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खाकी के खौफ में ओबीसी, दलित और आदिवासी

देश की पुलिस व्यवस्था की चूलें पूरी तरह हिल चुकी हैं। वह लगभग तहस-नहस होने को है। सौ में बयासी आदमी उससे मदद मांगते हैं जिसमें अधिकांश ओबीसी, एससी, एसटी समुदाय से होते हैं। आधों के पास वह नहीं जाती या पहुंच नहीं पाती और जहां जाती है वहां खाकी का खौफ छोड़ जाती है। ताजा अध्ययन के आईने में कमल चंद्रवंशी की रिपोर्ट

सामान्य तौर पर लोग पुलिस को लेकर किस नजरिये से देखते है, यह जितना उत्सुकता का विषय है उतना ही खोजबीन और पड़ताल का भी है। सीएसडीएस के अध्ययन और सर्वे में सामने आया है कि देश के दलितों, पिछड़ों और आदिवासी समाज के लिए पुलिस सिर्फ और सिर्फ खाकी का खौफ है। इसका एक उदाहरण बिहार की राजधानी पटना में बीते दिनों देखने को मिला। पटना पुलिस में एक डीएसपी रैंक के अधिकारी पर यह आरोप लगा कि उसने सब्जी बेचने वाले किशोर को झूठे मुकदमे में इसलिए फंसा दिया क्योंकि उसने मुफ्त में सब्जियां नहीं दी। ऐसे हालात केवल बिहार में ही नहीं हैं। झारखंड और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के पत्थरलगड़ी आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस ने बड़ी संख्या में आदिवासी युवाओं को झूठे मुकदमे में जेल भेजा है।

बिहार की राजधानी पटना में अपने अधिकारों के लिए मांग करते निषाद समाज के लोगों पर लाठियां बरसाती पुलिस

रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस का सर्वाधिक भय अनुसूचित जाति (एससी) लोगों में है। इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) है। अनुसूचित जातियों में सबसे गरीब वर्ग (23%) में पुलिस का डर सबसे अधिक है। दक्षिण भारत में अनुसूचित जातियों पर पुलिस खौफ का प्रतिशत 33 है जबकि उत्तर भारत में 13 प्रतिशत। ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से देखें तो निचली जातियों के उत्पीड़न के खिलाफ उत्तर भारत की की तुलना में दक्षिण में कई आंदोलन अधिक सफल रहे हैं। इस परिदृश्य में,  इस क्षेत्र से (दक्षिण भारत) में डर का प्रतिशत बढ़ना एक अहम बिंदु है जो समाज को चिंतित करने वाला है।

सीएसडीएस, कॉमन कॉज और लोकनीति की रिपोर्ट स्टेटस ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया, 2018के मुताबिक ऊंची जातियों में पुलिस का सबसे कम भय है। सर्वेक्षण से पता चला है कि 18 फीसदी अनुसूचित जाति के लोग पुलिस को बेहद डरावनामानते हैं। रिपोर्ट में एनसीआरबी के आंकड़ों की भी पड़ताल की गई है। बताते चलें कि संविधान में कानून व्यवस्था राज्य सरकारों का विषय है लेकिन देशभर में अपराध नियंत्रण के उपाय प्रभावी तौर पर लागू करने के लिए और मजबूत पुलिस तंत्र कायम करने में राज्य सरकारों की मदद करना केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है। इसके लिए राज्यों में विभिन्न अपराधों से जुड़े विस्तृत आंकड़े जुटाने के लिए 1986 में राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) गठित की गई थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात, कर्नाटक और ओडिशा से एसटी समुदाय की प्रतिक्रिया औसत से काफी अधिक हैं (अत्यधिक डरावनी, क्रमश: 36%,  17% और 18%)।  भय और जाति के पहलू इस तरह हैं कि उसकी व्याख्या सरल नहीं है। मिसाल के तौर पर, हिंदू जातियों को अलग करने पर हम देखते हैं कि ग्रामीण इलाकों में ऊंची जातियों के 39 प्रतिशत लोगों में पुलिस का कोई भी डर नहीं है। यह आंकड़ा समग्र राष्ट्रीय औसत 27% से अधिक ही नहीं है बल्कि ग्रामीण इलाकों में अन्य जाति समूहों द्वारा इसी श्रेणी में मिली प्रतिक्रियाओं में सबसे अधिक हैं। ग्रामीण इलाकों के ओबीसी और एससी समाज से जुड़े जितने लोगों ने सर्वे में उत्तर दिया उनका प्रतिशत क्रम से 18% और 16% है। जाहिर है उनमें भय का स्तर ज्यादा है। हालांकि,  शहरी क्षेत्रों के ऊंची जातियां पुलिस से कम डरती हैं (शहरी क्षेत्रों में 37% ने कहा कि वे बिल्कुल डरते नहीं हैं)। एससी में डर का यह आंकड़ा 22 प्रतिशत है। यह संख्या अन्य पिछ़डा वर्ग में 12 प्रतिशत है। इस प्रकार से पुलिस से पैदा होने वाले डर को समझने के लिए यह भी जरूरी हो जाता है कि संबंधित समुदाय के किसी भी शख्स की सामाजिक और भौगोलिक रूप से स्थिति क्या है।

