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शिक्षा सामाजिक कार्य है, दखल न दे सरकार-सुषमा यादव

सोनीपत के भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय में कुलपति का कार्यभार संभालते ही प्रोफेसर सुषमा यादव एक बार फिर अहम भूमिका में आ गई हैं। उनके अकादमिक कामकाज, जीवन-दृष्टि और शख्सियत के बारे में बता रहे हैं कमल चंद्रवंशी :

आर्थिक असमानता वाली पूंजीवादी ताकतों को उसी के हथियारों (पूंजी) से शिकस्त दी जा सकती है और सामाजिक न्याय के लिए बिना बराबरी पर खड़े होकर चुनौती नहीं दी जा सकती। ये दोनों सूत्र वाक्य क्रम से मार्क्स और आंबेडकर ने दिए थे। लेकिन हकीकत में इन पर अमल करना आसान नहीं है। प्रोफेसर सुषमा यादव ने कर दिखाया है। उन्होंने सोनीपत में भगत फूल सिंह (बीपीएस) महिला विश्वविद्यालय खानपुर कलां में कुलपति के तौर पर कार्यभार संभाला। प्रोफेसर सुषमा यादव के पास 40 सालों लंबा चौड़ा शैक्षणिक अनुभव है। अकादमिक संसार में वह देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी हैं। अकादमिक क्षेत्र की वह उन विरल प्रतिभाओं में भी हैं जो किसी भी विचारधारा को समझने में परहेज नहीं करती और उसकी बारीकियों का अध्ययन करती हैं। सिस्टम में घुसकर भी वह उसी रास्ते को अख्तियार करती हैं जो उनके सरोकार से गहरे मेल खाते हों।

भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय के मुख्य भवन की तस्वीर

‘पब्लिक एडिमिस्ट्रेशन एंड गवर्नेंस’ विषय पर प्रोफेसर सुषमा का सर्वाधिक काम है। इसके लिए वह देश-विदेश के तमाम सेमीनारों और सम्मेलनों में शिरकत कर चुकी हैं। उनके अध्ययनों को दुनियाभर के स्कॉलर ‘बेस लाइन’ बनाकर काम कर रहे हैं। उसमें भारतीय शासन प्रणाली और उसके काम करने के तौर तरीके, केंद्र और राज्यों संबंध से लेकर भारत में धर्मनिरपेक्षता, भारतीय परंपरा और आजादी के बाद भारत की राजनीतिक संस्कृति पर जैसे अहम बिंदु शामिल हैं।

वह कहती हैं, “कोई भी शिक्षण संस्थान शिक्षक और छात्र संबंधों पर आधारित होता है। शिक्षा पूरी तरह से सामाजिक कार्य है, इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। सरकार का कर्तव्य है कि वह शिक्षण संस्थानों का स्वायत्ता दे, लेकिन उनकी जवाबदेही भी तय करे। जिस राष्ट्र के नागरिक शिक्षित और स्वस्थ होंगे उस राष्ट्र को आगे जाने से कोई नहीं रोक सकता। इसीलिए इन दो क्षेत्रों को सरकार अपना दायित्व समझे और इनमें निजीकरण की प्रवृति को रोके। शिक्षण संस्थानों को वैश्विक स्तर पर अपने मानक तय करने की आजादी हो और राजनीतिक हस्तक्षेप न हो। शिक्षक और शिष्य मिलकर शिक्षण संस्थानों की कार्य प्रणाली तय करें। राजनैतिक नेतृत्व शिक्षा को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी मानते हुए शिक्षण संस्थानों को निरंतर आर्थिक और प्रशासनिक सहायता प्रदान करे।”

