h n

आखिर क्यों नहीं लड़ा गया मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ कोई स्वतंत्रता संग्राम?

उन्नीसवीं शताब्दी में 1857 के विद्रोह को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का क्या अर्थ है? यह उन मूर्खों का आलाप था, जो सिर्फ हिन्दुओं की स्वतंत्रता चाहते थे, और इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं था कि यदि 1857 का विद्रोह, यदि दुर्भाग्य से सफल हो जाता, तो अलग-अलग रियासतों की स्वतंत्र सत्ताएं उन्हीं व्यवस्थाओं को जीवित रखतीं, जिनमें अछूत को समस्त मानवाधिकारों से वंचित थे। बता रहे हैं कंवल भारती :

1857 का विद्रोह और बहुजन

1857 के गदर को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया जाता है। यह मत भारत के ब्राह्मण वर्ग के विद्वानों का है, और उन लोगों का है जो हिन्दुत्ववादी थे और भारत में सामंती शासन चाहते थे। यह वह वर्ग था, जो अपनी धर्म-व्यवस्था पर मुग्ध था और उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहता था। मुसलमान शासकों ने अपने आठ सौ साल के साम्राज्य में ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था को नहीं छुआ, क्योंकि हिन्दुओं को उनकी धर्म-व्यवस्था पर चलने की पूरी आजादी दी। इसलिये मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ एक भी स्वतंत्रता संग्राम भारत में नहीं लड़ा गया।

किसी भी आंदोलन को नेतृत्व और गतिशीलता देने का काम बुद्धिजीवी वर्ग करता है और दुर्भाग्य से भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण रहा है। बुद्धिजीवी और ब्राह्मण ये दोनों एक-दूसरे के पर्याय माने गये हैं। मुसलमान शासकों ने इसी ब्राह्मण वर्ग को सारी स्वतंत्रता और सुख-सुविधाएं देकर अपना वफादार बनाकर रखा था। लेकिन यही काम भारत में आने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नहीं किया। उसने उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल देना शुरु किया और इसी दखल के परिणामस्वरूप उन्हें ब्राह्मणों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। दूसरे शब्दों में अंग्रेजों का समाज-सुधार एजेंडा ही उनके विरुद्ध आन्दोलन का कारण बन गया। कम से कम दो बड़े विद्रोह भारत में समाज सुधार के फलस्वरूप ही हुए, जिनमें पहला 1806 में वेल्लौर का सिपाही विद्रोह और दूसरा 1857 का सिपाही विद्रोह। आंबेडकर ने लिखा है कि वेल्लौर का विद्रोह एक छोटी चिंगारी की तरह था, पर 1857 का विद्रोह एक बड़ा अग्निकाण्ड बन गया था। (डा. आंबेडकर राइटिंग एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 12, पृष्ठ 140)

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

वेल्लौर का विद्रोह सिर्फ इस आधार पर हुआ था कि मद्रास आर्मी के चीफ कमान्डर जान क्रैडोक ने एक रेगूलेशन जारी करके सिपाहियों के लिये धार्मिक और जातीय पहचान वाली यूनिफार्म समाप्त करके उसकी जगह नयी यूनिफार्म लागू कर दी थी, जिसमें पगड़ी, दाढ़ी और हाथों में अंगूठियां पहनने की मनाही कर दी गयी थी और इन सबके बदले एक नयी टोपी निर्धारित की गयी थी। सिपाहियों ने इसे अपने ईसाईकरण के रूप में देखा। हिन्दुओं ने नयी टोपी को गाय की खाल से बनी टोपी समझा और मुसलमानों ने दाढ़ी हटाने को अपने धर्म में दखल समझा। अतः दोनों धर्मों के सिपाहियों ने धर्म के नाम पर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को वेल्लौर किले में मौजूद टीपू के परिवार ने मदद की थी।

1857 गदर पर आधारित एक पेंटिंग (साभार : बीबीसी)

इस विद्रोह को भी ब्राह्मण लेखकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम कहा है और यहां तक लिखा है कि इसी विद्रोह ने 1857 में सिपाही विद्रोह के रूप में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का मार्ग प्रशस्त किया था। (दि हिन्दू, सण्डे मैगजीन, 6 अगस्त 2006 में देखिए ए. रंगराजन का लेख ‘व्हेन दि वेल्लौर सिपाय’स रिबेल्ड’)

