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‘जाति का विनाश’ ने बदली थी मान्यवर की जिंदगी

दीना भाना तो बाबा साहब आंबेडकर जी के बारे में जानते ही थे। तो उन्होंने बाबा साहब की लिखी किताब एनिहिलेशन अॉफ कास्ट (जाति का विनाश) मान्यवर कांशीराम जी को दी। उन्होंने उस किताब को रात में तीन बार पढ़ा। तीन बार पढ़ने के बाद उन्होंने यह समझा कि बाबा साहब आंबेडकर जाति-भेद का खात्मा क्यों करना चाहते थे। फारवर्ड प्रेस से बातचीत में मान्यवर के सहयोगी रहे ए. आर. अकेला :

उस पुस्तक का नाम ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ था जिसने मान्यवर कांशीराम को बहुजनों के लिए आंदोलन चलाने को प्रेरित किया। इस किताब के लेखक स्वयं बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। इसका हिंदी अनुवाद फारवर्ड प्रेस बुक्स द्वारा ‘जाति का विनाश’ के रूप में प्रकाशित किया गया है। आज के दौर में इस किताब के महत्व और मान्यवर के बहुजन आंदोलन के बारे में उनके सहयोगी रहे ए. आर. अकेला से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने बातचीत की।

कांशीराम जी के साथ आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

मान्यवर कांशीराम जी को मैं 1985 से समझा। मैं जब अपने गांव में (अलीगढ़ से 22 किलोमीटर दूर) रहता था। उस समय एल.आर. बाली की भीम पत्रिका में बामसेफ और कांशीराम जी की आलोचना प्रकाशित हुई थी। मैंने उसे पढ़ा,  लेकिन उस पर ध्यान न देकर मान्यवर कांशीराम जी को समझने की कोशिश की। 1985 में मैं अलीगढ़ शहर में रहने लगा। उन दिनों मैं गीत लिखता था और गाता भी था। उससे पहले 1984 में मैंने बाबा साहब आंबेडकर के जयंती समारोह के अवसर पर एक गीत गाया।

मान्यवर कांशीराम

दूसरे दिन बामसेफ के कुछ साथी मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि आप अच्छा लिखते हैं, अच्छा गाते भी हैं। तो एक दिन गाने से मिशन का काम पूरा नहीं होगा। आपको बहुजन समाज के लिए बहुत काम करना है। तब उन्होंने बामसेफ के बारे में मुझे ढेर सारी जानकारी दी। उस जानकारी के बाद मेरे मन में कांशीराम जी को सीधे सुनने की चाहत जगी। तब मैं बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी से जुड़ा। मैं अपने गीतों के माध्यम से बहुजन समाज के हित में जागृति गीत गाता था। फिर मुझे अलीगढ़ से डीएस-4 जागृति जत्था का इंचार्ज बना दिया गया।

वर्ष 1986 में मान्यवर कांशीराम जी ने डीएस-4 के बैनर तले बरेली में शराब विरोधी आंदोलन छेड़ा। बामसेफ के बैनर तले शराब विरोधी आंदोलन छेड़ा। उसमें जो उनके मुख्य नारे थे, हम अपनी जनसभाओं में उन नारों को लगाते थे। उस समय उत्तर प्रदेश में और सेंट्रल में भी कांग्रेस की सरकार थी। तो कांशीराम जी ने कहा, “एक तरफ तो सरकार शराब बंदी के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करती है और दूसरी तरफ वह शेड्यूल कास्ट और पिछड़े वर्ग के मोहल्लों में शराब के ठेके खुलवाकर हमें जबरदस्ती शराब पिलाना चाहती है। और हमारे ही उस शराब के पैसे को चुनाव में खर्च करना चाहती है। हमारे शराब के पैसे से ही हमारे वेश कीमती वोट को लूटती है, तो यह नहीं चलेगा। यह जो दोहरी नीति है और यह हमारे बहुजन समाज के लिए बहुत अहितकारी है।”

1986 में यह आंदोलन कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गया। इस आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए मान्यवर कांशीराम जी ने जेल भरो आंदोलन शुरू किया और 1986 में 19 दिन मैं भी बरेली सेंट्रल जेल में बंद रहा। 15 अगस्त को हमें बाइज्जत बरी कर दिया गया। उसके बाद में उन्होंने साइकिल यात्रा निकाली। 5 सितंबर 1986 को पांच हजार साइकिलें बरेली में एकत्रित हुईं। उस दिन (5 सितंबर 1986 को) जब मैंने मान्यवर कांशीराम जी को सुना, तो मैं उनका होकर रह गया।

यह पहला मौका था, जब आपने उनको रू-ब-रू सुना?

जी! यह पहला मौका था।

उनसे व्यक्तिगत बात हुई कभी?

