h n

किस परंपरा के हैं जेएनयू में पकौड़ा तलने वाले?

ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने श्रम को जाति के साथ जोड़ दिया और श्रमिक जातियों को हेय ठहराया दिया। इसके परिणामस्वरूप सचेतन और अवचेतन तौर पर श्रम को हेय दृष्टि देखने की मानसिकता निर्मित हुई। जूता साफ करके या पकौड़ा छान करके विरोध प्रकट करना इस मानसिकता का परिणाम है, बता रहे हैं अनिल कुमार :

मूल प्राचीन भारतीय संस्कृति में श्रम का महत्त्व था और उसकी प्रतिष्ठा थी। यही कारण है कि उस समय कई महान सभ्यताओं ने जन्म लिया और स्थापत्य कला, मूर्ति कला, कृषि, साहित्य और दर्शन के साथ-साथ कई विधाओं ने जन्म लिया और उसका विकास हुआ, जिसमें श्रम की महत्ता, प्रतिष्ठा, और सांसारिकता को प्रमुखता दी जाती थी। लेकिन बाद में जब ब्राह्मण और आर्य संस्कृति का प्रभाव और प्रभुत्व बढ़ा तब भारत में श्रम की महत्ता और सम्मान में उत्तरोत्तर कमी आती गई। ब्राह्मण किताबों (जिसे वे धर्मशास्त्र कहतें हैं) में परलौकिकता और पुरोहितवाद की श्रेष्ठता स्थापित करने पर विशेष ध्यान दिया गया और श्रम करने वाले समुदायों को नीच समुदाय के रूप में प्रत्यारोपित और स्थापित किया गया। भारतीय सन्दर्भ में धर्म का अर्थ प्रकृति और स्वभाव से लिया जाता है। जैसे मानव धर्म, जल का धर्म, आग का धर्म, बिच्छू का धर्म, राज धर्म, साधु धर्म, शिक्षक धर्म आदि। इस दृष्टि से देखें तो ब्राह्मण किताबें उनके वास्तविक धर्मशास्त्र थे।

जैसे-जैसे ब्राह्मण संस्कृति के लोग मजबूत होते गए वैसे-वैसे ब्राह्मण संस्कृति और उसके मूल्य भी समाज में मजबूत होते गए। इसके कारण वह एक “आदर्श मूल्य” के रूप में स्थापित होता गया। इसलिए नहीं कि मानवीयता के आधार पर उसमें कोई “आदर्श” या “मूल्य” था बल्कि इसलिए कि यह सहज मानवीय कमजोरी है कि सत्ता और शक्ति के आदर्श, मूल्य और संस्कृति स्वतः ही उसके लिए “आदर्श” बन जाते हैं। जब वह वहाँ नहीं पहुँच पाता है या उस सामाजिक हैसियत को हासिल नहीं कर सकता है तब वह उसके सांस्कृतिक प्रतीकों की नक़ल करके उसके करीब होने का अनुभव करता है। (भारतीय सन्दर्भ में इसे समझने के लिए यह लेख पढ़ें – कुमार, अनिल, 2017, महिषासुर आन्दोलन की सैद्धान्तिकी : एक संरचनात्मक विश्लेषण, प्रमोद रंजन (संपादक) महिषासुर : मिथक व परम्पराएं, नई दिल्ली : द मार्जिनलाइज्ड, पृष्ठ: 185-205. फारवर्ड प्रेस(इस पुस्तक को खरीदने के लिए यहां क्लिक करें)।