क्या यह सचमुच स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह वास्तव में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम था, तो वे सिपाही कम्पनी की सेना में भर्ती ही क्यों हुए थे? फिर, यह विद्रोह नये यूनिफार्म रेगूलेशन जारी होने के बाद ही क्यों हुआ? इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह विद्रोह ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ नहीं था, बल्कि उसके द्वारा जारी रेगूलेशन के विरोध में था, जिसने सिपाहियों की धार्मिक और जातीय पहचान समाप्त कर दी थी। यदि कम्पनी इस रेगूलेशन को जारी नहीं करती, तो विद्रोह नहीं होता। तक यह स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर था? यदि यह कम्पनी सरकार को हटाने के आधार पर था, तो स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। परन्तु यदि यह धार्मिक और जातीय स्वतंत्रता के लिये था, तो यह स्वतंत्रता संग्राम था। तब हम इसे धार्मिक स्वतंत्रता संग्राम कहेंगे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम नहीं।

यह भी पढ़ें : मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी और सिदो-कान्हू थे पहले स्वतंत्रता संग्रामी

1857 के विद्रोह का श्रेय सिपाही मंगल पांडे को दिया जाता है। जबकि वह एक रूढ़िवादी और अस्पृश्यता मानने वाला ब्राह्मण था। मेरठ की उसी बैरक में, जिसमें मंगल पांडे था, मातादीन सफाई का काम करता था। घटना है कि एक दिन झाड़ू लगाते समय पांडे का लोटा मातादीन से छू गया। अस्पृश्यता-धर्म को मानने वाले मंगल पांडे से लोटे का छूना सहन नहीं हुआ और उसने मातादीन को गालियां देकर अपमानित किया। इस पर मातादीन ने फटकारते हुए कहा कि लोटा छूने से तुम धर्मभ्रष्ट हो जाते हाे, पर जब उन कारतूसों को दांतों से पकड़कर खोलते हो, तो भ्रष्ट नहीं होते, जिनके मुंह पर गाय और सुअर की चरबी लगी होती है। मंगल पांडे ने जब यह सुना तो उसे लगा कि सभी हिन्दू सिपाहियों का धर्म-भ्रष्ट हो गया है। यही घटना सिपाही विद्रोह का कारण बनी।

क्या सचमुच सिपाही विद्रोह का यही एक कारण था? यह गले नहीं उतरता, क्योंकि कारतूसों में चर्बी रहती थी, यह सभी सिपाही जानते थे, भले ही वह किसी भी पशु की हो। यदि मंगल पांडे मांसाहारी नहीं था, तो उसके लिये किसी भी पशु की चर्बी वर्जित थी। फिर गाय की चर्बी को लेकर ही विद्रोह क्यों? दूसरे, यह भी गौर तलब है कि बगावत के समय भी सिपाहियों ने कारतूसों का उपयोग किया था, तब वे उन्हें किस तरह खोलते थे? सम्भवतः मामला चर्बी का नहीं था, कुछ और भी था।

1988 में भारत सरकार द्वारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर जारी डाक टिकट

गाय और सुअर ये दो पशु हिन्दू और मुसलमानों के धर्म से जुड़े हैं। हिन्दू गाय को माता कहते हैं, जो उनके धर्म में एक पूजनीय पवित्र पशु है, जबकि मुसलमानों के लिये सुअर एक गंदा पशु है और इस्लाम में उसका छूना और मांस खाना हराम माना गया है। हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने के काम में साम्प्रदायिक शक्तियां प्रायः इन्हीं दो पशुओं का उपयोग करती आयी हैं। 1857 में भी ब्राह्मण शक्तियों ने यही किया। उन्होंने कारतूसों में गाय की चर्बी को अपनी धर्म-व्यवस्था की लड़ाई के लिये एक कारगर हथियार के रूप में देखा। इस धर्म-युद्ध में मुसलमान भी ब्राह्मणों के साथ आ जायें, इसलिये गाय के साथ सुअर को भी एक साथ जोड़ा गया। हो सकता है कि मातादीन इस काम में ब्राह्मणों का ही सन्देश वाहक रहा हो।

