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कांग्रेस को इस कारण भाजपा से बेहतर मानते हैं प्रकाश आंबेडकर

भारतरत्न बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के पौत्र और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इन्डिया बहुजन महासंघ के नेता पूर्व सांसद प्रकाश आंबेडकर बीते रविवार को बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में आयोजित 'संविधान बचाओ, देश बचाओ' रैली में शामिल होने के लिए शनिवार को पटना पहुंचे। उनसे फारवर्ड प्रेस के प्रतिनिधि अनिल गुप्त ने लंबी बातचीत की। पढ़ें इस बातचीत के संपादित अंश

आजादी के पहले के दलित आंदोलन को आप आज किस तरह देखते हैं?

आजादी के पहले के आंदोलन को दो हिस्सों में देखना चाहिए। एक महात्मा गांधी का आंदोलन जो स्वराज का आंदोलन था। दूसरे, जो चिंगारी महात्मा फुले ने लगाई थी और साहू जी महाराज व बड़ौदा के गायकवाड़ ने जिसे जलाकर रखा था, उसको बाबासाहब ने मशाल बना दी। बाबासाहब ने बात उठाई कि स्वराज में दलितों की जगह क्या होगी? जबतक इनकी जगह तय नहीं होती, तबतक देश का भला नहीं होगा। आजादी मिल जाएगी, मगर यह कुछ वर्गों के लिए होकर रह जाएगी।

आजादी के बाद बीते सात दशकों में दलितों के लिए जो कुछ हुआ उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। इसके मद्देनजर आजादी के पहले का आंदोलन और आजादी के बाद कि स्थिति, जबकि दलित केवल वोट बैंक होकर रह गए हैं, इसको आप कैसे देखते हैं?

वोट बैंक की राजनीति को बगल में रखकर मैं समाज की मानसिकता की बात करता हूँ। मैंने जिस लड़ाई का जिक्र किया है, वह इंसानियत की लड़ाई की शुरुआत थी। उसमें लोगों को बदलने की बात थी। सत्तर साल में लोग काफी बदल चुके हैं। हालांकि एक दमन का भी वर्ग है, जिसको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। लेकिन आजादी के पहले की स्थिति और आज की स्थिति की चर्चा करें तो मुझे लगता है कि सामाजिक आजादी बड़े पैमाने पर हासिल हुई है।

दूसरी लड़ाई जो बाबासाहब ने कही थी, आर्थिक आजादी और सम्मान की लड़ाई, उसपर पिछले 30-40 वर्षों में काम नहीं हुआ है। पहले 1990 तक, राजनीतिक सत्ता हो या न हो, दलितों को- शिडयूल कास्ट, शिडयूल ट्राइब और बैकवर्ड क्लास को, सामाजिक बदलाव की राजनीति में जगह मिल रही थी। 90 के बाद परिस्थिति बदलनी शुरू हुई। सवर्ण और दलित-पिछड़े, दोनों बढ़ रहे थे, मगर संसाधन और अवसर नहीं बढ़े। तब इन्हीं संसाधनों और अवसरों के लिए लड़ाई शुरू हुई। सामाजिक सम्मान भी मिला। वर्तमान सरकार के पहले तक इसमें कोई कमी न थी। हां, वर्तमान सरकार सामाजिक सम्मान पर भी आंच लाना चाहती है।

वोट बैंक की राजनीति इसलिए हो रही है क्योंकि सब तरफ असन्तोष है। इसके कारण जितने भी पॉवर स्ट्रक्चर हैं, उनपर सभी अपना कंट्रोल करना चाहते हैं।

पंजाब में एक जनसभा को संबोधित करते प्रकाश आंबेडकर

संसाधनों पर थोड़े से लोगों का कब्जा होने के कारण बाकी ढेर सारे लोगों में क्लेश है कि कौन कितने संसाधन पर कब्जा करे?