सामाजिक सम्मान, श्रम का सम्मान, और लौकिक दर्शन गैर-ब्राह्मण सामाजिक आन्दोलनों का प्रमुख विषय रहा है (मैंने यहाँ गैर-ब्राह्मण शब्दावली का प्रयोग किया है, ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद विरोधी नहीं। सामाजिक आन्दोलनों को ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद विरोधी, कहना या मानना ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद को शक्तिशाली और श्रेष्ठ मानना और स्थापित करना है।) यह अकारण नहीं रहा होगा कि रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त 1923 – 19 अगस्त 1998) ने जब सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए संगठन बनाया तो उसका नाम अर्जक संघ (स्थापना 1 जून 1968) रखाl उनका मानना था कि कुछ विचार, कुछ दर्शन, श्रम, श्रमण, और श्रमिक को श्रेष्ठ नहीं मानती है। कालांतर में यह विचार कि श्रम से अर्जन करना श्रेष्ठ नहीं है, इसलिए ऐसा करने वाले समुदाय और जातियां निम्न (स्तर के) हैं, उनके सचेतन और अवचेतन मस्तिष्क में भी चला गया। इस तरह जिन समुदायों और जातियों का विभिन्न प्रकार का श्रम ही पेशा था, उन्हें समाज में निम्न समझा जाने लगा।

जाति का विनाश( लेखक डॉ. भीमराव आंबेडकर, हिंदी अनुवादक राजकिशोर) बिक्री के लिए अमेजन पर उपलब्ध

आज यही विचार भारतीय समाज के सामान्य सचेतन और अवचेतन में चला गया है, जिसमें हर कोई यह समझता है कि दूसरों का काम आसान, कमतर और कभी-कभी नीच है। ऐसा करते हुए कई बार उसे मालूम होता है कि वह क्या कर रहा है, तो कभी मालूम भी नहीं होता है, क्योंकि वह उसके “सोचने की संस्कृति” का हिस्सा बन चुका होता है।

प्राचीन भारत से लेकर मध्यकाल तक जब ब्राह्मणों और द्विजों का सामाजिक वर्चस्व नहीं था तब हम देखतें हैं कि औषधि से लेकर स्थापत्य कला तक में भारत के आदिवासी, पूर्ववासी और श्रमण समुदायों-जातियों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जबकि आज ब्राह्मण और द्विज जातियों विशेषकर ब्राह्मण जातियों को लगता है कि वही ज्ञान के स्रोत हैं, और विशेषकर यूनिवर्सिटी में गैर ब्राह्मण और गैर द्विज के आने से ज्ञान का क्षेत्र कमजोर होगा या फिर सरकारी संस्थानों में प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सुनिश्चित करने से उसकी कार्यक्षमता में कमी आएगी। साथ ही वे बहुत प्रबलता से यह सोचते हैं कि प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से उनका हक़ मारा जाएगा, और वे बेरोजगारी के शिकार हो जायेंगें।

हाल ही में जेएनयू में विरोध स्वरूप पकौड़ा तलते छात्र

ताजा विवाद 2018 की सर्दियों में कांग्रेस पार्टी के स्टूडेंट्स विंग नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया (एनएसयूआई) द्वारा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में पकौड़ा बनाकर बेचने का है। ऐसा करने के जुर्म में 13 जुलाई को जेएनयू प्रशासन ने उन पर जुर्माना लगाया। यहां मैं स्पष्ट कर दूँ कि जुर्माना श्रम का अपमान करने के कारण नहीं बल्कि यूनिवर्सिटी के नियम तोड़ने के कारण लगाया गया है। यूनिवर्सिटी कैंपस में किसी भी तरह की गतिविधि के लिए अनुमति लेना होता है। यूनिवर्सिटी ने जुर्माना यातायात बाधित करने, सुरक्षा व्यवस्था में बाधा और अनुमति के बिना कार्यक्रम करने के लिए लगाए हैं। इस कार्यक्रम में शामिल मनीष मीणा पर भी जुर्माना लगाया है, जिन्होंने फेसबुक पर अपने कमेंट में बताया कि उनका इरादा श्रम का अपमान करने का नहीं था। लेकिन उन्होंने बाकी बिंदुओं पर कुछ नहीं कहा। पर गैर इरादतन अपराध भी अपराध ही माना जाता है। यहाँ विरोधस्वरूप पकौड़ा बनाकर बेचने को मैं अपराध नहीं बल्कि सामाजिक-मानसिक स्थिति मानकर विश्लेषण कर रहा हूँ, जो उनके सचेतन में न सही अवचेतन में तो है ही।