अवधारणा है कि पुलिस नक्सली बताकर अनुसूचित जनजातियों के समुदाय को झूठे केसों में बंद कर देती है। उनमें तीन गुना ज्यादा भय है :

बहुत सकारात्मककुछ हद तक सकारात्मककुछ हद तक नकारात्मकअत्यंत नकारात्मक
ऊंची जातियां31391514
ओबीसी23411718
एससी26371619
एसटी31381421

स्रोत- सीएसडीएस

देश में 58 प्रतिशत से ज्यादा विचाराधीन कैदी दलित, पिछड़े और जनजाति समाज से हैं। लोगों के बीच डर का सबसे बड़ा कारण यही है।” मानवाधिकार संस्था सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीसकी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि “केवल झारखंड में, आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के रूप में सूचीबद्ध लगभग 500 आदिवासी जेल में हैं क्योंकि उन पर कई सालों से मुकदमे चल रहे हैं जो कभी खत्म नहीं होते।

पुलिस का खौफ ओबीसी, एसटी में सबसे ज्यादा है। ऊंची जातियों के हिंदू पुलिस से नहीं डरते :

स्रोत: सीएसडीएस

रिपोर्ट कहती है कि किसी भी नागरिक में पुलिस महकमे में विविधता और विश्वास इस बात पर निर्भर है कि इसमें (विभाग) उनके तबके के लोगों को कितना प्रतिनिधित्व मिला है। प्रतिनिधित्व को लेकर हमारे साथ आंकड़े मौजूद हैं जो बताते हैं कि विभिन्न समुदायों के कितने लोग पुलिसबल में शामिल हैं, किन राज्यों में बहुत अच्छा, अच्छा या खराब प्रतिनिधित्व है। हालांकि हमने सर्वेक्षण में पाया कि पुलिस को लेकर अवधारणा और विश्वास का संबंधित समाज या समुदाय के प्रतिनिधित्व से कोई सीधा वास्ता नहीं है। दो विभिन्न समुदायों में आपसी सहसंबंध को लेकर अध्ययन में कोई उल्लेखनीय चीज का पता नहीं चलती। मिसाल के तौर पर जिन राज्यों में पुलिसबलों में अनुसूचित जातियों का अच्छा प्रतिनिधित्व है, वहां एससी समाज में पुलिस पर कहीं ज्यादा कम विश्वास था जहां स्थिति ठीक इसके उलट थी।

यानी पुलिसबल में जहां बहुत कम एससी समुदाय के लोग काम करते हैं वहां इस समुदाय का पुलिसफोर्स पर ज्यादा भरोसा दिखा।

स्रोत: कॉमन कॉज

सर्वे में यह भी पाया गया कि अमूमन लोग इस बात से बेखबर हैं कि उनके समुदाय के कितने लोग पुलिसबल में शामिल हैं। अनुसूचित जनजातियों (एसटी), मुसलमानों और महिलाओं का पुलिसबलों में बहुत कमजोर प्रतिनिधित्व है लेकिन फिर भी इन सभी में पुलिस को लेकर खासा विश्वास पाया है।