हां, बाकी बचे लोगों में बचे हुए संसाधन के लिए लड़ाई चल रही है।

यह कास्ट वॉर से ज्यादा क्लास वॉर की स्थिति है?

अपने यहां क्लास वॉर और कास्ट वॉर दोनों है? आप इसे अलग नहीं कर सकते। जाति के अंदर यह क्लास वॉर है। उदाहरण के लिए पासवान जाति को लें। इसमें अमीर भी हैं और गरीब भी हैं। गरीब पासवान अमीर पासवान को गाली भी देता है। उसका कहना है कि इसने संसाधन अपने पास रखे हैं।

इसे और बड़े कैनवास में लो। एजुकेशन में रिजर्व-अनरिजर्व की मारामारी। सीट से ज्यादा संख्या वाले आवेदक जिनका नामांकन न हुआ चाहे किसी कैटेगरी के हों एक-दूसरे को कोसते हैं। जनरल वाले कहते हैं कि रिजर्व वालों ने सीटें मार ली और रिजर्व वाले कहते हैं कि जनरल वालों ने विकास किया ही नहीं इसलिए हमको अवसर नहीं मिल रहे।

यह सोच का दिवालियापन है। यह दिवालियापन राजनीतिक दलों और विकास की योजनाओं में भी है। चाहे बीजेपी हो, जनता दल हो या कांग्रेस पार्टी, किसी के पास समाज में व्याप्त अलगाव को बदलने के लिए कोई अल्टरनेट पॉलिसी नहीं है। आज हर कोई जो विकास की बात करता है, उसमें अपने समाज की निश्चितता के लिए आरक्षण की बात कर रहा है।

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बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद उनकी पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का आप किस तरह से आकलन करते हैं?

इस पार्टी ने बड़े पैमाने पर अपनी ताकत दिखलाई, जनांदोलन भी किए। 1965-66 में आरपीआई और वाम दलों ने मिलकर भूमि आवंटन आंदोलन शुरू किया जिसमें आजादी के बाद पहली बार 20-22 लाख लोग गिरफ्तार हुए और दो-तीन महीने जेल में रहे। इस आंदोलन से कांग्रेस डर गई। बाद में वामपंथी पार्टियों और आरपीआई के भी कई टुकड़े हो गए। सब बिखरे हैं। इसी समय से तोड़फोड़ की राजनीति की शुरुआत हुई।

रामदास अठावले…

ये तो किराये के टट्टू हैं…

महाराष्ट्र में दलित आंदोलन टुकड़ों में बंटा है? दलित पैंथर्स का गठन हुआ, विघटन भी हुआ?

वंचित समाज के लोगों को हमारी जातीय और पूंजीवादी व्यवस्था बहुत दिनों तक इकट्ठा नहीं रहने देगी।

आप विकास की कोई वैकल्पिक प्रणाली चाहते हैं?

सही है। होना चाहिए।

जिसमें बड़ी आबादी को हम असेट के रूप में इस्तेमाल कर सकें?

हां। अभी आरक्षण से लाभान्वित लोगों से भी ज्यादा बड़ी जो बची हुई आबादी है, उसके लिए सही योजना की जरूरत है।

इसमें महात्मा गांधी के खादी और ग्रामोद्योग की अवधारणा को आप किस रूप में देखते हैं?

महात्मा गांधी के ग्रामोद्योग की अवधारणा को गाँधीवादियों ने ही खत्म करवा दिया।

उसमें आपको संभावना कितनी दिखती है?

