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उसेह मुदिया पेन करसाड में उमड़े आदिवासी

प्रकृति को अपना सर्वस्व मानने वाले गोंड आदिवासियों ने बीते दिनों उसेह मुदिया पेन करसाड का आयोजन किया। यह आयोजन सात साल के अंतराल पर होता है। इस आयोजन और इससे जुड़ी परंपराओं के बारे में बता रहे हैं तामेश्वर सिन्हा :

बीते 24-25 मई 2018 को छत्तीसगढ़ के उत्तर बस्तर कांकेर जिला के कोयलीबेड़ा प्रखंड मुख्यालय से करीब 15 किमी की दूर पर मोड्डेमरका स्थित घने जंगल में रौनक थी। मौका था प्रत्येक सात साल पर होने वाला उसेह मुदिया का दो दिवसीय पेन करसाड[1]। हजारों की संख्या में आदिवासी जुटे थे। इस मौके पर गोंड संस्कृति के विभिन्न रूप सामने आये। गोंडी संस्कृति में छत्तीसगढ़ को कोया मुरी दीप (कोयतुरों[2] का निवास) कहा जाता है और उसेह मुदिया गोंड समुदाय के पुरखे माने जाते हैं।

उसेहा मुदिया पेन करसाड़ की तैयारी बीते दो महीने से की जा रही थी। इसके तहत सबसे पहले सभी पेनों[3] को नेवता[4] दिया जाता है। पहले दिन सारे मेहमान पेनों का स्वागत पेन नेगों[5] के अनुसार किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार इसमें उसेह मुदिया के बेटे[6] कोकाल, विड्राल और उनकी पत्नी[7] शामिल होती हैं। लोक कथाओं में उसेह मुदिया की सात पत्नियां बतायी जाती हैं।

इसी झोपड़ी में स्थापित है उसेह मुदिया का प्रतीक चिन्ह

करसाड़ की पहली रात सारे पेनों का अद्भूत पेन समागम किया गया। यह सारी रात चला। गोंडी समुदाय में मोर का खास स्थान है। पेन के प्रतीक को मोर की खाल और उसके रंगीन पंखों से सजाया गया। स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि उसेह मुदिया पेन का खास उपाधि मोर पक्षी होता है जो पेन के ऊपर विराजमान रहता है। दूसरे दिन करसाड़ में आए सारे पेनों की रिवाजों के अनुसार सेवा अर्जी[8] उपरांत विदाई दी गयी और इसके साथ ही करसाड़ का समापन हो गया। स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि उसेहा मुदिया पेन करसाड में बारिश होना शुभ माना जाता है। इसलिए इसमें शामिल होने वाले लोग अपने साथ छाता लेकर आते हैं। इस बार भी करसाड के दौरान बारिश हुई।

कौन हैं उसेह मुदिया और क्या है उनकी कहानी

गोंडी संस्कृति के अध्येत्ता डा. सूर्या बाली के अनुसार गोंडी संस्कृति में उसेही मुदिया को लोहा के आविष्कारक के रूप में माना जाता है।[9] लोक मान्यताआें के अनुसार अगड़िया असुर आंगा को मानते हैं। यह समुदाय अभी भी छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर और सोनभद्र जिले में रहते हैं। वहीं झारखंड के लोहरदग्गा और गुमला जिले में भी अगड़िया समुदाय के लोग रहते हैं।

वहीं बस्तर की प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका डॉ. किरण नुरेटी ने अपनी किताब ‘बस्तर के गोंड जनजाति की धार्मिक अवधारणा’ में उसेह मुदिया की कहानी का उल्लेख किया है। उनके मुताबिक दक्षिण बस्तर के तुलार मट्टा पर्वत श्रंखला के एक विशाल पहाड़ की चोटी पर विस्तृत समतल चट्टान है। इस चट्टान पर आंगा पेन जैसी प्राकृतिक आकृति बनी हुई है। सदियों पूर्व इसे बस्तर के माडिया गोन्ड जनजाति के लोगों ने देवता मानकर सेवा-अर्जी शुरू कर दी थी। यह कई पीढियों तक चलता रहा। लेकिन ऊंचे पहाड़ की चढ़ाई दुर्गम होने के कारण वहां बार-बार जाना संभव नही था। बाद में गांव वालों ने लकड़ी की आंगा की वैसी ही आकृति बनाकर स्थापित कर दिया। इसका नाम ‘हीडतोहरोप्पा’ रखा गया। जब गांव के लोग आंगा पेन का प्रतीक बना रहे थे तब गांव के बच्चे भी बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। बच्चों ने भी बची हुई लकड़ी से उसी विधि-विधान के साथ खेल-खेल में आंगा का प्रतीक बना दिया और जंगल में छिपा दिया। इस जगह पर बच्चे करसाड खेलते। यह कई वर्षों तक चलता रहा। इस दौरान वे बुजुर्गों का अनुसरण करते थे। लेकिन ‘जीवा तासना’ के लिए जिंदा मुर्गा मिलना मुश्किल था। इसलिए वे एक जंगली पक्षी जिसका नाम ‘उसी’ था, उसे पकड़कर आंगा को चढ़ा देते। इस पेन को बच्चों ने ही उसेह मुदिया नाम दिया।

आदिवासी लेखिका डॉ. किरण नुरेटी की किताब ‘बस्तर के गोंड जनजाति की धार्मिक अवधारणा’ में उल्लेखित उसेह मुदिया की वंशावली