घर बैठें खरीदें फारवर्ड प्रेस की किताबें

यहां भी वही सवाल विचारणीय है, जो वेल्लौर विद्रोह में था। जिन ब्राह्मणों ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, जैसा कि सावरकर और हरदयाल आदि ने कहा था, तो वे इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि कारतूसों में गाय या सुअर की चर्बी न लगायी होती, या इसका भान ही न हुआ होता, तो क्या तब भी कोई विद्रोह होता? यदि चर्बी ही मुख्य कारण था, तो जाहिर है कि कोई विद्रोह नहीं होता। फिर, उसे स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर कहा जा सकता है? दरअसल यह विद्रोह भी समाज सुधार कार्यक्रम का प्रतिफल था। यह अपनी धर्म-व्यवस्था को बचाने का संग्राम था। यह हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता का मामला था, भारत की स्वतंत्रता से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस विद्रोह को भारत का स्वतंत्रता संग्राम का रूप देने की कोशिश रूढ़िवादी ब्राह्मणों और कुछ देशी राजाओं और नवाबों ने की थी, जिनकी रियासतें अंग्रेजी राज में खतरे में थीं।

1857 गदर के पहले 1855 में हुए हूल विद्रोह की एक पेंटिंग

सिपाही-विद्रोह के मूल कारण पर आते हैं। यह विद्रोह बंगाली आर्मी ने किया था। यह सिर्फ नाम की बंगाली आर्मी थी, इसमें बंगाल का कोई भी सिपाही नहीं था। यह आर्मी मुख्य रूप से अवध और दोआबा क्षेत्र के उच्च जातीय लोगों को लेकर बनी थी। इसमें अधिकांश ब्राह्मण सैनिक थे, जो अपना सबसे ज्यादा समय नहाने और पूजापाठ में लगाते थे। इसलिये, यह आर्मी ब्राह्मण साजिश का आसानी से शिकार हो गयी।

महिषासुर : एक जननायक – खरीदने के लिए यहां क्लिक करें

अवध प्रांत और बनारस के ब्राह्मण, अंग्रेज सरकार के सामाजिक सुधार कानूनों से क्षुब्ध थे। वे चाहते थे कि मुगलों की तरह अंग्रेज भी उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल न दें, पर अंग्रेजों ने कई मामलों में दखल देना जरूरी समझा।

इस सम्बन्ध में डा. आंबेडकर ने कुछ सुधारों का उल्लेख किया है, जिनका संक्षिप्त वर्णन करना यहां जरूरी है। वे लिखते हैं, सारी सामाजिक बुराइयां धर्म पर आधारित हैं। एक हिन्दू, चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो भी काम करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और दाह संस्कार भी धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे क्रिया-कलाप धर्म के अनुसार होते हैं। इसलिये धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण से जो बुराइयां पापपूर्ण दिखायी देती हैं, वे उसके लिये पापपूर्ण नहीं होतीं, क्योंकि उसका धर्म उन्हें पुण्य मानता है। इसलिये पाप के दोषी हिन्दू का उत्तर यह होता है- ‘‘यदि मैं पाप कर रहा हूँ तो धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’ (देखिए, डा. आंबेडकर: राइटिंग एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, पृष्ठ 116-137)

समाज हमेशा रूढ़िवादी होता है। वह तभी बदलता है, जब उसे बदलने के लिये दबाव डाला जाता है। ऐसे दबाव जब भी डाले जाते हैं, पुरातन और नवीन के बीच हमेशा संघर्ष होता है। इसलिये कानून की सहायता के बिना किसी बुराई को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता, खास तौर से धर्म पर आधारित बुराई को तो बिल्कुल भी नहीं।

यह भी पढ़ें : हिन्दू धर्म भारत को एक राष्ट्र क्यों नहीं बना सका

अंग्रेजों की कम्पनी सरकार ने छः सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिये कानून बनाने की जरूरत समझी। इनमें पांच कानून विद्रोह के पहले बने और छठवाँ कानून विद्रोह के बाद 1860 में बना, जो स्त्री के यौन-उत्पीड़न और बलात्कार को रोकने के लिये पैनल कोड सेक्शन 375 के अन्तर्गत लाया गया था। विद्रोह के पहले के पांच कानून ये थे-

  1. बंगाल रेगूलेशन एक्ट 1795 जो बनारस प्रांत में, ब्राह्मणों के ‘कुर्रा’ की प्रथा को रोकने के लिये लाया गया था, जिसमें वे अपनी स्त्रियों की हत्या कर देते थे। इसी कानून के तहत ब्राह्मण को भी हत्या करने पर मृत्यु दंड के दायरे में लाया गया था, जिससे वह अभी तक बाहर था।
  2. 1802 का रेगूलेशन एक्ट, जो मासूम बच्चों की धर्म के नाम पर बलि देने की प्रथा को रोकने के लिये लाया गया था।
  3. 1829 का रेगूलेशन एक्ट, जो सती प्रथा को रोकने के लिये लाया गया था, जिसमें हिन्दू अपनी विधवा स्त्रियों को जिन्दा जला देते थे।
  4. जाति-निर्योग्यता निवारण अधिनियम एक्ट, 1850, सेक्शन-9, रेगूलेशन एक्ट, 1832 का विस्तार था। यह अछूत जातियों के हित में अस्पृश्यता को रोकने के लिए था।
  5. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856, जो हिन्दू विधवा के पुनर्विवाह को न्यायिक मान्यता प्रदान करने के लिये लाया गया था।

