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पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने लगायी अंतरिम रोक

सरकारी नौकरी में प्रोमोशन में आरक्षण देने के कर्नाटक सरकार के क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम निर्णय आने तक यथास्थिति बनाए रखने को कहा है। जबकि इस खबर पर राष्ट्रपति मुहर लगा चुके थे। अशोक झा की खबर :

कर्नाटक सरकार ने 2017 में एक क़ानून पास किया जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण को सुरक्षित करने का प्रावधान किया गया है। अब इस क़ानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर इसको निरस्त करने की मांग की गई है। कोर्ट ने इस अपील पर सुनवाई करते हुए कर्नाटक सरकार को नोटिस जारी किया है और राज्य सरकार से इस बारे में जवाब देने को कहा है।

न्यायमूर्ति ए. एम. सप्रे और न्यायमूर्ति यू. यू. ललित की पीठ ने इस मामले में यथास्थिति बनाए रखने को कहा है। कोर्ट ने आरक्षण (राज्य में सिविल सर्विसेज के पद पर) अधिनियम, 2017 के आधार पर  कर्नाटक एक्सटेंशन ऑफ़ कोंसिक्वेंशियल सिनिओरिटी ऑफ़ गवर्नमेंट सर्वेन्ट्स प्रमोटेड को लागू करने पर तब तक के लिए रोक लगाने को कहा है जबतक कि इसके बारे में कोई अंतिम निर्णय नहीं आ जाता। कोर्ट ने इस मामले के पक्षकारों को अपना पक्ष 14 अगस्त तक पेश कर देने को कहा है जिस दिन इस मामले की अगली सुनवाई होगी।

इस क़ानून को चुनौती देने वाली यह रिट याचिका शिवकुमार के. वी. और बी. के. पवित्र ने दायर की है।  

सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली

याचिकाकर्ताओं की पैरवी एडवोकेट राजीव धवन ने की। धवन ने अपनी दलील में कहा कि कर्नाटक सरकार ने 2017 में जो क़ानून बनाया वह  9 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को निष्फल करने के लिए था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण देने के फैसले को रद्द कर दिया था।

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न्यायमूर्ति यू. यू. ललित ने कहा कि इस अधिनियम की वैधता के बारे में कोर्ट कोई निर्णय ले इससे पहले वह राज्य सरकार का पक्ष सुनना चाहेंगे। इस क़ानून को राष्ट्रपति अनुमोदित कर चुके हैं।

इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में दिए अपने फैसले में राज्य के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने के क़ानून को अवैध करार देने के बाद सरकार से प्रोमोशन की सूची को संशोधित करने को कहा था। राज्य सरकार ने उस समय कोर्ट से इस बारे में यथास्थिति बनाए रखने की मांग की थी जिसे अदालत ने ठुकरा दिया। राज्य सरकार ने यथास्थिति की मांग इस आधार पर की थी कि एम नागराज मामले में 2006 में जो फैसला आया (जो कि 9 फरवरी को दिए फैसले का आधार है) उसे अब एक संविधान पीठ को सौंपा जा चुका है।

न्यायाधीशद्वय ने कहा कि नागराज फैसले को संविधान पीठ को भेजने मात्र से ही उनके फैसले पर संदेह करने का कोई आधार नहीं है और इस फैसले पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है।

इससे पहले अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, पिछड़ेपन और समग्र सक्षमता का निर्धारण करना किसी राज्य के लिए आवश्यक है और इसके बाद ही राज्य अनुच्छेद 16(4A) के तहत राज्य सेवा के कर्मचारियों को अनुवर्ती वरिष्ठता के साथ आरक्षण दे सकता है।”

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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