सर्वे में 38 फीसदी लोगों ने कहा कि दलितों को फर्जी मामलों में ज्यादा फंसाया गया है। 28 फीसदी का कहना है कि नक्‍सलवाद से जुड़े मामलों में आदिवासी जेल भेज दिए जाते हैं। पुलिस थाने बुलाए जाने वाले कुल लोगों में 23 फीसदी आदिवासी थे, 21 फीसदी मुसलमान, 17 फीसदी ओबीसी और 13 फीसदी दलित थे।  

स्रोत: लोकनीति

रिपोर्ट कहती है कि आमतौर पर हम सिर्फ एक अनुमान लगाते हैं कि जिस समुदाय के ज्यादा लोग पुलिसफोर्स में होंगे, उस समुदाय के लोगों का पुलिस पर ज्यादा भरोसा होगा। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। यानी जनमानस की यह अवधारणा आकड़ों की सचाई से परे हैं। कानून आयोग के पूर्व अध्यक्ष (सेवानिवृत्त) एपी शाह के मुताबिक, “पुलिस के बारे में जनमानस में सामान्य धारणा बदलनी होगी। पुलिस को हमेशा कुसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। पुलिस की कोई बंधी-बंधाई या परिभाषित भूमिका नहीं है। पुलिस के कामकाज में राजनीतिक फैसलों को भी अमल में लाने का दबाव होता है।

हाल ही में तामिलनाडु के टूटिकोरिन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर ओपेन फायरिंग करता एक पुलिस कर्मी। इस घटना में 11 लोगों की मौत हुई थी

पचास फीसद से ज्यादा लोग पुलिस के वर्ग आधारित भेदभाव को उजागर करता है। 30 प्रतिशत लोगों ने कहा कि भेदभाव लिंग के आधार पर हुआ है। 26 प्रतिशत लोगों ने जाति के आधार पर भेदभाव होने के बारे में बताया जबकि 19 प्रतिशत लोगों की यह शिकायत है कि भेदभाव धर्म के आधार पर किया गया है। हैरानी नहीं कि पुलिस विशिष्ट समुदायों को निशाना बनाती है। दलितों को तुच्छ अपराधों में गलत तरीके से फंसाया जाता है। इस बारे से जुटाए गए आंकड़ों से 38 प्रतिशत लोगों ने अपनी सहमति व्यक्त की थी, 28 प्रतिशत लोगों ने यह भी कहा कि आदिवासियों को माओवादियों बताकर गलत तरीके से फंसाया गया था। दिल्ली हाईकोर्ट पूर्व मुख्य न्यायाधीश शाह के शब्दों में, “रिपोर्ट हमें बताती है कि पुलिस राज्यों में किस तरह से काम करती है। यह हमें प्रशासनिक ढांचों की भी जानकारी देती है। पिछड़े समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा तो कानून की पूरी अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।

मुसलमानों के मामले में देखें तो इस समुदाय का बहुत कम प्रतिनिधित्व पुलिस में है लेकिन उसकी संतुष्टि का स्तर अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा सकारात्मक है। सर्वे में 30 फीसद मुसलमानों पुलिस के कामकाज से संतुष्ट नजर आए। उन राज्यों में जहां अनुसूचित जाति के सर्वाधिक कैदी जेलों में (यानी ‘खराब’ स्थिति वाले राज्य), उनमें डर सबसे कम है, जबकि यही आंकड़ा एसटी के मामले के डर के स्तर को ऊंचा बताता है। एससी और एसटी के मामले में किसी सुस्पष्ट पैटर्न की पहचान नहीं की जा सकती है। रिपोर्ट करती है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के मामले पुलिस आंकड़े के डर के स्तर या उसका खुलासा करने में नाकाम हैं।

उन राज्यों की तालिका जहां पुलिस की छवि बेहतर है। शीर्ष के राज्य हैं :

राज्यबहुत सकारात्मककुछसकारात्मककुछ नकारात्मकबहुतनकारात्मककुल स्कोर
हरियाणा70.9 22.43.82.915.5
हिमाचल प्रदेश69.822.04.53.6 15.0
झारखंड46.642.54.65.612.0
नागालैंड37.247.06.49.59.6
केरल41.437.710.39.59.1
बिहार30.348.313.08.47.9
उत्तराखंड29.443.614.0112.06.5