आपको दुनिया के साथ चलना चाहिए। आधुनिकीकरण जरूरी है। बदलते समय के साथ ग्राम व्यवस्था को कैसे ढलना चाहिए, इसपर चर्चा होनी चाहिए थी। मगर गांधीवादियों ने यह नहीं होने दिया। इसके कारण देश में केवल पश्चिमी तरीके का ही विकास हुआ।

बाबासाहब संविधान की मंजूरी के बाद मंत्री होने की बजाय योजना आयोग संभालना चाहते थे। वे कृषि के लिए कुछ करना चाहते थे। मगर पहली पंचवर्षीय योजना पूरी तरह उद्योग पर फोकस रही। छोटे किसानों को टिकने के लिए सहयोग और वैकल्पिक बाजार की व्यवस्था देनी चाहिए थी। उद्योगों का लाभ किसानों को कैसे मिले इसकी व्यवस्था करने की जरूरत थी।

दलित आंदोलन में मान्यवर कांशीराम की भूमिका और खासतौर से बहुजन समाज पार्टी की राजनीति को आप कैसे देखते हैं?

इनके बारे में मैं कुछ नहीं कहूंगा। बाबासाहब ने कहा था कि आजादी बहुजातीय समाज को मिली है, हमें इनमें एकता लानी है। उसके बाद स्लोगन बना- अनेकता में एकता। यही इस देश का सबसे बड़ा सिद्धांत है। हर राजनीतिक दल को इस सिद्धांत पर चलना चाहिए।

बीएसपी को आप इसपर कितना फिट पाते हैं?

मैंने पहले कहा न कि मैं कोई कमेंट नहीं करूंगा।

क्या आज दलित राजनीति में एकता संभव है?

पहले रामविलास पासवान अपनी जगह अकेले नेता थे। उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मायावती को कोई चैलेंज करने की स्थिति में न था। आरपीआई तीन राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में थी। कर्नाटक में डीएसएस थी। आंध्र प्रदेश में कट्टीपद्माराव की दलित संघर्ष समिति थी। उसमें बीएसपी ने कुछ अड़ंगा डाला। आरपीआई के आंदोलन की भूमि महाराष्ट्र में कई नेता होने से मामला बिखर गया।

एकता की संभावना?

इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जो आंदोलन हुआ उसने नेताओं को किनारे कर दिया और बता दिया कि अब हमें नेता की जरूरत नहीं है। इसलिए अब नेताओं को तय करना है कि वे क्या करेंगे। मेरी राय में उन्हें अपना व्यक्तिगत फायदा देखने की बजाय लोगों की लड़ाई के साथ चलना चाहिए।

आप एंटी नरेंद्र मोदी खेमे में आ गए हैं। आपको क्या लगता है कि कांग्रेस दलितों के प्रति ज्यादा उदार है?

मैं तो पहले से बीजेपी के विरुद्ध हूँ। उदारता की बात नहीं करूंगा, मगर यह जरूर कहूंगा कि कांग्रेस राज में उतना दमन नहीं था, जितना आज बीजेपी के राज में है। दूसरे, कांग्रेस ने संविधान में कई संशोधन जरूर किए, कभी पूरा संविधान बदलने की बात नहीं की। बीजेपी होलसेल बदलाव, पूरा संविधान ही बदलने की बात कर रही है। देश के अम्बेडकरवादी लोग, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग, मानते हैं कि जबतक यह संविधान है, तभी तक हमारे अधिकार हैं, हमें कोई कैदी नहीं बना सकता। जब बीजेपी और आरएसएस की ओर देखते हैं तो लगता है कि ये हमें कैदी बना देंगे।

चुपके-चुपके, धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा बदलाव के मुकाबले यह जो होलसेल बदलाव की कोशिश है यह तो ज्यादा आंख खोलने वाली है?

कांग्रेस के समय केशवानन्द भारती का जजमेंट आ चुका था। नानी पालकीवाला और सोली सोराबजी ने उसमें अपने तर्क रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी बात कही थी कि छुटपुट बदलाव किए जा सकते हैं, लेकिन बेसिक स्ट्रक्चर नहीं बदल सकते। बेसिक स्ट्रक्चर हमारा आजादी का है। इसलिए छोटे-मोटे बदलावों से आजादी के हमारे अधिकार पर कोई आंच नहीं आ रही थी। मगर यह जो होलसेल बदलाव की बात हो रही है उससे हमारी आजादी के बेसिक स्ट्रक्चर पर खतरा है।

अपने कहा सिस्टम को बदलने की जरूरत है। हर पांच साल पर चुनाव होते हैं और हर चुनाव के बाद लूट-खसोट और रोना-गाना रह जाता है, इनके रहते हम सिस्टम को कैसे बदलेंगे?