लोक गाथा के अनुसार एक दिन खेल-खेल में ही करसाड के दौरान बच्चों ने बकरे की जीव सेवा देने का निर्णय लिया। एक बच्चे को बकरा बनने के लिए कहा गया। उसे बकरे जैसी आवाज निकालनी थी। बच्चों ने घास का तलवार बनायी और उसी से जीव सेवा देने का खेल खेला। लेकिन खेल में दिया गया यह जीव सेवा वास्तविक जीव सेवा में बदल गया। उस बच्चे की मौत हो गयी। अन्य बच्चे डर के मारे भाग गये।

उधर गांव में एक बच्चे के गुम होने की खबर फैल गयी। बच्चे डर के मारे घटना के बारे में किसी को कुछ बता नहीं रहे थे। वहीं बच्चों द्वारा खेल-खेल में बनाया हुआ आंगा देव बन कर सजीव  हो चुका था और वह शेर का रूप धर गांव वालों को सताने लगा। गांव वालों ने उसे मारने की योजना बनाई। वे परंपरागत हथियार तीर-धनुष से लैस होकर शेर की तलाश करने लगे। एक रात शेर गांव में आया। गांव वालों ने उसका पीछा किया और उसे घेरकर हमला बोल दिया। गांव वालों के तीर से वह घायल हो गया और जंगल में भाग गया। गांव वालों ने घायल शेर के खून के निशान को देख उसका पीछा किया।

जहां खून के निशान खत्म हुए, वहां एक आंगा पेन रखा हुआ था, जिसमें तीर धंसा था। ग्रामीण समझ गए कि यही आंगा ही शेर बनकर लोगों को परेशान कर रहा था। बच्चों का भेद खुल गया। गांव वालों ने बच्चों से कहा कि इस आंगा देव को गांव की सीमा से बाहर जंगल में फेंक आओ। बच्चे आंगा देव को उठा कर फेंकने भोमरागढ़ के जंगल में पहुंचे तब आंचला[10] परिवार की महिलाएं जंगल में लकड़ी लेने गई थीं। महिलाओं ने बच्चों से पूछा। बच्चों ने सारी कहानी बतायी। महिलाओं ने कहा कि इसे फेंको मत, हमें दे दो। हमारे पास देव नहीं है। महिलाओं ने वहीं घने जंगल में मोड्डेमरका में स्थापित कर दिया।

करसाड़ में जुटे आदिवासी युवा

बड़ी संख्या में जुटे आदिवासी युवा

पेन करसाड़ में हर उम्र वर्ग के लोग शामिल होते हैं। हालांकि इस बार आदिवासी युवक-युवतियां बड़ी संख्या में शामिल हुए। अधिकांश का कहना था कि हम अपने कोयतूर पेन संस्कृति को देखने समझने महसूस करने आए हैं। वहीं अनेक नौजवानों ने हिंदूवादी विचारों से खुद को अलग बताया। इंटर की छात्रा अनूपा मंडावी ने बताया कि बचपन से हिंदूवादी विचारों को थोपा जाता रहा है। जब जागरूक हुए और कोयतूर संस्कृति के बारे में जानकारी मिली तब उसेह मुदिया करसाड़ में आना चाहती थी। वह पिछले दाे वर्षों से इसका इंतजार कर रही थीं। उसके मुताबिक पेन करसाड अपना इतिहास समझने का मौका देता है। साथ ही हमें अपने पेन और पुरखों व प्रकृति के बीच संबंध के बारे में जानकारी मिलती है। वहीं माइक्रोबायोलॉजी की छात्रा उर्वशी नाग ने बताया कि उसेह मुदिया जैसे सभी करसाड़  अनंत सालों से चली आ रही है। इसका संबंध प्रकृति की रक्षा से है। यही कारण है कि कोयतूर समाज प्रकृति के सभी घटकों यथा जल, जंगल, जमीन और जानवर सभी के साथ अपना रिश्ता बनाए रखता है। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति में बाहरी हस्तक्षेप किया जा रहा है। उनकी निगाह हमारे प्राकृतिक संसाधनों को तबाह करने की है।

(इस लेख में प्रयुक्त गोंडी शब्दों का हिंदी अनुवाद गोंडी संस्कृति की अध्येता चंद्रलेखा कंगाली ने किया है।)

(कॉपी एडिटर : नवल/अशोक)

 

संदर्भ :

[1] गाेंडी आदिवासियों का धार्मिक आयोजन। यह एक सामूहिक नृत्य भी है।

[2] आदिम जनजाति

[3] गाेंडी समुदाय के लोक देवता

[4] आमंत्रण

[5] रस्म

[6] मर्र

[7] मुत्ते

[8] गोंडी संस्कृति में पूजा

[9] डॉ. सूर्या बाली दिल्ली के एम्स में चिकित्सक हैं। आदिवासी संस्कृति को लेकर वे अध्ययन में भी सक्रिय हैं। इस पर केंद्रित उनकी एक किताब शीघ्र प्रकाश्य है।

[10]  गोंड आदिवासी परंपरा में कुल 750 गोत्र माने जाते हैं। आंचाला भी एक गोत्र का नाम है। इसका प्रतीक नाग(सांप) है।


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लेखक के बारे में

तामेश्वर सिन्हा

तामेश्वर सिन्हा छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार हैं। इन्होंने आदिवासियों के संघर्ष को अपनी पत्रकारिता का केंद्र बनाया है और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रिपोर्टिंग करते हैं

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