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लोकसभा चुनाव में बढ़ेगा क्षेत्रीय दलों का दबदबा!

लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर गहमागहमी तेज हो गयी है। राजनीतिक दलों के बीच नये समीकरण बनने और बिगड़ने लगे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और भाजपा दो ही मुख्य दल मैदान में हैं। लेकिन राज्यों में इन दोनों दलों के तारणहार क्षेत्रीय पार्टियां हैं। आशीष रंजन का आंकड़ापरक विश्लेषण

भारतीय चुनाव अपने आप में एक बहुत ही रोचक विषय रहा है और इसका विश्लेषण तो उससे भी ज्यादा रोचकता पैदा करता है। पिछले छः महीने में हुए विभिन्न राजनीतिक घटनाक्रमों (और इसके परिणामों) को देखकर इसकी रोचकता और अस्थिरता को और अधिक गहराई से समझा जा सकता है। जहाँ एक तरफ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अपनी सहयोगी पार्टी तेलगु देशम पार्टी, शिवसेना और जनता दल (यूनाइटेड) के साथ बातचीत कर 2019 के लिए अपने मजबूत गठबंधन को बनाये रखने की हर संभव कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी ओर कर्नाटक में कांग्रेस ने अपनी जूनियर सहयोगी जनता दल (सेक्युलर) को मुख्यमंत्री का पद सौंपकर क्षेत्रीय पार्टियों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह 2019 के चुनाव में बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए आवश्यक मजबूत गठबंधन के लिए खुद को पीछे की पंक्ति में भी रखने को तैयार है। इसी बीच, उत्तर प्रदेश में भी एक बड़ी राजनीतिक हलचल देखने को मिली है। पूर्व के चिर परिचित प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपनी दुश्मनी भुलाकर एक साथ चुनाव लड़ने का निर्णय किया है और इस नए गठबंधन का परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी केंद्र और राज्य में अपनी पार्टी की सरकार होने के बावजूद हाल में उत्तर प्रदेश में हुए लगातार तीन उप-चुनावों में हार गयी। उत्तर प्रदेश में हुए उप-चुनावों में मिली हार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी दो ऐसी सीटें भी हारी है जिसका प्रतिनिधित्व राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री कर रहे हैं । 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इसी राज्य के 80 लोकसभा सीटों में से 71 सीटों पर अपने बूते जीत हासिल की थी।

दिल्ली में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रचार सामग्रियों का बाजार (तस्वीर : लाइवमिंट डॉट कॉम)

आखिर ऐसी क्या बात हुई है कि अचानक ही क्षेत्रीय/छोटी पार्टियाँ, कांग्रेस और बीजेपी के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गईं ? आने वाले लोकसभा चुनाव पर ये क्षेत्रीय/छोटी पार्टियाँ क्या प्रभाव डाल सकती हैं? और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि इन क्षेत्रीय/छोटी पार्टियों की हाल की रणनीतियां क्या संकेत देती हैं ?

इन सवालों का जबाब ढूंढने के लिए हमें क्षेत्रीय/छोटी पार्टियों तथा कांग्रेस और बीजेपी को मिले वोटों के ट्रेंड्स को समझना होगा। गौरतलब है कि 1996 से लेकर 2014 तक सभी लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का वोट एक समान रहा है और उसमें लगातार थोड़ी-बहुत बढ़ोतरी ही हुई है, सिर्फ 1999 में उनके वोट में एक प्रतिशत की कमी आई थी।  

यहाँ तक की 2014 के चुनाव में बीजेपी की अप्रत्याशित सफलता के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियों के वोट में एक प्रतिशत का इजाफा ही हुआ था जिसे हम ग्राफ 1 में देख सकते हैं। 2014 के चुनाव में वोट के मामलों में बड़ा बदलाव कांग्रेस और बीजेपी के बीच देखा गया। हालाँकि उस चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान हुआ लेकिन लेफ्ट पार्टियाँ और निर्दलीय उम्मीदवारों के वोट में भी बहुत बड़ी गिरावट देखने को मिली। लेफ्ट पार्टियों के वोट में गिरावट काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पिछले चुनाव के मुकाबले उनके वोट लगभग आधे हो गए।

ग्राफ 1. राष्ट्रिय स्तर पर विभिन्न पार्टियों का वोट, 1996-

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में  हैं और उसे पूर्णांक में लिखा गया है।  स्रोत : TCPD

अगर ऊपर के ग्राफ को देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय/छोटे दलों के कुल वोट में कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं देखने को मिलता है लेकिन जब हम इसे और गहराई में जाकर देखते हैं तो एक परिवर्तन जरूर दिखता है जो आजकल हो रहे रणनीतिक बदलाव की तरफ इशारा करते हैं। इसको जानने के लिए हमने उन राज्यों को मिले वोट के गणित को समझने की कोशिश की जहाँ क्षेत्रीय दल उस राज्य के चुनाव परिणाम को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।  ऐसे राज्यों में आंध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित), असम, बिहार, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल आते हैं जहाँ क्षेत्रीय पार्टियाँ काफी मजबूत हैं।