1952 में बाबासाहब ने खुद कहा था कि राजनीतिक आरक्षण की अब कोई जरूरत नहीं है। जिस मकसद से इसे लागू किया था, वह पूरा हो गया, अब इसको खत्म कर दें। लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी उनकी इस बात पर अमल करने को तैयार नहीं। समाज बदल चुका है, राजनीतिक दल नहीं बदले हैं, सामान्य सीट से आज भी जो प्रयास करते हैं, वे चुनकर आते हैं। 1990 में मेरे समेत चार लोग सामान्य सीटों से चुनकर आए थे।

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समाज के अलग-अलग प्रयास तो बिखरे होंगे। उन्हें नेतृत्व चाहिए।

नेतृत्व जाति का विकल्प है, वह पहले अपनी जाति की सोचता है। दूसरी ओर, समाज सामूहिक तरीके से जीता है, इसलिए वह सामूहिक तरीके से सोचता है। समाज जातीय सोच से दो कदम आगे है। किसी भी राजनीतिक पार्टी को लीजिए, रिपब्लिकन पार्टी को ही लें, इन्होंने अपने-आप को डी-कास्ट किया क्या? किसी ने नहीं किया है। लेकिन आम आदमी सामूहिक तरीके से जीने की वजह से डी-कास्ट हो गया है। इसलिए वह इंसानियत की बात पहले करता है, फिर अपनी जाति की बात करता है। पार्टियों में जाति की बात पहले होती है। आज जो लड़ाई या संघर्ष है उसका कारण है कि राजनीतिक पार्टियां बदली नहीं हैं, अपनी-अपनी जाति को लेकर चल रही हैं।

इसका हश्र क्या होगा?

किसी एक समाज के हावी होने की बात से पहले हमें ब्रिटिशों को देखना चाहिए। ब्रिटिशों के आने से पहले यहां मुगलों का राज था। ब्रिटिशों ने उनकी भाषा व रियासत को खत्म किया और उनकी संपत्ति छीन ली। यह भी व्यवस्था बनाई की इनके पास फिर संपत्ति न आए। अभी एक-दूसरे की संपत्ति पर कब्जा करने की होड़ लगी है। डिमोनेटाइजेशन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

मार्क्स के जन्म की दो सौवीं जयंती वर्ष में आप खुद को मार्क्स के कितना करीब पाते हैं?

फिर हम बाबासाहब का उल्लेख करें। उन्होंने काठमांडू में बुद्ध और मार्क्स को लेकर बात कही थी। उन्होंने मार्क्सवाद की निंदा नहीं की थी, मगर यह जरूर कहा था कि वे बुद्ध का चुनाव करेंगे क्योंकि बुद्ध इंसानियत की बात करते हैं और यही ज्यादा समय तक चलने वाला है। मार्क्स कहता है जातियां अपने अंदर नहीं लड़ सकतीं। मैंने पासवान का उदाहरण दिया था। गरीब पासवान कितना भी अपने अमीर पासवान से लड़ ले, मगर उसपर हाथ नहीं उठा सकता। बाबासाहब इन सबसे ऊपर इंसानियत की बात कहते हैं।

बिहार में दलित आंदोलन की स्थिति आप कैसी पाते हैं?

बदलाव होगा।

(कॉपी एडिटर – नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल गुप्त

वरिष्ठ पत्रकार अनिल गुप्ता दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और राजस्थान पत्रिका के विभिन्न संस्करणों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। वे इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं

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