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मार्क्स का पुनर्पाठ करें विश्व के मार्क्सवादी

आत्मालोचना एक प्रमुख मार्क्सवादी अवधारणा है जिसे कम्युनिस्ट नेताओं नें माला चढ़ाकर दीवार में टांग दिया है। जीवन के अंतिम दिनों में मार्क्सवादी इतिहासकार हॉब्सबाम ने दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों को फिर से मार्क्स को पढ़ने की सलाह दी थी। बीते 16-20 जून 2018 को बिहार की राजधानी पटना में मार्क्स के द्विशताब्दी समारोह में एक बार फिर मार्क्स को पढ़ने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। ईश मिश्र की रिपोर्ट :

बिहार की राजधानी पटना में मार्क्स का द्विशताब्दी समारोह आयोजित, विश्व के सभी द्वीपों से प्रतिनिधि मार्क्सवादी चिंतकों ने लिया भाग

पिछले दिनों (16-20 जून 2018) प्राचीनकाल से ही क्रांति-प्रतिक्रांतियों की धरती, बिहार की राजधानी पटना में एसियन डेवलेपमेंट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) द्वारा ‘मार्क्स: व्यक्तित्व; विचार; प्रभाव’ पर पटना में आयोजित ऐतिहासिक सम्मेलन में शिरकत का मौका मिला। पांच दिनों तक चला यह आयोजन इस लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आज दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां हाशिए पर खिसक गयी हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद, नवउदारवादी बुद्धिजीवी इतिहास और मनुष्य के वैचारिक विकास के अंत की घोषणा कर रहे हैं। इतना ही नहीं प्रतिक्रियावादी ताकतें आक्रामक रूप से मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रही हैं, ऐसे में उनके द्विशताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में, मार्क्स पर पांच दिवसीय सघन संवाद का आयोजन एक अपने आप में एक ऐतिहासिक परिघटना है।

पटना में आयोजित मार्क्स के जन्म के द्विशताब्दी समारोह के पहले दिन लार्ड मेघनाद देसाई को सम्मानित किया गया

आयोजन में सभी महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करते हुए 18 देशों के कई जाने-माने शिक्षाविदों तथा विद्वानों एवं शोधकर्ताओं ने सम्मेलन में शिरकत की।

सम्मेलन की शुरुआत एकेडमिक परामर्श कमेटी के अध्यक्ष,  ‘लॉर्ड’ मेघनाद देसाई के उद्घाटन उद्बोधन से हुई और समापन टोरंटो विश्वविद्यालय के एमेरिटस प्रोफेसर हॉलैंडर के भाषण से हुआ। इस दौरान विभिन्न सत्रों में 38 जाने-माने विद्वानों ने अपने विचार रखे तथा  17 शोधपत्रों की प्रस्तुति की गयी। साथ ही वाद-विवाद के माध्यम से मार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं पर प्रसंगिक विमर्श हुए। वैचारिक एवं व्याख्यागत विविधताओं के बीच से उभरा प्रमुख संदेश, मार्क्सवाद के बारे में प्रचलित इस कहावत के रूप में पेश किया जा सकता है: ‘मार्क्सवाद दुनिया को समझने का एक गतिशील विज्ञान है और बदलने की वर्ग-संघर्ष की क्रांतिकारी विचारधारा’। मार्क्सवाद मानव-मुक्ति का विचार है और मंजिल मिलने तक सार्थक बना रहेगा।

बाबा साहेब डॉ. भीम राव आंबेडकर की कालजयी रचना ‘जाति का विनाश’ अमेजन पर उपलब्ध

गौरतलब है कि पचास साल पहले, 1967 में, बिहार के छोटे से शहर बेगूसराय में मार्क्स के जन्म के 150वीं वर्षगांठ तथा पूंजी के प्रकाशन की सौवीं के उपलक्ष्य में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें देश भर के जाने माने विद्वानों ने शिरकत की थी। उस आयोजन का सारा दारोमदार दो क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों – डॉ. पिजुशेंदु गुप्त तथा प्रोफेर राधाकृष्ण चौधरी के कंधों पर था।