हां, व्यक्तिगत बात भी हुई। फिर (उस भाषण को सुनने के बाद) हम पूरी तरह से बसपा के कार्यकर्ता बन गए। 15 साल तक मैं अलीगढ़ में विधानसभा क्षेत्र का बसपा अध्यक्ष रहा। उन दिनों मान्यवर कांशीराम जी के भाषण देने से पहले हम उनके लिए स्वागत गीत लिखते थे। बहुजन आंदोलन के हिसाब से हम गीत लिखते थे। शराब विरोधी आंदोलन के ऊपर हमने गीत लिखा। कांशीराम जी ने भारतीय किसान मजदूर आंदोलन चलाया। हमने उसके ऊपर लिखा। तो जो जैसा आंदोलन मान्यवर कांशीराम जी चलाते थे, उनके पंफलेंट की थीम को लेकर हम बहुजन गीत लिखते थे।

मान्यवर कांशीराम के सहयोगी ए. आर. अकेला

उस आंदोलन में कांशीराम जी दलितों-पिछड़ों के कौन-कौन से मुद्दों को लेकर चल रहे थे, जो लोगों को प्रेरित करते थे, आगे आने के लिए?

देखिए, मैं पहले थोड़ा-सा अतीत में जाना चाहूंगा। कांशीराम जी पंजाब के रोपण जिले के रहने वाले थे। जब उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई किया, तो उनसे दो हजार रुपए का बॉन्ड भरने के लिए बोला गया। उन्होंने वह बॉन्ड नहीं भरा। उसके बाद में वे 1957 में पुणे के पास स्थित खिड़की जगह है, वहां पर उन्होंने डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) में वैज्ञानिक के रूप में नौकरी शुरू की। 1965 में उनकी जिंदगी में एक ऐसी घटना घटी, जिससे उनका जीवन पूरा बदल गया। उन्होंने देखा कि 1965 में वहां की उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर और बुद्ध जयंती को कैंसिल करके तिलक जयंती और दीपावली की छुट्टी घोषित कर दी। राजस्थान के दीना भाना जी वहां चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। इसके साथ ही 45 लोग उसमें बाबा साहब (महाड़ कम्यूनिटी) की जाति के और थे। अधिकारियों ने उन पर दबाव डाला। दीना भाना जी उस यूनियन के लीडर थे। उन्होंने इसका विरोध किया और कहा कि आपने जो बाबा साहब की जयंती की छुट्टी कैंसिल की है, वह बहुत गलत की है और हम विरोध करेंगे। मान्यवर कांशीराम जी ने जब यह देखा, तो उन लोगों से बात की और पूछा कि भाई आप लोग संघर्ष करोगे भी कि वैसे ही दबाव में आकर अपने घुटने टेक दोगे? तब दीना भाना ने कहा कि सर,मैं बैठूंगा नहीं, संघर्ष करूंगा। दीना भाना तो बाबा साहब आंबेडकर जी के बारे में जानते ही थे। तो उन्होंने बाबा साहब की लिखी किताब एनिहिलेशन अॉफ कास्ट (जाति का विनाश) मान्यवर कांशीराम जी को दी। उन्होंने उस किताब को रात में तीन बार पढ़ा। तीन बार पढ़ने के बाद उन्होंने यह समझा कि बाबा साहब आंबेडकर जाति-भेद का खात्मा क्यों करना चाहते थे।

दरअसल, वह पहला भाषण था बाबा साहब का, जो उन्होंने 1936 में लिखा था और लाहौर में उनको जात-पात तोड़क मंडल के मंच से अध्यक्ष के रूप में देना था, लेकिन यथास्थिति वाली शक्तियों ने उन्हें वह भाषण देने नहीं दिया। तब बाबा साहब ने अपने पैसे से उस भाषण को किताब की शक्ल में प्रिंट कराया और अपने समाज के लोगों में (बहुजन समाज में) वह किताब गई।

डॉ. आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति का विनाश’ अमेजन पर उपलब्ध

कांशीराम जी के समय में जो जन आंदोलन के मुद्दे थे, क्या वो मुद्दे अभी हैं?