प्रोफेसर सुषमा के ये विचार मौजूदा दौर में उस समय सामने आए हैं जब विचारों और सिद्धांतों के लिए देश का बौद्धिक जगत एक समानांतर लड़ाई लड़ रहा है। एक बड़ा तबका है जो मानता है कि अनैतिहासिक और एकांगीपन ली हुई विचारधारा को शिक्षा पर थोपने की कोशिशें की जा रही हैं। इनमें चाहे विश्वविद्यालयों पर आरएसएस के हेडगेवार को पढ़ाए जाने के का दबाव हो या फिर प्रगतिशील और दलित-पिछड़ों को आवाज़ देने वाली पत्रिकाओं को देश की अहम संस्थान यूजीसी का मान्यता देने से इनकार करना।

प्रोफेसर सुषमा यादव

लेकिन इस माहौल से दूर, प्रोफेसर सुषमा अपनी लगन और अपनी रीत-नीत से चलती हैं। उन्होंने कहा, मैं मूल रूप से सामाजिक न्याय के विषयों पर काम करती हूं। उसे ही ध्येय बनाकर आगे बढ़ रही हूं। उनकी नियुक्ति पर भारतीय अकादमिक जगत में खुशी होना स्वाभाविक है। इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में काम कर चुके प्रोफेसर और उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति प्रोफेसर सुभाष धूलिया ने प्रोफेसर सुषमा की नियुक्ति की यह खबर सुनते ही कहा, “पब्लिक एडमिस्ट्रेशन में प्रोफेसर सुषमा यादव का असाधारण काम है। वह तो शिक्षकों की भी शिक्षक हैं। उनको व्यक्ति के तौर पर समझने की आप जब भी कोशिश करते हैं तो एक बड़े व्यक्तित्व का स्केच बनता है। हम विश्वविद्यालय द्वारा आहूत जिस भी मीटिंग में होते थे, उसकी व्यवस्था, समन्वय और संचालन का काम प्रोफेसर सुषमा ही देखती थीं। वह शानदार इनसान हैं। उनकी वीसी के तौर पर नियुक्ति को मैं किसी समाज विशेष ही नहीं बल्कि देश के सभी प्रबुद्ध जनों के दायरे से जोड़कर देखता हूं। उनके सरोकार हम सबके सरोकार हैं। वह देश की प्रबुद्ध समाज की प्रतिनिधि हैं।” प्रोफेसर सुषमा यादव ने नया पदभार संभालते ही कहा, “हम उच्च शिक्षा के हर मानक पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे।”

प्रोफेसर सुषमा के विचार

वह कहती हैं, “21वीं सदी सूचना तकनीक की सदी है और इसकी अपनी चुनौतियां हैं। जीवन का हर पहलू सूचना तकनीक और सूचना क्रांति से प्रभावित है। चाहे हमारे पारस्परिक संबंध हों, चाहे हमारे सांस्कृतिक और भौगोलिक संबंध। सूचना तकनीक ने हर तरह के रिश्ते को नए सिरे से परिभाषित कर दिया है। शिक्षा का क्षेत्र भी सूचना तकनीक और सूचना तंत्र से अछूता नहीं रहा है। निश्चित ही सूचना तकनीक ने शिक्षा और संपूर्ण शिक्षण प्रणाली को लोकतांत्रिक और हर किसी की पहुंच में लाकर खडा कर दिया है। उदाहरण के लिए एमओओसीए (मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्स) और ‘स्वयं प्लेटफार्म’। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। शिक्षा की गुणवत्ता और मूल्य आधारित शिक्षा पर इसका विपरित प्रभाव पड़ा है। आज विद्यार्थी कक्षा में शिक्षक को गुरू मानने से इनकार करता है और कहीं ना कहीं कक्षा आधारित शिक्षा का विकल्प सूचना तकनीक में ढूंढता है। मैं मानती हूं कि शिक्षा व्यक्ति विकास और ज्ञान दक्षता दोनों का मिश्रण होना चाहिए। मुझे लगता है कहीं न कहीं आज शिक्षण संस्थाओं के सामने अपने वजूद को बचाने का बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा है। धन और इंफ्रास्ट्रक्चर होने के बावजूद शिक्षण संस्थानों और उनके द्वारा दी हुई शिक्षा पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है जो चिंता का विषय है । शिक्षा के प्रति हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि शिक्षक और  विद्यार्थी के संबंध को मज़बूत करके हम इस चुनौती को काफी हद तक कम कर सकते हैं।”