बहरहाल इस बार हुए सम्मेलन में इस बात का संज्ञान तो लिया गया कि बदले भूमंडलीय परिदृष्य में न सिर्फ पूंजीवाद आर्थिक संकट के साथ ही सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है बल्कि उसका विकल्प समाजवाद भी राजनैतिक संकट के साथ सिद्धांत के संकट के दौर से गुजर रहा है। यह सम्मेलन विविध राष्ट्रीय-अंतर्राष्टीय अनुभवों के विभिन्न देशों के जाने-माने विद्वानों के संबोधन के कारण ही नहीं बल्कि विषय-वस्तु तथा व्याख्या की इंद्रधनुषी विविधता के चलते भी ऐतिहासिक था।  कई जाने-माने और कुछ कम जाने-माने मार्क्सवाद के विद्वानों ने मार्क्सवाद के तमाम पहलुओं – मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की नवउदारवादी व्याख्या; विस्थापन से संचय; विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों में मार्क्सवादी सिद्धांतों का इस्तेमाल; भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद आदि मुद्दों पर विचार-विमर्श किया।

समारोह में शामिल विदेशों से आये प्रतिनिधि

संभाषणों और शोधपत्रों के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन यह सम्मेलन इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि इसने विभिन्न मार्क्सवादी परिप्रक्ष्यों और इसके प्रयोग की समीक्षाओं पर व्यापक विमर्श हुआ, लेकिन ‘क्या करना है?’ सवाल अछूता ही रहा। लगता है इसके लिए किसी लेनिन का इंतजार करना पड़ेगा! ऐसा कहना सम्मेलन की आलोचना नहीं है, न ही बहुत ही सफलता से आयोजन को समुचित कार्यरूप देने वाले आयोजकों की, बल्कि आत्मालोचना है, मैं भी सम्मेलन का हिस्सा था, तथा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की समीक्षा प्रस्तुत किया था।

यह भी पढ़ें : आंबेडकर के चिन्तन में मार्क्स

सुविदित है कि आत्मालोचना एक प्रमुख मार्क्सवादी अवधारणा है जिसे कम्युनिस्ट नेताओं नें माला चढ़ाकर दीवार में टांग दिया है। जीवन के अंतिम दिनों में मार्क्सवादी इतिहासकार हॉब्सबाम ने दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों को फिर से मार्क्स को पढ़ने की सलाह दी थी। मार्क्सवाद का सैद्धांतिक और व्यावहारिक विकास आंतरिक तनावों से परिपूर्ण रहा है। यह बहुआयामी अंतर्विरोधों को झेलते हुए हुए नये-नये सवालों से जूझता रहा है, जिनके जवाब खोजने में या तो असफल रहा है, या फिर कभी उन्हें सरलीकृत कोटियों में बांटकर विश्लेषण तक सीमित कर दिया। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने काफी उतार चढ़ाव देखा। इतिहास की अभूतपूर्व गति को समझने में नाकामी के चलते मुख्यधारा के कम्युनिस्टों ने जटिल सवालों के गैर-मार्क्सवादी. फौरी सरल जवाब ढूंढ़ लिया। बावजूद इसके कि सम्मेलन में नव उदारवादी साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा मजदूरों तथा अन्य दलित तबकों के दमन-शोषण; नस्लवादी तथा सांप्रदायिक फासी वाद वाचाल आक्रामकता पर बेचैनी नहीं दिखी, क्रांतिकारी लहरों की उतार की इस बेला में मार्क्स तथामार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं पर लंबा विमर्श एक उत्साहजनक कदम है। नस्लवाद के मुद्दे पर अमेरिका की ब्राउन युनिवर्सिटी के युवा शोध-छात्र जारेद के शब्द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं। उनकी प्रस्तुति आत्मविशवास से लबरेज थी। उन्होंने मार्क्सवाद के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के आधार पर मार्टिन लूथर किंग के ‘मूल्यों की क्रांति’ के अभियान की तार्किक समीक्षा पेश किया। निजी बात-चीत में उन्होंने अश्वेत होने के चलते पीएचडी के बाद नौकरी की कठिनाइयों की चिंता को साझा किया।