वो मुद्दे आज भी हैं और मैं बताना चाहता हूं कि मान्यवर कांशीराम जी का जो त्याग है- बहुजन आंदोलन बनाने का, वह बहुत बड़ा है। जब 1965 (डीआरडीओ) वाली घटना घटी, तो उस केस को मान्यवर कांशीराम जी अदालत तक ले गए और अपने पैसे से वह केस लड़ा। अंततः बाबा साहब आंबेडकर की जयंती और बुद्ध जयंती की छुट्टी बहाल की गई और दीना भाना को बहाल किया गया। फिर उन्होंने यह तय किया कि जिस देश में जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर बहुजन समाज के लोगों के साथ अन्याय और अत्याचार होता है। उनको जानवरों की तरह जीने के लिए मजबूर किया जाता है। उनको अपमानित किया जाता है। ऐसे समाज के लिए मैं कभी शादी नहीं करूंगा। मैं कभी बैंक अकाउंट नहीं खोलूंगा। मैं कभी अपने घर नहीं जाऊंगा। मैं किसी के मरण दिन या जन्मदिन में नहीं जाऊंगा और यह सबूत है, उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी। जब उनके पिताजी श्री हरि सिंह जी का देहांत हुआ, तो अरथी को वह कंधा लगाने तक नहीं गए। इसीलिए बहुजन समाज को यह विश्वास हो गया कि बाबा साहब आंबेडकर के आंदोलन को कांशीराम चला सकते हैं। और लोग उनसे प्रभावित होकर के जुड़ते गए और कारवां बनता गया।

बसपा प्रमुख मायावती के साथ मान्यवर कांशीराम (फाइल फोटो)

यदि हम 90 की राजनीति की बात करें 1989 जो में जो चुनाव हुए, उसमें कांशीराम जी दो जगह से खड़े हुए। एक तो दिल्ली से और दूसरा अमेठी से। संभवतः राजीव गांधी के खिलाफ खड़े हुए थे वो, दोनों जगह से हार हुई। उस समय राजनीतिक स्थिति के बारे में जो कैंपेन होते थे, वो कैंपेन कैसे करते थे ? उसका क्या तरीका होता था? क्या एजेंडा होता था? उसके बारे में भी बताएं।

देखिए, बाबा साहब आंबेडकर ने चुनौती समझकर इस (अपने) मूवमेंट (आंदोलन) की शुरुआत की। 1925 में आरएसएस की स्थापना हुई, तो बाबा साहब आंबेडकर ने समता समाज संघ का निर्माण किया और वह भी नागपुर से ही किया। जैसा कि आरएसएस का जन्म नागपुर मैं हुआ, उसका हेड क्वार्टर नागपुर (मुख्यालय) में था। बाबा साहब आंबेडकर ने भी अपना (समता समाज संघ का) हेड क्वार्टर नागपुर में बनाया, अपनी कर्मभूमि नागपुर को बनाया। मान्यवर कांशीराम जी ने भी बाबा साहब के नक्शे-कदम पर चलते हुए, आरएसएस का एक बहुत बड़ा नाम वीर सावरकर, उनकी जन्मभूमि देवलाली (नासिक) में बामसेफ बनाकर 1978 में सात दिन का कैडर शुरू किया (17 दिसंबर 1978 से 23 दिसंबर 1978 तक)। ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’(जाति का विनाश) को पढ़कर कांशीराम जी ने यह महसूस किया कि बाबा साहब जैसी महान प्रतिभा को यह एनिहिलेशन आफ कास्ट लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? वह इसलिए कि जब बाबा साहब को बड़ौदा नरेश ने वापस बुलाया एग्रीमेंट के हिसाब से, तो उनको प्रदेश स्तर का बड़ा अधिकारी बनाया। लेकिन, सयाजीराव गायकवाड उनको मकान नहीं दे पाए (सवर्ण शक्तियों के वर्चस्व और दबाव के चलते)। यह बड़ा सवाल है कि राजा होते हुए भी गायकवाड़ जी डॉक्टर आंबेडकर को रहने के लिए 10 बाई 10 का छोटा-सा कमरा वो नहीं दे पाए, तो बाबा साहब नौकरी कैसे करते? फिर उन्होंने प्रयास किया और वहां एक पारसी होटल में रुके, तो वहां भी हिंदू लाठी लेकर पहुंच गए। तब बाबा साहब आंबेडकर जी एक पार्क में बैठकर दुखी होकर विचार करते हैं कि आखिर मेरे अंदर ऐसी क्या कमी है कि मुझे प्रदेश का एक बड़ा अधिकारी होने के बाद भी घृणित दृष्टि से देखा जाता है? एक चपरासी भी मेरी फाइल दूर से फेंखता है। यह सोचते-सोचते उनके आंसू निकल आए और उन्होंने समझा कि यह जाति की बीमारी है और तय किया कि यदि मैं इस अस्पृश्यता को खत्म नहीं कर सका, तो मैं गोली मारकर आत्महत्या कर लूंगा। लेकिन जाति के बारे में बाबा साहब आंबेडकर यह नहीं कहते हैं- एनिहिलशने आफ कास्ट में भी, कि मैं इस जातिवाद को खत्म कर दूंगा। क्योंकि वो जानते थे कि यह जाति व्यवस्था खत्म नहीं हो सकती है। बाबा साहब आंबेडकर ने ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में यहां तक कहा कि हिंदुओं को अपने धर्म ग्रंथों को, जो जाति की बात करते हैं, डायनामाइट से उड़ा देना चाहिए।

आप काशीराम जी के साथ में रहे और एक लंबा समय आपने उनके साथ बिताया। जैसा कि आपने कहा कि बाबा साहब आंबेडकर ने अस्पृश्यता का दंश झेला। क्या ऐसा कोई वाकया काशीराम जी के साथ हुआ?