जानकारों का मानना है कि पंजाब में हर तबके में पुलिस को लेकर अवधारणा इसलिए भी खराब है कि उसकी रायशुमारी में पंजाब के आतंकवाद के दौर के आंकड़े समाहित हैं। हिमाचल और हरियाणा में लोगों की पुलिस से तसल्ली का स्तर 71 प्रतिशत है, जबकि यूपी और पंजाब में यह प्रतिशत सिर्फ 8 और 9 है।

उन राज्यों की तालिका जहां पुलिस की छवि सर्वाधिक खराब है। निचले पायदान वाले राज्य हैं :

राज्यबहुत सकारात्मककुछसकारात्मककुछ नकारात्मकबहुतनकारात्मककुल स्कोर
छत्तीसगढ़18.3 32.816.831.5-1.0
पश्चिम बंगाल15.735.613.931.9-1.1
उत्तर प्रदेश8.237.227.626.2-2.6

जाति संघर्षों की स्थिति में पुलिस निष्पक्षता को लेकर बनी धारणा :

पूर्व डीजीपी और भारतीय पुलिस फाउंडेशन के चेयरमैन सूर्य प्रकाश सिंह कहते हैं, “राजनीतिकरण और क्रमिक आपराधिकरण ने पुलिस की छवि को धक्का पहुंचाया है। इसमें सुधार की जरूरत है। यदि हम आर्थिक प्रगति की गति को बनाए रखना चाहते हैं तो हमें सुधार की आवश्यकता है। आर्थिक प्रगति हासिल करने के लिए, कानून और व्यवस्था बनाये रखने की जरूरत है, ऐसी स्थिति में व्यापारी या उद्यमी किसी भी राज्य में निवेश करने से पहले सौ बार सोचेगा।” हालांकि कॉमन कॉज के निदेशक विपुल मुद्गल की राय है, “पुलिस ने अमीरों की तुलना में गरीबों से लगभग 2 गुना अधिक संपर्क किया?”

 जाति संघर्ष/लड़ाई में

पुलिस किसी जाति

विशेष का पक्ष

लेती है
जाति संघर्ष के दौरान पुलिस निष्पक्ष रहती हैकोई जवाब नहीं
ऊंची जातियां76825
ओबीसी96130
एससी86032
एसटी66331
हिंदू86329
मुस्लिम115831
ईसाई46630
सिख45541
जून 2011 में बिहार के फारबिसगंज में एक किशोर की लाश पर कूदता पुलिसकर्मी

कुल मिलाकर देखें तो पिछले चार से पांच वर्षों में 82 प्रतिशत लोगों का पुलिस से कोई मदद नहीं मिली या उनका साबका ही नहीं पड़ा। पुलिस सिर्फ 17 प्रतिशत लोगों के पास ही पहुंच सकी। इस श्रेणी में आदिवासी (23 प्रतिशत), ओबीसी (17 प्रतिशत), दलित (16 प्रतिशत), उच्च जातियाँ (13 प्रतिशत) और अन्य (10 प्रतिशत) शामिल थे। समाज के पिछड़े समुदायों को पुलिस द्वारा किए गए भेदभाव का ज्यादा सामना करना पड़ा। 37 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियाँ, 30 प्रतिशत ओबीसी, 29 प्रतिशत एससी, 32 प्रतिशत मुस्लिम देश की पुलिसिया व्यवस्था से नाखुश हैं। शिक्षित लोगों की तुलना में अशिक्षित लोगों के साथ तीन गुना अधिक भेदभाव और घटिया बर्ताव किया गया।

बहरहाल, सीएसडीएस की यह रिपोर्ट ‘भारत में पुलिस’ व्यवस्था के सभी पक्षों को सामने लाती है। इसमें इंसाफ के इंतजार में जिंदगियों की दास्तां शामिल नहीं है। अदालतों में लंबित आंकड़ों पर निगाह डालें तो इस पूरे तंत्र की विफलता सामने आती है। स्वयं पुलिस व्यवस्था आंकड़े भी इस सच से मुंह नहीं मोड़ते।

(कॉपी एडिटर : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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