भारत के सचेतन और अवचेतन मानसिकता में श्रम के अपमान के बिंदु पर आने से पहले हम कुछ जातीय और शैक्षणिक तथ्य और उदहारण देख लें, कि यह दंभ और अहंकार कहाँ से आता है, इसका स्रोत क्या है, ये कौन लोग हैं, और यह भारतीय समाज में कितने गहरे तक जा चुका है और यह कितनी गंभीर समस्या है।

जब प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने 7 अगस्त 1990 को अन्य पिछड़ा वर्ग को केन्द्रीय नौकरियों में 27% प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सुनिश्चित करने की घोषणा की थी तब उसके विरोध में ब्राह्मणों और द्विज जातियों ने सडकों पर जूता पॉलिश करके और झाड़ू लगाकर उसका विरोध किया था। हिंसक विरोध और आत्मदाह भी हुआ था। तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने जब 16 मई 2006 को केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों, शिक्षकों, और स्टाफ के लिए 27% आरक्षण देने की घोषणा की थी तब भी ऐसी ही प्रतिक्रिया हुई थी। 1990 में जहाँ इसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने नेतृत्व प्रदान किया था वहीँ 2006 में इन लोगों ने एक नया संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी बनाई जिसने केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का विरोध किया। विरोध का तरीका 1990 के समान ही था – सड़कों पर जूता पॉलिश करना और झाड़ू लगाना।

मौलिक सवाल यह है कि इन लोगों ने विरोध प्रदर्शन जूता पॉलिश करके और झाड़ू लगाकर ही क्यों किया? 2018 के शुरू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि पकौड़ा बनाकर बेचना भी रोजगार है, यह भी एक आजीविका है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा था कि सभी युवक पकौड़ा ही बनायें और यही एकमात्र रोजगार है। इस पर कुछ युवकों ने पकौड़ा बनाने को प्रधानमंत्री मोदी के विरोध का एक हथियार बना लिया। कांग्रेस के संजय निरुपम ने महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करने के लिए पकौड़ा बनाना चुना तो उसके स्टूडेंट्स विंग एनएसयूआई ने जेएनयू में पकौड़ा बनाकर प्रधानमंत्री मोदी का विरोध किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

विरोधस्वरूप जूता पॉलिश करना, सड़कों पर झाड़ू लगाना और पकौड़ा बनाना यह सब श्रम का अपमान है।

विरोध के इन प्रकारों में एक अहंकार छुपा है, एक अघोषित जातीय श्रेष्ठता छुपी है, और जूता पॉलिश करनेवालों, झाड़ू लगानेवालों, और पकौड़ा बनानेवालों, जैसे कार्य करनेवालों के प्रति एक तिरस्कार छुपा है। इसके पीछे एक जातीय अहंकार भी है, क्योंकि इन कार्यों को करने के लिए जातियाँ निर्धारित हैं या कहें कि वे अपने पुश्तैनी कार्य ही करते रहें, इसके लिए उनको बाध्य किया जाता रहा है। उनको जाति-निरपेक्ष या गैर-पारंपरिक कार्यों को करने से रोका जाता रहा है।

अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि शोषित-वंचित समाजों को आरक्षण सुनिश्चित करने से आर्य समाजों विशेषकर ब्राह्मण समाज में बेरोजगारी आएगी तब वे विरोधस्वरूप सड़कों पर जूता पॉलिश करने या सड़कों पर झाड़ू लगाने का काम क्यों करतें हैं? उन्हें तो बाल मुडवाकर, चोटी/चुंदी रखकर, धोती पहनकर, एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में पोथी लेकर विरोध करना चाहिए था। उन्हें समाज और सरकार को बताना चाहिए कि अगर शोषित-वंचित समाजों को आरक्षण सुनिश्चित किया गया तब उन्हें वापस अपने पारंपरिक पेशे में जाना होगा। लेकिन ऐसे विरोध प्रदर्शन नहीं होते हैं। अगर वे ऐसा विरोध प्रदर्शन करते हैं, तब समाज में यह स्थापित होगा कि पुरोहिताई एक नीच काम है और इस काम से जो जातियाँ सीधे-सीधे जुडी हैं, वे निम्न या नीच जाति की हैं। इसलिए यह समाज, विरोधस्वरूप प्रदर्शन में सड़कों पर जूता साफ़ करता है झाड़ू लगाता है। इस विरोध प्रदर्शन में भी उसके जातीय अहंकार और जन्मना श्रेष्ठता की संतुष्टि होती है।

चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय को अनुदान नहीं दिये जाने के विरोध में जूता पालिश कर विरोध करते छात्र

इसे दूसरे तरीके से भी समझें। जो जातियां मुख्य रूप से जूता बनाने, जूता पॉलिश करने और झाड़ू लगाने का काम करती हैं क्या उन्होंने कभी अपने अधिकारों के लिए ऐसे ही विरोध प्रदर्शन किये हैं?

इसे तीसरे तरीके से समझने की कोशिश करें कि गैर-ब्राह्मण, गैर-आर्य समाज के साथ-साथ जो लोग जातीय या पेशागत दृष्टिकोण से जूता बनाने, जूता पॉलिश करने, झाड़ू लगाने का काम नहीं करते हैं, क्या उन्होंने कभी भी अपनी मांगों को लेकर ऐसा ही प्रदर्शन कभी किया? इसमें अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग दोनों शामिल हैं।

प्रधानमंत्री ने 19 जनवरी 2018 को जी न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि ‘रोजगार सिर्फ वह नहीं है जो सरकार किसी को सीधे-सीधे मुहैया कराती है। हमारी सरकार स्वरोजगार के लिए भी लोगों को प्रोत्साहित कर रही है। जब कोई व्यक्ति स्वरोजगार की तरफ बढ़ता है तब वह सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी रोजगार के अवसर पैदा करता है, दूसरों को भी रोजगार देता है। कोई व्यक्ति सुबह दूकान पर आता है और पकौड़े बेचकर शाम को 200 रुपये का मुनाफा लेकर अपने घर चला जाता है। क्या इसका कहीं कोई रजिस्टर मेंटेन होता है कि फलाने आदमी का पकौड़ा बनाने का रोजगार है, और उसे इतनी आमदनी हुई है? कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं होता है। लेकिन वह रोजगार है। इसे मैं आपको ऐसे समझाता हूँ कि बैंकों में करोड़ों नए खाते खुले हैं, उसमें करोड़ों रुपये जमा हुए हैं, बैंक खाते में पैसा उन्होंने खुद जमा किया है। इससे साबित होता है कि रोजगार बढे हैं, लोगों की आमदनी बढ़ी है।’ इंटरव्यू में प्रधानमंत्री रोजगार के कई सेक्टरों की बात करतें हैं और पूरे इंटरव्यू में कहीं भी यह नहीं कहते कि बेरोजगार युवकों को पकौड़े की दूकान लगानी चाहिए या सिर्फ पकौड़े की ही दूकान लगानी चाहिए। सिर्फ पकौड़ा बनाना ही रोजगार है।

फिर वे कौन लोग थे जिन्हें लगा कि प्रधानमंत्री बेरोजगारी दूर करने के लिए युवकों को (सिर्फ) पकौड़ा बनाने के लिए कह रहें हैं और यह काम उनके सम्मान के विरुद्ध है? क्या इसके पीछे सचेतन और अवचेतन में कोई जातीय श्रेष्ठता, पढ़े-लिखे होने का गुमान छुपा है? मुझे लगता है इसमें पढ़े-लिखे होने का गुमान सचेतन में तो छुपा है लेकिन अवचेतन में जातीय श्रेष्ठता का भाव ही है।