क्षेत्रीय दलों के मजबूत जनाधार वाले राज्यों के विश्लेषण से दो महत्त्वपूर्ण ट्रेंड्स उभर कर सामने आते हैं। पहला यह कि इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कुल वोट काफी अधिक है और यह आंकड़ा 1998 से प्रत्येक चुनाव में करीब 50 प्रतिशत के आसपास रही है। दूसरी बात जो ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है – 2014 में क्षेत्रीय पार्टियों के कुल वोट में तीन प्रतिशत की गिरावट आई जो कि पिछले दो दशक के भारतीय लोकसभा चुनावों में देखने को नहीं मिली थी। साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इन्ही राज्यों में बीजेपी का वोट लगभग दुगना हो गया। 1996 से लेकर आजतक कोई भी बड़ी पार्टी ऐसा नहीं कर पाई है (ग्राफ 2)। नोट करने वाली बात यह है कि 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के वोट में 12 प्रतिशत का इजाफा हुआ था लेकिन उन राज्यों में जहाँ क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां बीजेपी के वोट में 14 प्रतिशत का इजाफा हुआ।  

ग्राफ 2. : उन राज्यों में विभिन्न पार्टियों का वोट जहाँ क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हैं

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं और उसे पूर्णांक में लिखा गया है। स्रोत : TCPD

ग्राफ 2 से साफ जाहिर है कि भारत की दो बड़ी पार्टियाँ कांग्रेस और बीजेपी का कुल वोट 35 से 43 प्रतिशत के बीच रहा और लगभग 60 प्रतिशत वोट क्षेत्रीय/छोटे दलों, लेफ्ट और निर्दलीय के खाते में गया है।  यह इस बात का संकेत है कि इन राज्यों में कांग्रेस-बीजेपी के इतर दूसरी पार्टियों का वर्चस्व है।  

2014 के चुनाव में बीजेपी की सफलता को मोदी लहर के तौर पर भी देखा जाता रहा है।  क्षेत्रीय दलों के वोट में जो बदलाव देखने को मिले हैं उसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनको बड़ा नुकसान शहरी सीटों (इलाकों) पर हुआ है।  ग्रामीण सीटों (इलाकों) पर क्षेत्रीय दलों का वोट पहले की तरह रहा और अर्ध-शहरी सीटों (इलाकों) पर इनके वोट में 7 प्रतिशत का इजाफा ही हुआ लेकिन शहरी सीटों (इलाकों) पर क्षेत्रीय दलों को 3 प्रतिशत वोट का नुकसान हुआ। नीचे दिए तीन ग्राफ के माध्यम से इस ट्रेंड्स को समझने में मदद मिलती है।

ग्राफ 2a : क्षेत्रीय दलों के मजबूत जनाधार वाले राज्यों के शहरी सीटों पर विभिन्न पार्टियों को मिले वोट

नोट : सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं और उसे पूर्णांक में लिखा गया है। स्रोत : TCPD और लोकनीति (CSDS) डाटा

 

ग्राफ 2b : क्षेत्रीय दलों के मजबूत जनाधार वाले राज्यों में अर्ध-शहरी (semi-urban) सीटों पर विभिन्न पार्टियों को मिले वोट

नोट : सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं और उसे पूर्णांक में लिखा गया है। स्रोत : TCPD और लोकनीति (CSDS) डाटा

 

ग्राफ 2c. क्षेत्रीय दलों के मजबूत जनाधार वाले राज्यों के ग्रामीण सीटों पर विभिन्न पार्टियों का वोट

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं और उसे पूर्णांक में लिखा गया है। स्रोत : TCPD और लोकनीति (CSDS) डाटा

ऊपर के ग्राफ इस बात को दर्शाते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियाँ अभी भी अपने इलाकों में काफी मजबूत हैं। हालाँकि 2009 के बाद से शहरी इलाकों में उनका वोट कांग्रेस और बीजेपी की ओर गया है।  शहरी और ग्रामीण इलाकों में क्षेत्रीय दलों के वोट में ऐसे बदलाव क्या दर्शाता है? इसके जवाब को क्षेत्रीय दलों के उद्भव से समझा जा सकता है। क्षेत्रीय दलों का उदय जातीय या भाषाई पहचान के आंदोलनों के राजनीतिकरण से हुआ है। ग्रामीण इलाकों में क्षेत्रीय दलों की मजबूत पकड़ उन पार्टियों के नेताओं और वोटरों के बीच भावनात्मक जुडाव से संभव हुआ है जो उन्हें एक मजबूत संगठन बनाने में मदद करता है और काडर को जमीनी स्तर पर आंदोलित करने में सहायक होता है।  यही वह वजह है जो बीजेपी को चिंता में डाले हुए है। अगर क्षेत्रीय दल और कांग्रेस साथ आकर एक रणनीतिक गठबंधन कर लेते हैं तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका प्रदर्शन प्रभावशाली रहेगा और कई अनुमानों को झुठला देगा।

(कॉपी संपादन : अशोक)

(यह लेख अंग्रेजी में नार्टिंहम विश्वविद्यालय की इकाई एशिया रिसर्च इन्स्टीच्यूट, ब्रिटेन के ऑन लाइन पत्रिका ‘एशिया डॉयलाग’ में प्रकाशित है)


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लेखक के बारे में

आशीष रंजन

लेखक अशोका युनिवर्सिटी में रिसर्च फेलो हैं

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