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कॉरपोरेट बना रहे नई वन नीति, आदिवासी कर रहे विरोध

सरकार का नई वन नीति का मसौदा बनकर तैयार है। उस पर अभी बहस शुरू ही हुई जाती थी कि विरोध भी शुरू हो गया। इस नीति से किसका हित साधा जा रहा है? अंदेशा है वन संपदा खत्म हो जाएगी और आदिवासियों से लेकर पहाड़ी राज्यों में लोगों के सामने मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। कमल चंद्रवंशी रख रहे हैं ब्यौरा :

आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच (एएआरएम) के राष्ट्रीय संयोजक और सांसद जितेंद्र चौधरी ने एनडीए सरकार के राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे में आदिवासियों की हितों को अनदेखी करने के लिए राजनीतिक दलों, गैर-सरकारी संगठनों और लोगों से विरोध में लामबंद होने की अपील की है। इस बीच नई वन नीति के मसौदे को लेकर कई राजनीतिक दलों ने सक्रियता दिखानी शुरू कर दी है। उनका कहना है कि आदिवासियों के हित में सोचने वाले सभी लोगों को एक मंच पर आना होगा क्योंकि वनों को कारर्पोरेट हाथों में सौंपने का सरकार का इरादा उजागर हो चुका है।

बीते 12 अगस्त 2018 को एएआरएम और अन्य नागरिक संगठनों द्वारा विशाखापत्तनम में सेमिनार का आयोजन किया गया। आंध्र प्रदेश का प्रमुख संगठन गिरिजन संघम ने राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे का कड़ा विरोध किया है। मुख्य वक्ता के तौर पर जितेंद्र चौधरी ने कहा कि नीति का पूरा मसौदा कॉरपोरेट क्षेत्र के निहित हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। सांसद ने कहा कि नई नीति वनों पर आदिवासियों के अधिकारों को खत्म कर देगी। वास्तव में, सरकार ने नई नीति में जनजातियों और उनके अधिकारों के बारे में कोई उल्लेख तक नहीं किया गया है। उन्होंने कहा कि यह नीति 1988 से अलग है, जिसमें आदिवासियों के वन अधिकारों को लेकर स्पष्ट उल्लेख किया गया था।

चौधरी ने कहा एनडीए सरकार पर्यावरणीय चुनौतियों को दरकिनार करके खनन के लिए अनुमति दे रही है। पूर्व आईएएस अधिकारी ईएएस शर्मा ने मांग की कि केंद्रीय और राज्य सरकारें सभी ग्राम सभाओँ में राष्ट्रीय वन नीति-2018 पर चर्चा करने के लिए कदम उठाएं। वक्ताओं ने कहा कि सरकार जानबूझकर वन, वन भूमि और वन उत्पादन पर जनजातियों के अधिकारों को खत्म कर रही है। नई नीति देश पर्यावरणीय संकट पैदा करने वाली है। इस नीति के चलते  देश में वनों के आसपास रहने वालों का जीवन बुरी तरह प्रभावित होगा।

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वहीं भद्रचलम के विधायक एस. राजाया ने कहा कि हाल के दशकों तक आदिवासियों को मिले सारे अधिकार इस नीति से छिन लिए जाएंगे।

मसौदे में सरकार ने धारा संख्या 4.8 में नए कानूनी दिशानिर्देश पेश किए गए हैं। इसमें जनजातीय अधिकारों को लेकर समितियां स्थापित करने की बात कही गई है। आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों का कहना है कि यह आदिवासियों की आंख में धूल झोंकने का काम किया गया है। राजाया ने कहा कि ये केवल जनजातियों का मुद्दा नहीं है, बल्कि अगली पीढ़ी के लिए भी नई वन नीति भी बहुत खतरनाक संकेत हैं।

आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच ने कई नागरिक संगठनों के साथ आंध्र विश्वविद्यालय में वन नीति मसौदे पर विचार विमर्श किया

जनजातीय संस्कृति अनुसंधान संगठन के पूर्व निदेशक वी.एन.वी.के. शास्त्री, ए.पी. गिरिजन संघम के महासचिव पी. अपला नरसा, तेलंगाना आदिवासी गिरिजाण संघम के महासचिव टी. भीमराव और अखिल भारतीय जनजातीय कर्मचारी संघ ने वन नीति में पारदर्शिता ना लाने की स्थिति में जन आंदोलन करने की चेतावनी दी।

सीपीएम ने सरकार को लिखा

जानकारी के मुताबिक, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे की तीखी आलोचना की है और इसे आदिवासियों के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला कहा है। पार्टी की वरिष्ठ नेता एवं पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने वन मंत्रालय को इस बारे में एक विस्तृत नोट भेजा है। पार्टी ने कहा है कि यह मसौदा कारर्पोरेट को फायदा पहुंचाने वाला और आदिवासियों के वन अधिकार को छीनने वाला है। इससे जंगलों का निजीकरण होगा। इस मसौदे में वनीकरण की ज़मीन के सवाल को लेकर अस्पष्टता है।

वन अधिकारों की हिफाजत में खड़े ओडिशा के आदिवासी समुदाय के लोग]

कितना क्षेत्र है वनों से आच्छादित?