सैद्धांतिक रूप से पूंजीवाद ने जन्म-आधारित योग्यता का उन्मूलन कर दिया है, व्यवहार में सर्वव्यापी। कहनी-कथनी (सिद्धांत-व्यहार) का अंतर्विरोध सभी वर्ग समाजों का अंर्निहित गुण रहा है, पूंजीवाद सर्वाधिक विकसित वर्ग समाज है, अतः अंर्विरोध भी सर्वाधिक। भारत में सैद्धांतिक (संवैधानिक) रूप से जातिवाद समाप्त हो चुका है लेकिन जातिवादी मिथ्या-चेतना सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते का एक अवरोधक बना हुआ है।

सभी सत्र मार्क्स, एंगेल्स तथा क्लासिकी अर्थशास्त्रियों एडम स्मिथ और रिकार्डो समेत प्रमुख मार्क्सवादी चिंतकों नाम पर थे, बस स्टालिन और माओ के नाम नदारत थे। हालांकि सम्मेलन में मार्क्सवादियों तथा मार्क्सवाद के विद्वानों द्वारा, विभिन्न, विशिष्ट परिस्थितियों में मार्क्सवादी सिद्धांतों की व्याख्या तथा प्रयोग पर व्यापक चर्चा इस बात की पुष्टि है कि क्रांति के विचार और औजार के रूप में मार्क्सवाद की धारा सदानीरा बनी रहेगी।

मसलन दीपक नैयर ने अपने संबोधन में ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर भूमंडलीकरण के भविष्य का अनुमान लगाया तो दीपांकर गुप्ता ने मार्क्स के पुनर्पाठ के जरिए मार्क्सवाद के पुनर्पाठ पर जोर दिया। जबकि क्रिप्टन जेनसेन ने अमेरिका में अश्वेत मार्क्सवाद के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए बताया कि अश्वेत अमेरिकियों के लिए मार्क्सवाद नस्लवाद से मुक्ति का औजार रहा है। मार्क्स के जीवन के विभिन्न पहलुओं; प्राचीन भारतीय द्वंद्ववाद; डैविड हार्वे के विस्थापन से संचय का सिद्धांत तथा नवउदारवादी ‘आदिम संचय’ के वाद-विवाद; मार्क्सवाद की विभिन्न धाराओं तथा विशिष्ट परिस्थितियों में मार्क्सवाद के सिद्धांतों के ऐतिहासिक प्रयोगों की समीक्षा; मार्क्स की रचनाओं में तथाकथित ज्ञानमामांसीय विच्छेद; मार्क्सवाद का सैद्धांतिक विखंडन तथा पुनर्निर्माण; कम्युनिस्ट आंदोलन में संसदीय संशोधनवाद आदि विषयों पर सत्रों में, विविधता एवं विद्वतापूर्ण विमर्श तथा सघन चर्चाएं हुईं। लेकिन नवउदारवादी पूंजी के चरित्र तथा उसके चलते सांस्कृतिक-बौद्धिक अधिरचनाओं (सुपर-स्ट्रक्चर्स) में तब्दीली की व्याख्या तथा तदनुरूप कार्यनीति के अर्थों में समाजवाद के सैद्धांतिक संकट पर चर्चा की कमी खली। दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षीण होते प्रभाव के कारणों पर भी कोई सार्थक चर्चा नहीं हुई। लेकिन जो नहीं हुआ उन पर चर्चा बेकार है।

(कॉपी एडिटर : सिद्धार्थ/नवल)


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लेखक के बारे में

ईश मिश्रा

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में पूर्व असोसिएट प्रोफ़ेसर ईश मिश्रा सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं

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