महिलाओं की छवि में हुआ है सुधार

प्रोफेसर सुषमा ने कहा, “हरियाणा एक कृषि प्रधान राज्य होने के कारण इसकी उन्नति में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। कुछ कुप्रथाओं के चलते और कहीं न कहीं पुरुष प्रधान विचारधारा के कारण महिलाओं की स्थिति सामाजिक, शैक्षिणक और आर्थिक रूप से चिन्ताजनक होती चली गई। लेकिन समय के साथ और आर्य समाज जैसी संस्थाओं और महामानवों के प्रयासों के फलस्वरूप आज हरियाणा में महिलाओं की स्थिति में सराहनीय बदलाव हुआ है। आज बीबीबीपी (बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ)  अभियान एक आंदोलन बन चुका है और नारी शिक्षा समाज के हर व्यक्ति की प्राथमिकता है। भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय का बनना इस प्रयास का एक अहम उदाहरण है। मैं मानती हूं कि आज हरियाणवी महिला घरेलू औरत होने तक ही सीमित नहीं है बल्कि कार्य के हर क्षेत्र में उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। और समाज को नई दिशा देने में अपना योगदान दे रही है।”

प्रोफेसर सुषमा कहती हैं, “ऐसा कहा जाता था कि महिला होना अपने आप में एक अलग जाति है। ओबीसी या दलित महिलाओं की समस्या भी एक आम महिला की समस्या जैसी ही है। इतना जरूर है आर्थिक विषमताओं के कारण इस वर्ग की महिलाओं की समस्याएं कहीं ज्यादा जटिल हैं। दक्षिण भारत की दलित लेखक बामा कहती हैं दलित महिलाएं दोहरी दलित होती हैं एक तो उनकी सामाजिक जाति और दूसरा उनका महिला होना।  आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन उनकी दो मुख्य समस्याएं हैं। लेकिन फिर भी यह कहूंगी कि महिला, महिला है उसे जातिगत चश्मे से ना देखकर समाज का एक अभिन्न अंग मानकर साथ लेकर चलने की जरूरत है।”

वह कहती हैं कि हाल में हरियाणा सरकार के प्रयासों के कारण हरियाणा में लिंगानुपात में बहुत सुधार हुआ है। प्रोफेसर सुषमा ने कहा, “कुछ लोगों की रुढ़िवादी सोच के चलते लड़की को बोझ समझा जाता था लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षा और सामाजिक चेतना के कारण इस सोच में बदलाव आ चुका है। आज लड़की और लड़के में भेद लगभग खत्म हो चुका है। इसका मुख्य कारण है कि लड़कियों का हर क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन। आज का हरियाणा आगे बढ़ चुका है कुछ अपवादों को छोड़कर, लड़की बोझ नहीं समझी जाती है बल्कि घर में एक लड़की का होना शुभ माना जाता है।

उपलब्धियां

प्रोफेसर सुषमा यादव के बारे में कहा जाता है कि इंडियन पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन (आईपीएसए) की तीन साल पहले जब वह प्रेसिडेंट चुनी गईं तो “इस पद पर पहुंचने वाली वो देश की पहली महिला राजनीतिशास्त्री थीं। राजनीति शास्त्र के शिक्षकों और स्कॉलर्स की यह भारत की सबसे बड़ी और सम्मानित संस्था मानी जाती है। प्रोफेसर यादव दिल्ली यूनिवर्सिटी की अपने बैच की टॉपर और गोल्ड मेडलिस्ट रही है। उनको दर्जनों पुरस्कार मिले हैं। लेकिन पुरस्कारों की लिस्ट में वे सबसे ऊपर उन दो पुरस्कारों को रखती हैं, जिनके नाम क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले के नाम पर हैं। उन्होंने देश में नारी शिक्षा की शुरुआत की थी।”

