हूल विद्रोह : तिलका मांझी और सिदो-कान्हू सहित संताल आदिवासियों की शौर्य गाथा

हूल विद्रोह की पेंटिंग
आज संताल हूल दिवस है, यानी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह दिवस। वैसे तो भारतीय इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला विद्रोह 1857 है, मगर जब हम आदिवासियों के इतिहास को देखते हैं तो पाते हैं यह विद्रोह 1771 में ही तिलका मांझी ने शुरू कर दिया था।
वहीं 30 जून 1855 को संताल आदिवासियों ने सिदो, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो के नेतृत्व में साहेबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के 40,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया। इस दैरान सिदो ने कहा था — अब समय आ गया है फिरंगियों को खदेड़ने का। इसके लिए “करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो” का नारा दिया गया था। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा को संताल आंदोलनकारियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संताल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक छा गया।
बताया जाता है जब कभी भी आदिवासी समाज की परंपरा, संस्कृति और उनके जल, जंगल जमीन को विघटित करने का प्रयास किया गया है, प्रतिरोध की चिंगारी भड़क उठी। 30 जून 1855 का हूल इसी कड़ी का एक हिस्सा है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब उनके खिलाफ आदिवासियों का गुस्सा इतना परवान चढ़ा कि इस लड़ाई में सिदो, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो सहित लगभग 20 हज़ार संतालो ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेज का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हुआ हो। अपने कुछ विश्वस्त साथियों के विश्वासघात के कारण सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गयी। 20 हज़ार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी थी।
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अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा और मार्शल लॉ लगाया गया। हजारों संताल आदिवासियों को गिरफ्तारी किया गया, लाठियां चली, गोलियां चलायी गयी। यह लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक अंतिम आंदोलनकारी जिंदा रहा।

सिदो-कान्हू की पेंटिंग
इसके पूर्व 1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदि विद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह तिलका मांझी जीवित था। बतया जाता है कि खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थीं। अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए – हांसी-हांसी चढ़बो फांसी …! – वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं।
तिलका मांझी संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है। आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्म गोत्र का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संताल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे।

सिदो-कान्हू की स्मृति में भारत सरकार द्वारा जारी किया गया डाक टिकट
‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, 1868 के पहले खंड(पृष्ठ संख्या 219-227) में सर विलियम विल्सर हंटन ने साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका पलायन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संताल परगना में संतालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. 224)।
1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना’, वोल्यूम 13 में एल.एस.एस. ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संतालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिनेकोह में संतालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संताल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है।
बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की है। अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संताल आदिवासी बताया है।
वहीं हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है।
बहरहाल, हूल विद्रोह की जो वजहें 19वीं सदी में थीं, उसी तरह की परिस्थितियां आज भी आदिवासी इलाकों में कायम हैं। पूंजीवादी घरानों के लिए आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से वंचित किया जा रहा है। विरोध करने पर उन्हें नक्सली कहकर उनका सरकारी नरसंहार भी जारी है। झारखंड में ही सीएनटी और एसपीटी एक्ट में बदलाव के जरिए आदिवासियों की जमीन को हड़ने की साजिश हो रही है। दिखावे के लिए उड़ता हाथी दिखाया जा रहा है। ऐसे में हूल विद्रोह की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
(कॉपी एडिटर : नवल)
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बहुत अच्छा लेख है आदिवासियों तथा शोषित समाज का इतिहास जानना भी बहुत जरूरी है बहुजन समाज के लोगों को सावधान रहने की क्यो है जरूरत….
बहुत बढ़िया लेख है बहुजन समाज के लोगों को सावधान रहने की क्यो है जरूरत….
इस इतिहास के लिए शुक्रगुजार हूं सर।
Superb knowledge…. most of d indian n trible even me didnt know about this kind of history….trible always fight for own rights…salute
Siddo kanho ka itihaas maujood hai… aur santhalo ke alawa munda vidroh aur sanyasi vidroh bhi 1857 ke Pahle huye the… Mangal Pandey ko is liye pahla Mana jata hai kyunki unhone desh ke sabse bade sipahi vidroh ki suruat ki thi jo ki desh ke Alag Alag pranto me faila tha aur angreZo ki jado ko Hila Dia
Tha
Adivasiyo ka Itihas to Bohot bada h or ekdam dacha h lekin abhi tak,Adivasi ka Itihas age nahi aya……Jay Adivasi Jay Bhim…
Very nice, information
Bahut hi best intimation.. Eski book mil Sakti h….
सबसे पहला विद्रोह चुहाड़ विद्रोह रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 1760 में हुआ उसके बाद तिलका मांझी का के नेतृत्व में फिर हुल विद्रोह दामिन क्षेत्र में सिदो कानो चांदो भैरो के नेतृत्व में व नन दामिन क्षेत्र में चानकू महतो के नेतृत्व में हुआ है । इन सबका जिक्र सरकार के दस्तावेज ऐंथ्रोपोलिजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में कई बार मिलता है । कृप्या अपने लेख को सुधार कर सही व सत्य इतिहास सामने लाने का प्रयास करें।
Bahut hi shandar hii…. But iski koi book mil sakti hai kya
बहुत ही खूबसूरत लेख। इतनी इतिहास परक जानकारी के लिए धन्यवाद। भारत का कभी इतिहास सही लिखा ही नहीं गया, जो लिखा है है वह दरबारी चारण और भागों ने अपने राजा के समर्थन में लिखा है।भारत का इतिहास बौध्दों के समय का मिलता है लेकिन क्रूर आतताईयों ने उसे मिटा दिया, फिर अंग्रेजी राज में इतिहास लिखना शुरू हुआ। आज सब- अल्टर्न इतिहास लिखा जा रहा है जो बदलते समय में यथार्थवादी इतिहास हैं। -जी एन शाक्या शोध छात्र समाजशास्त्र विभाग डाँ राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद, राष्ट्रीय अध्यक्ष भारत सहयोग संघ नई दिल्ली मो. 9451742453