ब्रिटिश सरकार के इस सुधार कार्यक्रम से यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कानून ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था में हस्तक्षेप थे। जिस ब्राह्मण को किसी की भी हत्या करने पर मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था, उसे अन्य हत्याभियुक्तों के समान ही दंड के दायरे में लाने का कानून ब्राह्मणों के लिये, खास तौर से बनारस प्रांत के ब्राह्मणों के लिये, जो अपनी ‘कुर्रा’ प्रथा के तहत किसी भी स्त्री अथवा लड़की की हत्या करने में कोई संकोच नहीं करते थे, विद्रोह की चिनगारी बनने के लिये काफी था।

1857 में बंगाल आर्मी के विद्रोह के मूल में समाज सुधार की यही चिंगारी थी। दूसरी चिंगारी लार्ड डलहौजी की विलय नीति थी। इस नीति के तहत सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदयपुर, झांसी और नागपुर की रियासतें विलय कर ली गयी थीं। अन्य रियासतों के अस्तित्व भी संकट में थे। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तक भयभीत थे और यह नहीं समझ पा रहे थे कि वह अंग्रेजों का विरोध करें या समर्थन।

चलिए झांसी के उदाहरण को लेते हैं, जिसकी भूमिका इस विद्रोह में सबसे ज्यादा विख्यात है। झांसी पेशवा आश्रित राज्य था। झांसी का राजा गंगाधर एक विलासी और अत्याचारी शासक था। उसका कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसने अपने भतीजे के पुत्र को गोद ले लिया था, जिसको वह अपने बाद राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। उसके पूर्वज सदैव कम्पनी सरकार के वफादार रहे। पर कम्पनी सरकार ने नहीं माना और रानी को 5 हजार रुपये मासिक की पेंशन देकर झांसी को अपने राज्य में मिला लिया। रानी ने पेंशन लेने से इनकार कर दिया और कहा कि ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूँगी।’’ रानी ने झांसी को बचाने के लिये अंग्रेजों से युद्ध किया।

ये सभी राजे अपनी रियासतों में अपनी सत्ता वापस चाहते थे। इसलिये ब्राह्मणों के साथ इन राजाओं ने भी विद्रोह में साथ दिया।

यहां इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है कि क्या यह स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह स्वतंत्रता संग्राम था, तो क्या सैकड़ों रियासतों में विभाजित भारत में एक अखंड स्वराज की अवधारणा तब तक विकसित हो गयी थी? स्पष्ट उत्तर है, नहीं। स्वराज की हिन्दू अवधारणा भी ठीक से 1900 के बाद बनी थी। 1930 तक यानी गोल मेज सम्मेलन के समय तक पूर्ण स्वतंत्रता की परिकल्पना तक अस्तित्व में नहीं थी। गांधी और कांग्रेस के नेता डोमिनियन स्टेटस की मांग कर रहे थे। ये तो आंबेडकर थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत की थी। जब बीसवीं शताब्दी में यह स्थिति तो, उन्नीसवीं शताब्दी में 1857 के विद्रोह को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का क्या अर्थ है? यह उन मूर्खों का आलाप था, जो सिर्फ हिन्दुओं की स्वतंत्रता चाहते थे, और इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं था कि यदि 1857 का विद्रोह, यदि दुर्भाग्य से सफल हो जाता, तो अलग-अलग रियासतों की स्वतंत्र सत्ताएं उन्हीं व्यवस्थाओं को जीवित रखतीं, जिनमें अछूत को समस्त मानवाधिकारों से वंचित थे, विधवा स्त्रियों को जिन्दा जलाया जाता था, मासूम बच्चों की बलि दी जाती थी, अय्याश सामंत चाहे जिस स्त्री या लड़की का अपहरण कराते और बलात्कार करते और ब्राह्मण की हर हिंसा और बर्बरता क्षमा योग्य होती। न पूरे देश में कानून एक होता और न कानून की नजर में सब समान होते।