इसे हम कुछ ऐसे उदाहरणों द्वारा भी समझ सकतें हैं जिसकी चर्चा पूरे देश में हुई थी या होती है, जिससे आमजन परिचित हैं। बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924-17 फरवरी 1988) ने जब मुंगेरीलाल समिति (1971-1977) की रिपोर्ट 1978 में लागू करते हुए शोषित-वंचित समाजों (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए सरकारी नौकरियों में 26% और शैक्षणिक संस्थानों में 24% प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सुनिश्चित किया तो उन्हें सरेआम गालियाँ दी गई थी। और ये गालियां जाति निरपेक्ष नहीं थीं। उनकी मां, बहन, बेटी, बहू को नारों की शक्ल में गालियाँ दी गई – “ये आरक्षण कहां से आई : कर्पूरिया की माई बियाई”; “कर कर्पूरी कर पूरा : छोड़ गद्दी, धर उस्तरा”; “एमए-बीए पास करेंगे : कर्पूरिया को बांस करेंगे”; “दिल्ली से चमड़ा भेजा संदेश : कर्पूरी बार (केश) बनावे, भैंस चरावे रामनरेश।”

यह भी पढ़ें : हिन्दी पट्टी के समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर

इसमें वे कह रहें हैं कि कर्पूरी ठाकुर अपने पारंपरिक व्यवसाय में वापस जाएँ, मुख्यमंत्री बनना उनका काम नहीं है, मुख्यमंत्री के रूप में सबके साथ (वास्तव में हमारे साथ) न्याय नहीं कर सकतें हैं, क्योंकि सामाजिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सुनिश्चित करने से उनको मिलने वाली नौकरियों में कमी आएगी। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि सामाजिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के परिणामस्वरूप सरकारी नौकरियों की संख्या में जो कमी आएगी उसके कारण उनको पुरोहिताई करनी पड़ेगी।

एक जनसभा को संबोधित करते कर्पूरी ठाकुर (फाइल फोटो)

इसलिए कर्पूरी ठाकुर शोषित-वंचित समाजों में चेतना जगाने के लिए अपने भाषणों में अक्सर बोलते थे – “उठ जाग मुसाफिर भोर भई : अब रैन कहां जो सोवत हई।”

झारखंड का अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस प्रश्न के जवाब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के यशवंत सिन्हा, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री हैं, ने 2 जुलाई 2014 को पत्रकारों को कहा था कि “कोई भी चुतिया सीएम (मुख्यमंत्री) बन जाए, क्या फर्क पड़ता है?” – उस समय तक झारखंड में सिर्फ आदिवासी समुदाय से ही, मुख्यमंत्री बने थे। सिन्हा मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन इसकी कोई संभावना नहीं थी। सवाल यह है कि क्या आदिवासी मुख्यमंत्री बनने लायक नहीं होता है?

अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी के नेतृत्व में दिल्ली के रामलीला मैदान में “आन्दोलन” चल रहा था। रामलीला मैदान के जनसभा में (ब्राह्मण) कुमार विश्वास ने मंच से कहा था कि “जिन्हें भैंस चराना था, वो सरकार चला रहें हैं।” इशारा बिहार के लालू प्रसाद यादव की तरफ था। उनको अपने पुस्तैनी पेशे की याद दिलाकर कहा जा रहा था कि अन्य पिछड़ा वर्ग का काम सरकार चलाना नहीं है, क्योंकि उस समय वे बिहार के मुख्यमंत्री नहीं थे।

गौर कीजिए कि (ब्राह्मण) कुमार विश्वास ने सीधे-सीधे यह नहीं कहा कि जब आप राज-काज चलाएंगे तब उनके समाज को पुरोहिताई करनी पड़ेगी। लेख के पहले भाग में इसका विश्लेषण किया जा चुका है।

भगवतिया देवी और फूलन देवी जब चुनाव जीतती हैं तब भी वही प्रतिक्रिया होती है, जो बाल गंगाधर तिलक और उनके समाज ने सौ वर्ष पहले कहा था कि इन जातियों का सदन में क्या काम है? ये कानून बनायेंगें? जीतन राम मांझी जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तब उनको भी अपमान सहना पड़ा था। इसके पीछे की मानसिकता यह है कि इन जातियों के लिए तो पहले से ही काम निर्धारित है।

यह सब कुछ और नहीं बल्कि श्रम का अपमान है। जाति विशेष को उसके पुस्तैनी काम-धंधे के साथ बांधना है।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, और भाजपा की स्मृति ईरानी के बारे में सोशल मीडिया में अक्सर कहा जाता है कि ये दोनों पहले होटल में खाना परोसती थीं।

सोनिया गाँधी और स्मृति इरानी का उदहारण यह बताता है कि पहले आप “निम्न” काम करते थे, तो अब आप “उच्च” क्लब में कैसे आ गए? यह किस बात का अहंकार है?

