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भीमा-कोरेगांव मामले में न्यायिक सुनवाई 5 सितंबर से

इसी वर्ष 1 जनवरी 2018 को जब देश भर के दलित दो सौ वर्ष पहले पेशवाई राजाओं के खिलाफ मिली बड़ी जीत का जश्न मनाने एकत्रित हुए थे तब संघ समर्थकों द्वारा उनका विरोध किया गया और तदुपरांत हिंसक घटनायें घटित हुई थीं। फरवरी में इसकी जांच को लेकर फड़णवीस सरकार द्वारा गठित न्यायिक आयोग अब हरकत में आया है। एक खबर :

इस वर्ष 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव मामले में जो हिंसा हुई उसकी जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग आगामी 5-7 सितंबर 2018 के बीच सुनवाई करेगा। बताते चलें कि भीमा-कोरेगांव में विजय उत्सव के दौरान दलितों और विशेषकर पेशवाई समर्थक मराठों के बीच भारी हिंसा हुई थी जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी।

घटना की पृष्ठभूमि

अगर आज का भारतीय समाज दलितों की अस्मिता का सम्मान कर रही होती तो भीमा-कोरेगांव मामले पर कोई विवाद ही नहीं उठता। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मराठा अस्मिता से उसके टकराव की बात ही कहाँ आती है? कई लोगों, विशेषकर सवर्णों ने यह बात कही थी कि दो सौ वर्षों से ज्यादा इस पुरानी बात को याद करने की जरूरत ही क्या थी। उनकी इस आपत्ति का कोई मोल तब होता जब लोकतांत्रिक भारत में दलितों पर हर तरह का उत्पीड़न रुक गया होता। पर ऐसा नहीं हुआ। और फिर जब सवर्णों ने अपने प्रतीकों और अपने वीरों का यशोगान शुरू कर दिया और जब वे कहते हैं कि उन्हें ऐसा करने से कोई रोक नहीं सकता तो फिर दलितों को अपने नायकों की यशोगाथा को याद करने से वे कैसे रोक सकते हैं? वैसे भी सवर्णों की जीत के खलनायक अमूमन दलित और पिछड़े ही होते हैं। अब अगर दलितों की जीत में कोई खलनायक सवर्ण है तो इसमें हर्ज ही क्या है? और इस आधार पर इस पर विवाद ही क्यों हो? पर यहीं शुरू होती है वर्चस्ववादी वर्ण व्यवस्था की दबंगई और वे दलितों और पिछड़ों को ऐसे प्रतीकों का उत्सव मनाने से रोकते हैं क्योंकि यह उनके तथाकथित आराध्यों को दलितों की नजर में खलनायक बताता है।

इसी वर्ष 2 जनवरी को भीमा-कोरेगांव हिंसा के विरोध में मुंबई में दलित संगठनों द्वारा आहूत महाराष्ट्र बंद के दौरान उमड़े जनसैलाब की तस्वीर

जब 500 महार सैनिकों ने 25 हजार पेशवाई सैनिकों को हराया था

अब जरा भीमा-कोरेगांव की ऐतिहासिकता पर एक नजर डालें। यहाँ 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की महार सेना और पेशवा की सेना के बीच भीमा-कोरेगांव में लड़ाई हुई थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी की इस महार सेना के 500 सैनिकों ने पेशवा वाजीराव द्वितीय की 25 हजार सैनिकों की सेना को हरा दिया। महार अछूत माने जाते थे। और इसलिए यह महज एक जीत नहीं थी। यह जाति उत्पीड़न और दमन के खिलाफ एक भारी विजय भी था। महार सैनिकों की इस विजय और इसमें मारे गए महार सैनिकों की याद में 1851 में सनासवाडी गाँव में विजय स्तम्भ की स्थापना अंग्रेजों ने की। बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1 जनवरी 1927 से इस विजय स्तंभ पर समारोह मनाने की परंपरा शुरू की। तब से यह समारोह हर साल मनाया जाता है।