इस विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले और अखंड हिन्दू भारत का स्वप्न देखने वाले ब्राह्मण लेखकों ने यह देखने के लिये अपनी आंखों का मोतियाबिन्द साफ नहीं किया कि रियासतों को विलय करके भारत को अविभाज्य राज्य बनाने का क्रान्तिकारी कार्य तो अंग्रेज कर रहे थे।

कहावत है कि बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। फिर ये तो इस देश के लाखों दबे-कुचले, दलित, पिछड़े, गरीब, आदिवासी, मेहनतकश लोग थे। उनकी हजारों सालों की बिगड़ी नियति को क्यों नहीं बदलना था? ब्राह्मण और राजे-महाराजे भले ही चाहते थे कि अंग्रेज के विरुद्ध विद्रोह सफल हो, अंग्रेज विदा हों और उनकी सामंती धर्म-व्यवस्था बहाल हो, पर पीड़ित बहुजनों के हित में नियति को यह स्वीकार नहीं था। विद्रोह देशव्यापी नहीं हो सका। दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बनारस, झांसी, ग्वालियर और बिहार के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रहा और शीघ्र ही इसको कुचल दिया गया। बम्बई और मद्रास की सेनाओं ने इस विद्रोह में भाग नहीं लिया, वरन् उसे दबाने में भूमिका निभायी। यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि बम्बई और मद्रास की सेनाओं का गठन अछूत जातियों के लोगों से किया गया था। उनमें अधिकांश बम्बई के महार और मद्रास के परिया थे, जो अछूत जाति के थे। यही कारण था कि उन्होंने ब्राह्मणों के इस विद्रोह में भाग नहीं लिया। इसलिए मार्च 1857 में शुरु हुआ विद्रोह जुलाई 1857 तक पूरी तरह शांत हो गया था और देश निरंकुश राजतन्त्रों को विदा कर जनतंत्र की राह में चलने लगा था।

लेकिन एक अन्य विषय पर चर्चा किये बगैर यह लेख अपूर्ण होगा। वह विषय है, विद्रोह के दमन के बाद दलितों और समाज सुधार कार्यक्रम के प्रति अंग्रेज सरकार ने अपनी नीतियोें में क्या परिवर्तन किये थे? इस विषय पर मुझे डाॅ. आंबेडकर के हवाले से विचार करना होगा। उन्होंने अपने शोध लेख ‘‘दि अनटचेबुल्स एण्ड दि पेक्स ब्रिटानिका’’ में इस विषय में कुछ नये तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो आज के दलित लेखकों को भी अंग्रेज सरकार के प्रति अपनी स्थापनाओं पर फिर से विचार करने के लिये बाध्य कर सकते हैं।

भारत को जीतने के लिये ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पहली लड़ाई 1757 में बंगाल के नवाब सिराजुदौला की सेना से प्लासी में लड़ी और उसकी जीत हुई। बंगाल पर कब्जा करने के बाद कम्पनी ने दूसरी लड़ाई 1818 में महाराष्ट्र के कोरेगांव में लड़ी। यही वह लड़ाई थी, जिसने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त किया और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की। भारत को जिन लोगों की मदद से जीता गया, वे भारतीय थे। वे कौन भारतीय थे, जो विदेशियों की सेना में शामिल हुए? आंबेडकर लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में भर्ती होने वाले लोग भारत के अछूत थे। जिन्होंने प्लासी की लड़ाई में भाग लिया, वे दुसाध थे और जिन्होंने कोरेगांव की लड़ाई लड़ी थी, वे महार थे- और दोनों ही अछूत जातियां हैं। इस प्रकार, पहली और दूसरी दोनों लड़ाईयों में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले लोग अछूत जातियों के थे। इस तथ्य को मारक्वेस ने पील कमीशन को भेजी गयी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था। 1857 के विद्रोह को कुचलने में भी बम्बई और मद्रास की जिस सेना ने मदद की थी, उनमें भी, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, महार और परिया अछूत जातियों के लोग ही अधिकांश संख्या में थे। इस प्रकार, अछूत जातियों ने न केवल भारत में अंग्रेजी राज कायम करने में मदद की, बल्कि उसे सुरक्षित भी बनाये रखा।

