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अर्जक परंपराएं : द्विज परंपराओं को खारिज कर रहे बहुजन

बिहार के गांवों में तो यह सामान्य उक्ति है कि मरने पर बेटा ही कंधा देता है। इसलिए बेटियां बेटों की बराबरी नहीं कर सकती हैं। अर्जक परंपरा इसका विरोध करती है। इस परंपरा में जितना महत्व बेटों का है उतना ही महत्व बेटियों का भी है। फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :

बीते 28 अगस्त 2018 को बिहार के औरंगाबाद जिले में बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। सभी की आंखें गमगीन थीं। मौका शोक का था। रफीगंज प्रखंड के जाखिम गांव में औरंगाबाद जिला अर्जक संघ के पूर्व अध्यक्ष सुरेंद्र प्रसाद सिंह का निधन हो गया था। बड़ी संख्या में अर्जक संघ से जुड़े लोग उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने पहुंचे थे। सुरेंद्र प्रसाद सिंह ने आजीवन द्विज परंपराओं का विरोध किया था। उनके परिजनों ने उनके मरने के बाद भी द्विज परंपराओं का विरोध जारी रखा। इसमें उनके घर की महिलायें भी शामिल थीें। रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ते हुए घर की महिलाओं ने न सिर्फ उनकी अर्थी को कंधा दिया बल्कि वे श्मशान घाट भी पहुंचीं। द्विज परंपरा में महिलाओं द्वारा अर्थी को कंधा देने और श्मशान घाट जाने पर प्रतिबंध है।

बताते चलें कि अर्जक संघ की स्थापना रामस्वरूप वर्मा ने 1 जून 1968 को लखनऊ में किया था। इसका मकसद द्विज पाखंड के जाल में फंसे श्रमशील समाज के लोगों के सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करना है।

अंतिम यात्रा में लगे पाखंडवाद मुर्दाबाद के नारे

अर्जक संघी सुरेंद्र प्रसाद सिंह की अंतिम यात्रा जब शुरु हुई तब पूरा माहौल बदल गया। सभी लोगों ने द्विज परंपराओं का विरोध करते हुए ‘राम नाम सत्य है’ के बदले ‘सुरेन्द्र प्रसाद सिंह अमर रहें’, ‘मरना जीना सत्य है’ और ‘पाखण्डवाद मूर्दाबाद’ के नारे लगाये। ये नारे श्मशान घाट पर भी लगाये गये। वहां बिना ब्राह्मणों के अंतिम संस्कार को अंजाम दिया गया। पार्थिव शरीर को जलाने के पहले दो मिनट का मौन रखा गया। वहीं यह भी तय किया गया कि आगामी 8 सितंबर को एक शोक सभा का आयोजन उनके पैतृक गांव में किया जाएगा।

द्विज परंपरा को खारिज कर अर्थी को कंधा देतीं महिलाएं

रूढिवादी परंपराओं को चुनौती देने वाले इस अंत्येष्टि कार्यक्रम के मौके पर शोषित समाज दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष रघुनीराम शास्त्री, अर्जक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष शिवनन्दन प्रभाकर, राज्य संयुक्त सचिव बसंत कुमार वर्मा, रामप्रसाद सिंह, राज्याध्यक्ष उषाशरण, साहित्यकार प्रो. अलखदेव प्रसाद अचल, शंभूशरण सत्यार्थी, अशोक वर्मा, पूर्व सरपंच यमुना प्रसाद, सर्वोदय कुमार, मनोज कुमार,जनेश्वर मेहता,उमेश प्रसाद वर्मा, नन्दकिशोर मेहता. लालती कुमारी शिक्षिका,लीला देवी मिलन, शिला, मीना, प्रतिमा, पूजा, नीलम ,रानी सुन्दरम कुमारी, माला कुमारी, वसंती, रेणु कुमारी सहित बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे।

द्विज परंपरा की तरह अर्जक परंपरा में भोज शामिल नहीं

दरअसल यह महज एक उदाहरण नहीं है कि किस तरह अर्जक संघ द्विज परंपराओं को चुनौती दे रहा है और बहुजन समाज इसमें शरीक हो रहा है। अर्जक संघ के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पूर्व अध्यक्ष उपेंद्र पथिक बताते हैं कि अर्जक परंपराएं बहुजन समाज के लोगों में इसलिए लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि इसमें पाखंड नहीं है। कोई ब्राह्मण इसमें शामिल नहीं होता। साथ ही यह खर्चीला भी नहीं होता। जबकि द्विज परंपरा में पाखंड ही पाखंड है। जिस परिवार में किसी की मौत होती है, उस परिवार पर उसी दिन से भोज देने का दबाव बनाया जाता है। यहां तक कि लोग श्मशान घाट पर भी चिता के जलने के बाद होटल में जलेबी-पूरी और सब्जी खाते हैं। इसके दूसरे दिन दुधमुंही का रस्म निभाया जाता है और इस दिन भी मृतक के परिवार को अपने पड़ोसियों को भोज देना पड़ता है।