वर्ष 2014 में  क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले पुरस्कार ग्रहण करतीं प्रोफेसर सुषमा यादव

प्रोफेसर सुषमा यादव एमए, एमफिल और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं। वह भारतीय प्रशासन संस्थान (आईआईपीए) में सामाजिक न्याय विभाग की चेयरपर्सन रही हैं। इससे पहले वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स में रीडर (एसोसिएट प्रोफेसर) थीं। वह राय बहादुर गौरी शंकर मेमोरियल पदक और महर्षि कर्वे मेमोरियल पुरस्कार पा चुकी हैं। आईसीएसएसआर की उन्हें डॉक्टरेट फैलोशिप और शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के सम्मान से भी नवाजा गया है। वह 1996-2000 के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के सदस्य और 1994-1996 और 2002-2004 के दौरान आईआईपीए की कार्यकारी समिति दिल्ली क्षेत्रीय शाखा के सदस्य के रूप में कार्य कर चुकी हैं।

शिक्षण और शोध के क्षेत्र में प्रोफेसर सुषमा सतत कार्यरत हैं। वह दस से अधिक पुस्तकों की लेखक/सह-लेखक/संपादक हैं। इन पुस्तकों और शोधों में सेंटर-स्टेट रिलेशंस (1986) सेक्यूलरिज्म एंड इंडियन ट्रेडिशन (1988); पालिटिकल कल्चर इन पोस्ट-इंडिपेंडेंट इंडिया (1989), इशूज ऑफ इंडियन पालिटिक्स (1994); कल्चर एंड पालिटिक्स (1998), इंडियन स्टेट: ओरिजन एंड डेवलपमेंट (2000);  पैटर्न आफ जेंडर वायलेंस (2002); जेंडर इश्यूज इन इंडिया (2003); जल: कल आज और और कल (2005); गार्डियन ऑल्टरनेटिव: सोशल एंड पालिटिकल स्ट्रक्चर ( 2005); सोशल जस्टिस: अंबेडकर विजन(2006)। इसके आलावा उनके कई आलेख देश और विदेश के कई प्रसिद्ध शोध पत्रिकाओँ और किताबों में प्रकाशित हुए है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों/ सम्मेलनों में अनेक शोधपत्र प्रस्तुत किए और कई महत्वपूर्ण मुद्दों व्याख्यान दिए। “ए सर्च फॉर आइडेंटिटी एंड जस्टिस” पर उनका एक शोधपत्र ब्लैकवेल कैम्पियनियन में प्रकाशन के लिए स्वीकृत हुआ जो रीजेंट यूनिवर्सिटी के ‘रिलीजन एंड सोशल जस्टिस’ में आया। इसका संपादन मशहूर स्कॉलर माइकल डी. पामर ने किया था। आईआईपीए में उन्होंने 32वें एपीपीए के प्रतिभागियों के लिए 2006-2007 में सामाजिक न्याय पर एक मुख्य पाठ्यक्रम तैयार किया साथ ही सामाजिक न्याय के लिए ट्रेनिंग का माड्यूल भी पेश किया। इसके अलावा वह 2006 में 35वें और 37वें एमडीपी की वह पाठ्यक्रम निदेशक रही हैं। उन्होंने 2006-2007 के दौरान बांग्लादेश सिविल सेवा के लिए फाउंडेशन ट्रेनिंग प्रोग्राम में भारत से दो सबसे पहले मॉड्यूल रखे। 2007-2008 को बांग्लादेश लोक प्रशासन के आयोजित किए प्रशिक्षण शिविर में भी उनकी महती भूमिका थी।

आईआईपीए के कामकाज के दौरान प्रोफेसर सुषमा यादव ने अनेक देशों का भ्रमण किया और भारतीय बौद्धिक समाज के चिंतन और देशवासियों के सरोकार को कई फोरम में रखा। उन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दों, सुशासन, मानवाधिकार, महिलाओं और पिछड़े समाज के सशक्तिकरण के साथ डॉ. बी. आर. आंबेडकर के दर्शन पर गहरा काम किया है।

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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