यह भी पढ़ें : जब आंबेडकर ने कहा ब्राह्मणवाद राष्ट्र-विरोधी है

पर, ब्रिटिश सरकार ने अछूतों की इन सेवाओं के बदले उनके साथ क्या व्यवहार किया? डा. आंबेडकर लिखते हैं कि सरकार ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। 1890 में उसने भारतीय सेना में अछूतों की भर्ती पर रोक लगा दी। उसने नये सिद्धान्त के तहत सेना में भर्ती के लिये लड़ाकू और गैर-लड़ाकू दो श्रेणियां बनायीं और अछूतों को ‘गैर-लड़ाकू’ श्रेणी में रखकर उनकी सेना में भर्ती बन्द कर दी। क्या वे लोग, जो भारत को जीतने और विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की तरफ से बहादुरी से लड़े, गैर-लड़ाकू श्रेणी में रखे जा सकते थे? हरगिज नहीं। असल बात यह है कि उनको सेना में सिर्फ इस कारण से नहीं लिया गया, क्योंकि वे अछूत थे। यहां यह सवाल किया जा सकता है कि फिर 1890 से पहले तक ये अछूत ब्रिटिश सेना में क्यों लिये जाते रहे? इसका कारण था, सेना के गठन का नया सिद्धान्त, जो 1890 में बनाया गया था। पहले सिद्धान्त के तहत सेना में सर्वश्रेष्ठ लोगों को लिया जाता था, उसमें जाति और धर्म की कोई समस्या नहीं थी। पर, नये सिद्धान्त में सेना में भर्ती के लिये आदमी की जाति ही उसकी शारीरिक और बौद्धिक योग्यता का मुख्य आधार बन गयी थी। अब एक दल या कम्पनी का गठन पूरी तरह एक ही वर्ग से किया जाने लगा। इस आधार पर सिख, डोगरा, गोरखा और राजपूत रेजिमेंट बनायी गयीं। नये सिद्धान्त में ये लड़ाकू श्रेणी में थे। डा. आंबेडकर यहां सवाल करते हैं कि जब वर्गीय आधार पर सिखों, डोगरों, गोरखों और राजपूतों की रेजिमेंट हो सकती है, तो अछूत रेजिमेंट क्यों नहीं हो सकती थी? दूसरा सवाल उन्होंने यह उठाया कि यदि लड़ाकू वर्ग से भर्ती का सिद्धान्त सही है तो जब तक यह साबित न हो जाय कि अछूत लड़ाकू वर्ग नहीं है, इस सिद्धान्त के आधार पर अछूतों की भर्ती को कैसे रोका जा सकता है? वास्तविकता यह थी कि पुराने सिद्धान्त के तहत सेना में सवर्ण हिन्दुओं की भर्ती बहुत कम होती थी, इसलिये अछूतों को भर्ती किया जाता था। किन्तु, विद्रोह के बाद, जब नया सिद्धान्त बना तो, जैसा कि आंबेडकर लिखते हैं, भारतीय शासकों की जाति निस्तेज हो गयी, तो हिन्दुओं ने ब्रिटिश सेना में घुसना शुरु किया- उस ब्रिटिश सेना में, जो पहले से ही अछूतों से भरी हुई थी, तब दो वर्गों- सवर्णों और अछूतों के सापेक्ष स्तर में समायोजन करने की समस्या पैदा हुई और अंग्रेजों ने, जो न्याय और सुविधा के बीच संघर्ष के मामले में हमेशा सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, समस्या का समाधान अछूतों को गैर लड़ाकू वर्ग घोषित कर सेना से, बाहर निकालने का फैसला लेकर किया। इस निर्णय ने अछूतों के जीवन को तबाह कर दिया। सेना में नौकरी अछूतों के सामाजिक स्तर में बदलाव का प्रतीक थी। वह उनमें स्वाभिमान का भाव पैदा करती थी। पर, अब अंग्रेजों ने उन्हें ऊपर से उठाकर नीचे फेंक दिया था।

डाॅ. आंबेडकर इसी लेख में आगे लिखते हैं कि 1857 के सिपाही विद्रोह ने अंग्रेजों को हर प्रकार के समाज सुधार के भी विरुद्ध कर दिया था। अंग्रेज आगे कोई खतरा लेना नहीं चाहते थे, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से यह खतरा बहुत बड़ा था। विद्रोह ने उन्हें इतना आतंकित कर दिया था कि उन्हें लगने लगा था कि वे समाज सुधार के कारण भारत को खो देंगे। इसलिये भारत पर अपने कब्जे के हित में उन्होंने समाज सुधार की किसी भी योजना को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। अतः कहना न होगा कि इस विद्रोह में ब्राह्मणवाद ने आंशिक रूप से अपना दबाव जरूर बना दिया था।

(कॉपी संपादन : इमामुद्दीन/एफपी डेस्क)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...