जूता बनानेवाला, जूता पॉलिश करनेवाला, पकौड़ा बनानेवाला, होटल में काम करनेवाला, क्या खानदानी रूप से वही करता रहेगा? क्या उसे अपना व्यवसाय बदलने का अधिकार नहीं है? ब्राह्मण और आर्य जूता क्यों नहीं बनायेंगें, जूता पॉलिश क्यों नहीं करेंगें, पकौड़ा क्यों नहीं बनायेंगें, होटल में काम क्यों नहीं करेंगें, होटल में बर्तन साफ़ क्यों नहीं करेंगें? यह काम किसी और (जाति) के लिए निर्धारित है, यह विचार और अहंकार कहाँ से आता है?

अब जेएनयू की तरफ देखतें हैं, जहाँ कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने जेएनयू कैंपस में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा सरकार की नीतियों के विरोधस्वरूप पकौड़ा बनाकर बेचा।

जेएनयू की यह संस्कृति नहीं है कि वह श्रम का अपमान करे। जेएनयू श्रमिकों और श्रम के उचित सम्मान और दाम के लिए हमेशा लड़ता रहा है। अगर हम इसके जातीय पक्ष को लें तब भी जेएनयू ने हमेशा उसके सम्मान और हक़ के लिए लड़ा है। ये लोग जेएनयू में एडमिशन तो ले लिये लेकिन इसकी संस्कृति को न समझ सके और न ही इसे अपना सके। इसका एक कारण यह भी है कि जेएनयू की संस्कृति उन तक ठीक से पहुंची ही नहीं। इस संस्कृति के उत्तरोत्तर प्रसार न होने और समाप्ति की ओर बढ़ने के लिए दलित-पिछड़े की गलत, भ्रामक और छोटे परिदृश्य की उभरती राजनीति और जेएनयू के चरमपंथी/अतिवादी वामपंथी राजनीति जिम्मेदार है। इन लोगों ने महत्त्वपूर्ण विषयों पर बहस को कुचला है। जेएनयू के अन्दर प्रारंभ से ही अलग-अलग अवसरों पर विशेष रूप से मानवाधिकार दिवस के दिन मृत्युदंड का विरोध होता रहा है। लेकिन अगर मृत्युदंड का विरोध किसी आरोपी आतंकवादी के जन्मदिन या मृत्युदिवस को सेलिब्रेट करके किया जाए तो समाज में इसका गलत सन्देश जाएगा ही और ऐसा ही हुआ। ऐसे कई घटनाओं के बाद जेएनयू में बहस, विचार-विमर्श, चर्चा-परिचर्चा, नाटक, डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म दिखाने आदि की संस्कृति लगभग खत्म हो गयी, या फिर खत्म होने के करीब पहुँच गयी।

इन लोगों का एकसूत्री कार्यक्रम है, ब्राह्मणों को गरियाना, सिर्फ आरक्षण पर बात करना, और सदाबहार विषय जो अतिवादी वामपंथी को भी बहुत भाता है – मोदी को गरियाना। अगर इस सबसे थोड़ा समय बच गया तो पूंजीवाद को भी गरिया देना। पहले जेएनयू में जो विमर्श की विविधता थी अब उसमें कमी आई है और अब वह ख़त्म होने के कगार पर है। इसलिए इसकी संस्कृति अगली पीढ़ी तक नहीं पहुँच रही है।