उपेंद्र पथिक, अर्जक संघ के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष

उपेंद्र पथिक बताते हैं कि द्विज परंपरा में भोज का यह सिलसिला तेरहवीं तक चलता रहता है। पहले सात दिनों पर होने वाले रस्म, फिर दशकर्म के मौके पर और अंत में तेरहवीं के मौके पर मृतक के परिजनों को भोज का बोझ उठाना पड़ता है। लेकिन इसके विपरीत अर्जक परंपरा में भोज बाध्य नहीं है। सामान्य तौर पर जिस दिन शोक का दिन निर्धारित रहता है, लोग मृतक के घर पर जुटते हैं। इस मौके पर सभी मृतक की स्मृति में मौन रखते हैं। फिर उनके कर्मों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। कार्यक्रम के अंत में मृतक परिवार अपनी इच्छानुसार लोगों को खाना खिलाते हैं।

क्या इसे भोज की संज्ञा नहीं दी जा सकती है? इसके जवाब में उपेंद्र पथिक कहते हैं कि यह ब्रह्मभोज नहीं है। इसमें कोई ब्राह्मण शामिल नहीं होता है। यह जरुरी नहीं है कि मृतक के परिजन शोक सभा में शामिल होने आये लोगों को खिलायें ही। उनके मुताबिक बिहार के ग्रामीण इलाकों में लोगों ने अपनी तरफ से यह परंपरा बना ली है कि जब वे दूसरे के यहां खाते हैं तो उन्हें भी अपने यहां शादी या गमी(निधन) के मौके पर खिलाना पड़ेगा। लेकिन अर्जक परंपरा में यह शामिल नहीं है।

असुर परंपरा में भी अंत्येष्टि में शामिल होती हैं महिलाएं

मृत्यु के उपरांत अर्जक संघ परंपरा के तहत किये जाने वाले संस्कार झारखंड के गुमला जिले के आसपास के इलाके में रहने वाले असुर समाज की परंपराओं से मेल खाते हैं। असुर परंपरा में भी लोग सामुहिक रूप से मृतक के शव को दफनाते हैं और चार-पांच दिनों के बाद लोग मृतक को याद करने जुटते हैं। इसमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वहां मृतक का परिवार अपने गांव के लोगों की सहायता से यथाशक्ति साग-भात आदि का प्रबंध करता है। इस मौके पर लोग अपनी परंपरा के मुताबिक हड़िया(घर में बनी शराब) का सेवन करते हैं। लेकिन इन सबके लिए मृतक के परिजनों पर दबाव नहीं बनाया जाता है।

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लकड़ी के बजाय विद्युत शवदाह गृह के उपयोग की सलाह

अर्जक परंपरा में मृत्यु के उपरांत होने वाले संस्कार में कुछ भी बाध्यकारी संस्कार नहीं हैं। मसलन यदि कोई मुस्लिम या ईसाई परिवार जो अर्जक परंपरा में विश्वास रखता हो, वह अपने हिसाब से अंत्येष्टि की प्रक्रिया का निर्धारण करता है। उपेंद्र पथिक बताते हैं कि अर्जक परंपरा द्विज परंपराओं की तरह केवल शव को जलाने में विश्वास नहीं रखता है। यदि कोई परिवार दफन करना चाहे तब उसे कोई मनाही नहीं होती। शव को जलाने के मामले में भी यह जरुरी नहीं है कि लकड़ी से ही जलाया जाये। खर्च से बचने के लिए तहत हम अपने अर्जक संघ के साथियों से विद्युत शवदाह गृह में शव जलाने की सलाह देते हैं।

यह भी पढ़ें : रामस्वरूप वर्मा की यादें

अर्जक परंपरा में महिलाओं को विशेष स्थान है। अंत्येष्टि कार्यक्रम में भी वे शामिल होती हैं। इस संबंध में उपेंद्र पथिक बताते हैं कि यह द्विज परंपरा के विरूद्ध है। द्विज परंपरा में महिलाओं को केवल रोने-धोने के लिए विवश किया जाता है। इससे उनके पूरे सामाजिक अस्तित्व पर सवाल उठता है। लोग भी बेटियों को कम महत्व देते हैं। बिहार के गांवों में तो यह सामान्य उक्ति है कि मरने पर बेटा ही कंधा देता है। इसलिए बेटियों को उनका अधिकार नहीं दिया जाता है। अर्जक परंपरा इसका विरोध करता है। इस परंपरा में जितना महत्व बेटों का है उतना ही महत्व बेटियों का भी है।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)


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