नहीं। वह इसलिए अस्पृश्यता का शिकार नहीं हुए, क्योंकि पंजाब के रहने वाले थे और पंजाब में अस्पृश्यता नहीं है। साथ ही उनकी पर्सनालिटी ऐसी थी कि देखने वाले लोग उनको ब्राह्मण समझते थे। लेकिन, मान्यवर कांशीराम जी ने जब एनिहिलेशन आफ कास्ट का विश्लेषण किया, तो कहा कि बाबा साहब जाति के बहुत खिलाफ रहे और ठीक भी रहे। बाबा साहब का एक लेख 1916 में भारत में जातिवाद : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास नाम से है और उनकी इच्छा थी कि अगले आम संस्करण एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में हम इस लेख को जोड़ेंगे कि जाति है क्या? लेकिन, वह लेख नहीं जुड़ पाया। मान्यवर कांशीराम जी ने भी यह समझा कि हम जाति खत्म नहीं कर सकते। क्योंकि, जाति की भावना चमार के अंदर भी है। भंगी के अंदर भी है। ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर के अंदर भी है। उन्होंने कहा कि हम जाति को खत्म नहीं कर सकते, तो और क्या कर सकते हैं? अपने बहुजन समाज में जाति के नाम से हम और क्या कर सकते हैं? तो उन्होंने सोचा और बताया कि हम जाति का नोट लेकर के दबे-कुचले वर्गों को न्याय दिलाएंगे, उन्हें आगे बढ़ाएंगे। क्योंकि, जब केवल साढ़े तीन प्रतिशत ब्राह्मण इस देश का मालिक बन सकता है। प्रधानमंत्री बन सकता है, तो 15 प्रतिशत वाला चमार इस देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता?

यह तो वह दौर था कि जब आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की शुरुआत मान्यवर कांशीराम जी ने की?

उन्होंने इसीलिए कहना शुरू किया कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। 52 प्रतिशत लोग, जो पिछड़े वर्ग के लोग हैं, उनके लिए कुछ भी नहीं है। चलो बाबा साहब आंबेडकर के प्रयासों से आरक्षण के नाम पर शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स को तो नौकरियां मिलीं। कुछ आईएएस बने, आईपीएस भी बने। लेकिन, जो देश का बहुत बड़ा भाग है, जिसको हम ओबीसी कहते हैं, उसके लिए तो कोई बात शुरू ही नहीं हुई। तो उन्होंने कहा कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। ‘जो बहुजन की बात करेगा, वह दिल्ली से राज करेगा’।

एक बात यहां पर समझ में आती है कि मान्यवर कांशीराम जी ने जो दलित-बहुजन तबका है, जिसमें कि दलित भी थे, आदिवासी भी थे और ओबीसी थे। उनको साथ लेकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया। लेकिन, बाद में जो बहुजन समाज पार्टी है, वह दलितों तक सीमित होकर रह गई लगता है। क्या वजह है इसके पीछे?

वर्तमान परिपेक्ष में बहुजन आंदोलन की जो दशा और दिशा है, उस पर मुझे बहुत तरस आता है। क्योंकि, जिस आंदोलन के लिए बहुजन समाज पार्टी बनाई गई- जैसा कि कांशीराम जी का बहुजन आंदोलन चलाने का इतिहास आप देखें, तो आप देखेंगे कि उन्होंने 14 अप्रैल 1980 से बहुजन संगठक नाम से एक साप्ताहिक समाचार पत्र शुरू किया, जिसके लिए मैं काम कर रहा हूं। उसमें उनके भाषण छपते थे। इसके अलावा कांशीराम जी ने 15 मार्च 1980 को अपने जन्मदिन पर मराठी में एक साप्ताहिक समाचार पत्र बहुजन नायक शुरू किया। उन्होंने बहुजन उत्थान जैसी तमाम पत्रिकाएं भी निकालीं। इसके अलावा कुछ दिन के लिए ही सही बहुजन टाइम डेली न्यूज पेपर भी निकाला। वो बहुजन संगठक के संपादकीय लेख में पहली ही लाइन में लिखते हैं कि ‘बहुजन हिताय,  बहुजन सुखाय’। लेकिन आज सर्वजन की बात हो रही है। आज ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की बात हो रही है। यह कैसे हो गया?

(लिप्यांतरण संपादन : प्रेम बरेलवी, कॉपी एडिटर : प्रेम बरेलवी/अशोक)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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