जेएनयू के जिन लोगों ने पकौड़ा बनाकर सरकार का विरोध किया, श्रम का अपमान किया, उनको जेएनयू की संस्कृति की जानकारी नहीं है। जेएनयू में एक मामू ढाबा है। मामू जेएनयू से पी.एच.डी. हैं, और वे पकौड़ी बनातें हैं। ताप्ती होस्टल के पीछे एक दुकान है और इसको चलाने वाले भी जेएनयू से पी.एच.डी. हैं। इतना ही नहीं एसएसएस-I के फोटोस्टेट वाले दादा, अकादमिक किताबों और अकादमिक बहस के अच्छे जानकार हैं। जेएनयू के अंदर जवाहर बुक डिपो है, दादा किताब बेचते हैं, लेकिन इन बच्चों से ज्यादा जानकारी रखतें हैं। पुराने प्रोफ़ेसर भी इनसे अदब से पेश आते हैं। इन संस्कृतियों के बीच जेएनयू से एमफिल-पीएचडी कर रहे ये बच्चे जेएनयू में पकौड़ा क्यों बना रहे थे? इसके पीछे की मानसिकता यही थी न कि यह छोटा या नीच काम है।

मुझे याद आ रहा है शायद वेनेज्वेला के प्रधानमंत्री का धान रोपते हुए फ़ोटो आया था। भूटान के राजा बच्चों के लिए बन रहे खाने के लिए आलू या प्याज काट रहें थे। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो ने 21 फरवरी 2018 को स्वर्ण मंदिर में रोटी बनाया। मैं खुद गुरुद्वारे गया हूँ, जहां श्रम का सम्मान है। जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे और एक बार काम से घर लौटे तो बारिश हो रही थी। उन्होंने वहाँ मौजूद एक महिला स्टाफ जिसके पास छाता नहीं था, को भी अपने छाते में ले लिया, छाता महिला के ऊपर ज्यादा था ताकि वह न भींगे और ऐसा करते हुए बराक ओबामा कुछ भींग भी गए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर का कार्यकाल जब खत्म हुआ तब उनके बच्चों ने भी सरकारी घर खाली करने के क्रम में घर का सामान बाहर निकाला और उसको ढोया।

इसलिए जेएनयू कैंपस में या दुनिया में कहीं भी, विरोधस्वरूप जूता साफ करना, झाड़ू लगाना, पकौड़ी बनाना यह सब श्रम का अपमान है, अहंकार है, जातीय-वर्गीय-फॉर्मल एजुकेशन जैसे झूठी श्रेष्ठता का भाव है। ऐसे में आप उसके बारे में भी नहीं सोचते हैं जिसे स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला। लेकिन आपको घमंड है कि आप जेएनयू से पढ़ाई कर रहें हैं, इसलिए आप तीसमार ख़ाँ हैं। आप पढ़ाई इसलिए कर रहें हैं या कर पा रहें हैं कि आपको इसका मौका मिला है न कि आपमें जातीय, पारिवारिक या वैयक्तिक बायोलॉजिकल गुण हैं।

श्रम की जातीय श्रेष्ठता का उदाहरण आप 20 जुलाई 2018 को संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के वक्तव्य में भी देख सकतें हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘चन्द्रगुप्त मौर्य राजा बने, वे बहुत साधारण परिवार से थे। वे किसी ऊँची जाति से नहीं थे।’ ध्यान दीजिए, चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास लगभग 300 ईसापूर्व का है जबकि राजनाथ सिंह की राजपूत जाति का उदय भारत में मुग़लों के आने के बाद लगभग 1500-1600 ईस्वी का है। अर्थात जिस जाति ने भारत में 2300-2400 वर्ष पहले शासन किया हो उसको उसके 1800-1900 वर्ष बाद जन्म लेने वाली जाति का नेता सीधा-सीधा नीची जाति का न कहकर कहता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ऊँची जाति से नहीं आते थे।

इन तमाम उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि कैसे भारत के सचेतन और अवचेतन में श्रम का अपमान और जातीय श्रेष्ठता का अहंकार रग-रग में समाया हुआ है। देश और दुनिया के तमाम लोगों से जिसमें जेएनयू शामिल है, से अपील होगा कि वे श्रम का अपमान न करें। हमें एक आधुनिक समाज बनाना है।

(कॉपी एडिटर : अशोक/नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार 

लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...