भीमा-कोरेगांव : पेशवाओं पर दलितों के विजय का प्रतीक

पांच सौ गवाहों से पूछताछ करेगा आयोग

1 जनवरी 2018 को भी दलित यही करने यहाँ जमा हुए थे पर इनका विरोध करने वालों का कहना था कि वे दरअसल पेशवा के खिलाफ अंग्रेजों की जीत का विजय मनाने जमा हुए हैं।

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सवर्णों को दलितों का यह विजयोत्सव पसंद नहीं आया और उन्होंने उन्हें ऐसा करने से रोका और इस क्रम में हिंसा हुई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने 9 फरवरी को एक न्यायिक आयोग का गठन किया था और इस हिंसा के बारे में चार माह के भीतर रिपोर्ट देने को कहा था। कायदे से इस आयोग को अपनी रिपोर्ट जून माह में ही समर्पित करना था लेकिन आयोग ने तब कोई एक्शन नहीं लिया।

अब समाचार एजेंसी आईएएनएस की खबर (बिजनेस स्टैण्डर्ड, 18 अगस्त 2018) के अनुसार, यह आयोग 5 से 7 सितंबर 2018 के बीच इस मामले की पहली सुनवाई करेगा। इस आयोग के सदस्यों में बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एन. पटेल और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव सुमित मल्लिक शामिल हैं। आयोग भीमा-कोरेगाँव का दौरा कर चुका है और इस मामले से संबंधित दस्तावेजों का संग्रहण किया है।  

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आयोग को गवाहों से पूछताछ करनी है जिनकी संख्या लगभग 500 है, इस से संबंधित दस्तावेजों की जांच करनी है जो लगभग 10 पृष्ठों की है। आयोग इस बात की जाँच करेगा कि दंगा कैसे और क्यों भड़का और पुलिस और प्रशासन ने इसके लिए किस तरह के इंतजाम किये थे। इस मौके पर भीमा-कोरेगांव में दो लाख दलित जमा हुए थे। पुलिस ने इस दिन हुई हिंसा के मामले में जिन लोगों को नामजद किया है उनमें प्रमुख हैं हिंदुत्व नेता मिलिंद एकबोटे जो हिंदू एकता समिति के प्रमुख हैं। उन्हें हिंसा फैलाने के आरोप में मार्च में गिरफ्तार किया गया था पर बाद में उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया।

भीमा कोरेगांव हिंसा का मुख्य आरोपी संभाजी भिड़े

इस वर्ष जनवरी में पुलिस ने एकबोटे के अलावा हिंदुत्व नेता संभाजी भिडे के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मामला दायर किया था जो कि श्री शिवप्रतिष्ठान इंडिया का प्रमुख है। भिडे पर भीमा-कोरेगांव में हिंसा फैलाने का आरोप है।

इस कार्यक्रम के दौरान हुई हिंसा में पुणे के विश्रामबाग थाने में पुलिस ने कबीर कला मंच के कार्यकर्ताओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के आरोप में मामला दर्ज किया। तुषार दमगुडे की शिकायत पर जिन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया वे हैं सुधीर धावले, सागर गोरखे, हर्शाली पोतदार, रमेश गयचोर, दीपक डेंगले और ज्योति जगताप। दर्ज की गई शिकायत में इन्हें शहरी माओवादी बताया गया है।

इस मामले में अचानक इस वर्ष जून में पांच लोगों को पुणे पुलिस ने माओवादियों से सम्बन्ध होने तथा भीमा-कोरेगांव में दलितों को हिंसा के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया। इनमें रिपब्लिकन पैंथर के सुधीर धावले, सामाजिक कार्यकर्ता राणा जैकब विल्सन, वकील सुरेन्द्र गैडलिंग, महेश राउत और प्रो. सोमा सेन शामिल थीं।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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