऐसी आशंका है।

तापमान वृद्धि के कारणों तथा परिणामों पर कमोबेश अधिकांश पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों के साथ दुनिया के शासक वर्ग भी सहमत हैं।  प्रश्न है–तापमान वृद्धि को कैसे रोका जाए? तापमान वृद्धि को रोकने की अनिवार्य शर्त है कि ग्रीनहाउस गैसों विशेषकर कार्बन के उत्सर्जन में भारी कटौती की जाए, जिसके लिए जीवाश्म ईधन (कोयला,पेट्रोल, डीजल तथा प्राकृतिक गैसों) के इस्तेमाल में भारी कटौती की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन पर 2015 में हुए पेरिस सम्मेलन का यही केन्द्रीय मुद्दा था। दुनिया के शासकों ने इस बात पर पूर्ण सहमति जताई थी कि वैश्विक तापमान किसी भी तरह से औद्योगिक क्रांति के पूर्व की तुलना में 2 डिग्री सेन्टीग्रेड  से अधिक न बढ़ने दिया जाए। 2 डिग्री सेन्टीग्रेड कौन कहे, छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (एस.आई.डी.एस) के प्रस्ताव पर इस तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्रा सेन्टीग्रेड तक सीमित रखने की कोशिश किए जाने पर भी विचार हुआ।

2015 में हुए पेरिस पर्यावरण सम्मेलन के दौरान प्रदर्शन करते पर्यावरण प्रेमी

प्रकृति पर हमलावर की तरह हमला करने तथा विजय पाने की दृष्टि तथा भावना का परिणाम वर्तमान प्राकृतिक विनाश है। यह धारणा पूंजीवादियों के साथ कुछ हद तक समाजवादियों की भी रही है, भले ही वे अब इससे मुक्त हो रहे हैं। दूसरी बात यह कि प्रकृति मुनाफे तथा उपभोग की हवस को पूरा नहीं कर सकती है क्योंकि  इसका कोई अंत नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या उपभोक्तावादी जीवन पद्धति को बदले बिना धरती के विनाश को रोका जा सकता है? इसका उत्तर है नहीं। मुनाफे तथा उपभोग की हवस पर नियन्त्रण की अनिवार्य शर्त है कि विकास के वर्तमान साम्राज्यवादी–पूंजीवादी अमेरिकी-यूरोपीय मॉडल जो आज पूरी दुनिया का मॉडल बन गया है, उसका परित्याग कर दिया जाए। यह मॉडल पूरी तरह प्रकृति एवं श्रम के दोहन पर टिका है। मुनाफा तथा संपत्ति जुटाने की हवस किस कदर बढ़ गयी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के 85 प्रतिशत लोगों के पास दुनिया की आधी आबादी (3.5 अरब) के बराबर संपदा है। इस संपदा को सृजित करने के लिए प्रकृति का कितना दोहन किया गया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मुनाफे की हवस में मुनाफाखोरों ने ऊंची क्रयशक्ति वाले मुट्ठीभर धनाढ्यों में अमर्यादित भोग-विलास की संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया। अपने माल की बिक्री बढ़ाने के लिए पूंजीपति विज्ञापनों के माध्यम से लोगों में अधिक से अधिक उपभोग करने की भूख पैदा करते हैं।

हमें प्रकृति के प्रति अपने नजरिये में बदलाव लाना होगा तथा उपभोक्तावादी जीवन शैली का परित्याग करना होगा। इसी चीज को रेखांकित करते हुए कोपनहेगन सम्मेलन(2009 में ह्यूगो शावेज ने कहा था कि अगर हम ऐसा नहीं करते तो संसार की सबसे अद्भुत रचना मानव जाति गायब हो जाएगी…इस धरती को मानवता की समाधि न बनायें, इसमें हम समर्थ हैं।आइए इस  धरती को स्वर्ग बनाएं, जीवन का, शान्ति का स्वर्ग,सम्पूर्ण मानवता के लिए, शांति और भाईचारा के लिए । इसके लिए हमें अपनी स्वार्थपरता छोड़नी पड़ेगी। इसी बात को 23 वर्ष पहले फिदेल कास्त्रो ने कहा था कि स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी और फरेब की हद हो चुकी। जिसे हमें बहुत पहले करना चाहिए था, उसे करने के लिए बहुत देर हो चुकी है। कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज से शब्द उधार लेकर कहें तो एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना बेहद जरूरी है जो प्रकृति के साथ और मानवजाति के बीच आपसी तालमेल के लिए फिर से बहस करे।

(कॉपी एडिटर : अशोक)


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डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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