अंग्रेजी दैनिक द हिंदू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा वनों पर खतरे की पहचान तो करता है, लेकिन सामूहिक भागीदारी के लिए किसी तरह का सिस्टम प्रदान नहीं करता। रिपोर्ट के अनुसार वनों से आच्छादित क्षेत्र में देश में कमी आई है और कुछ इलाकों में ही मामूली ही बढोतरी हुई है। वन नीति मसौदे में देश को वनों (एक- तिहाई) अधिकाधिक घना करने, वन प्रबंधन में जन भागीदारी शामिल करने और औद्योगिक उपयोग के लिए वृक्षारोपण करने जैसी बातें हैं। लेकिन ऐसी पॉलिसी तैयार करने से पहले सवाल पूछा जाना चाहिए कि भारत में वास्तव में कितना भूभाग वनों से आच्छादित है, कितने क्षेत्र में वास्तव में वन हैं?

आशंकाओं का आधार

दरअसल वन नीति मसौदा में कई खामियां हैं। इस नीति में उत्पादन वानिकी को मुख्य क्षेत्र के रूप में पहचान की गई है। वन विकास निगमों को एक इसके लिए संस्थागत जिम्मेदारी सौंपी गई है। जानकारों के मुताबिक लेकिन ये ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे। सार्वजनिक-निजी भागीदारी- पीपीपी मोड वन भूमि पर कॉर्पोरेट निवेश लाने का प्रयास करेंगे जो बाज़ारीकरण के लिए संसाधनों के अनुचित दोहन को बढ़ावा दे सकता है। नीति में उत्पादन वानिकी पर जोर है। हिमालय में प्राकृतिक ओक वनों को पाइन मोनोकल्चर से, मध्य भारत में प्राकृतिक साल वनों को सागौन पौधों से और पश्चिमी घाटों में आर्द्र सदाबहार वनों को यूकेलिप्टसऔर एकेसिया से प्रतिस्थापित कर दिया। इस सब ने विविधता को नष्ट कर दिया है। जलधाराओं को सुखा दिया और स्थानीय आजीविका को दुर्बल बना दिया। सार्वजनिक-निजी भागीदारी इस तरह के विनाश को और बढ़ावा दे सकती है और वनों से उत्पन्न लाभांश को कॉरर्पोरेट जगत के हाथों में केंद्रित कर सकती है। यदि स्थानीय समुदायों को वन शासन में भागीदारी का मौका दिया जाए तो वे इस उत्पादन वानिकी मॉडल को चुनौती देंगे। अतः मसौदा नीति में विकेंद्रीकृत शासन के बारे में बहुत कम ज़िक्र किया गया है और ‘सामुदायिक भागीदारी’ शब्द का बेहद हल्के रूप में प्रयोग किया गया है।

सरकार बताएगी कि आदिवासियों को ईंधन के लिए लकड़ी क्या काटनी है, क्या जलानी है

खतरे और भी हैं

इकोनोमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मंत्रालय ने इस प्रस्ताव पर पर्यावरण सेस को जगह नहीं दी है लेकिन कई ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो पहले विवादित हैं। इस नई पॉलिसी में वनों के विकास के लिए पीपीपी मॉडल भी लागू करने का प्रस्ताव है। ड्राफ्ट के मुताबिक, ‘वनों के संरक्षण और में वृद्धि के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लागू किया गया। यह नीति वन निगमों के क्षेत्र और उनके दायरे से बाहर भी लागू होगी।’  इस प्रस्ताव पर पर्यावरणविदों को एतराज भी हो सकता है, जो वन संरक्षण में निजी सेक्टर के दखल का विरोध करते आए हैं। वन नीति का मसौदा कहता है: “अतिक्रमण, अवैध तरीके से पेड़़ गिराना, जंगल की आग, खतरनाक खरपतवार, चराई इत्यादि से वनों को खतरा है।” लेकिन क्या यह खतरा प्राइवेटाइजेशन से बड़ा है?

कुल मिलाकर नई वन नीति का मसौदा आदिवासियों के वन अधिकार कानून में सेंधमारी की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। मध्य हिमालय के सातों पहाड़ी राज्य इस नीति से बहुत प्रभावित होने वाले हैं जो वनों पर निर्भर हैं और इस मसौदे के मुताबिक उनको नए विकल्पों की तलाश में जाना होगा। क्या वह भी तैयार हैं? क्या शहरी क्षेत्र इस काबिल रह गए हैं कि वहां सरकार हरे पेड़ लगाकर सारे वन क्षेत्रों को तहस नहस कर भरपाई कर सकती है?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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