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जानिए, आदिवासियों को क्यों डरा रहा वन नीति का नया ड्राफ्ट?

राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे को लेकर देश में हंगामा है। नीति में आदिवासी इलाकों, उत्तर-पूर्व समेत सभी हिमालयी राज्यों में लोगों, गांवों, पंचायतों के स्वामित्व वाले वन क्षेत्रों को सीधे-सीधे सरकारी हाथों में लेने की बात कही गई है। क्या कहता है पूरा मसौदा, ब्यौरा रख रहे हैं कमल चंद्रवंशी :

निजी और सामुदायिक सभी वनों पर होगा सरकार का कब्जा

प्रस्तावित नये वन नीति के मसौदे में भूमिका बहुत आकर्षक है। उसके अनुसार, (1) पर्यावरण के लिए हमारे जंगल एक ऐसा गतिशील तंत्र हैं जो पौधों, जंगली जानवरों और सूक्ष्मजीवों की हिफाजत करते हैं और राष्ट्र को पारिस्थितिकीय सुरक्षा प्रदान करते हैं। लकड़ी का मुख्य स्रोत तो जंगल हैं ही,  नॉन-टिंबर उत्पादों में जिनमें आवश्यक दवाएं, घास और आबोहवा संबंधी कई अन्य जरूरी सेवाएं हैं जो हमें वनों से मिलती हैं। ये निश्चित ही मानव जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। आइये, इस मसौदे को विस्तार से जानते हैं।

  1. माना जाता है कि आज़ादी से पूर्व बनी वन नीतियां मुख्य रूप से राजस्व प्राप्ति तक केंद्रित थीं जिसका स्वामित्व शाही वन विभाग यानी इंपीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट होता था। वह वन संपदा का संरक्षणकर्त्ता और प्रबंधक भी था। लेकिन आज़ादी के बाद भी वनों को मुख्यतः उद्योगों के लिए कच्चे माल के स्रोत के रूप में ही देखा गया और वन आश्रित स्थानीय समुदायों के साथ मजदूरों जैसा बर्ताव किया जाता रहा। राष्ट्रीय वन नीति 1988 में वनों को महज़ राजस्व स्रोत के रूप में न देखकर इन्हें पर्यावरणीय संवेदनशीलता एवं संरक्षण के महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में देखा गया।

साथ ही  इस नीति में यह भी कहा गया कि वन उत्पादों पर प्राथमिक हक उन समुदायों का होना चाहिए जिनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन वनों से ही होती है। राष्ट्रीय वन नीति मसौदा 2018 में वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने पर जोर है। हालांकि 1990 के दशक में संयुक्त वन प्रबंधन यानी ज्वॉइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट की शुरुआत की गई थी। सरकार के मुताबिक, इनसे यथास्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आ पाया। वर्ष 2006 में वन अधिकार अधिनियम  पारित किया गया जिसमें स्थानीय समुदायों को वनों तक पहुँच और प्रबंधन के अधिकार दिए गए थे।

2. सन् 1894 और 1952 की वन नीतियों ने जंगलों से उत्पादन और राजस्व जुटाने के पहलुओं पर जोर दिया गया था। जबकि राष्ट्रीय वन नीति 1988 का मुख्य उद्देश्य पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना था। साथ ही, वायुमंडलीय संतुलन और पारिस्थितिकीय संतुलन को लेकर जोर दिया गया था। इसमें वनों की हरियाली बचाने के साथ जंगली जानवरों की हिफाजत पर बल दिया गया ताकि मानव जीवन को भी महफूज रखा जा सके। 1988 की नीति में मान्यता दी गई कि वनों से मिलने वाले प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ को उसके मुख्य उद्देश्यों के बाद वरीयता दी जाएगी। इस नीति ने पारिस्थितिकीय सुरक्षा, टिकाऊ वन प्रबंधन और लोगों की भागीदार को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सभी तरह के जंगलों पर होगा सरकार का कब्जा

3.  इस दौरान वनों, वन्य जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा पर भारत कई अंतर्राष्ट्रीय शिखर वार्ताओं और सभा-सम्मेलनों में भाग लेता रहा जिसमें हमने निर्धारित लक्ष्यों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को रखा। राष्ट्रीय स्तर पर भी संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में चली बहस और विचार-विमर्श के दौरान कई अहम मसले सामने आए। इन सबके संदर्भ में, जो भी महत्वपूर्ण बिंदु उभरे और लक्ष्यों को हासिल करने जो जरूरी हैं, उसे वन नीति में शामिल करना आवश्यक हो गया है।

4. सन् 1988 की वन नीतियों पर क्रियान्वयन के चलते जंगल बढ़े, अधिकाधिक पेड़ लगे, बढ़ती आबादी, औद्योगिकीकरण और तेजी से आर्थिक विकास से जुड़ी मांगों के बावजूद वन भूमि के इस्तेमाल को लेकर परिवर्तन में कमी आई। हालांकि, हमारे प्राकृतिक जंगलों की खराब गुणवत्ता और कम उत्पादकता, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, मानव और वन्यजीवन के आपसी टकराव, जल संकट के बढ़ने,  हवा और जल प्रदूषण बढ़ने से पर्यावरणीय हालात बिगड़ते गए जो गंभीर चिंता का विषय हैं। तकनीक में नई-नई प्रगति के बावजूद जैव विविधता के संरक्षण को लेकर और वन पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए बढ़ी चिंताओं और जरूरतों के बीच इस क्षेत्र में कम निवेश हुआ जिससे वन प्रबंधन के लिए नई चुनौतीयां खड़ी हो गई।

5. इसलिए यह देखते हुए कि पर्यावरणीय तंत्र की सुरक्षा कैसे हो, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल किस तरह चलना है, वन जल विज्ञान, वन प्रबंधन में सहभागिता को कैसे सुनिश्चित किया जाए, इसके लिए राष्ट्रीय वन नीति 1988 को संशोधित करने की आवश्यकता है। शहरी वानिकी, स्थायी वन प्रबंधन, निगरानी तंत्र को खड़ा करने जैसे अहम मुद्दों और अपनी धनधान्य सांस्कृतिक विरासत के निर्माण में आपसी सहभागिता किस तरह से पनपे, यह जरूरी है और इसलिए भी वन नीति में फिर से संशोधन की जरूरत है।

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वन नीति के लक्ष्य और उद्देश्य

वर्तमान वन नीति का असल मकसद और लक्ष्य पारिस्थितिकीय और आजीविका सुरक्षा की हिफाजत करना है। पारिस्थितिकीय तंत्र की सेवाओं के क्रम में तेजी लाने लिए जंगलों के सतत प्रबंधन पर वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियां निर्भर हैं। पारिस्थितिकीय हिफाजत के लिए राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल करने के लिए पहाड़ियों और पहाड़ी क्षेत्रों में भू-धंसाव रोकने के लिए जंगलों और इसके निचले क्षेत्रों में दो-तिहाई हिस्से को मजबूत बनाना होगा ताकि जमीन बची रहे और नाजुक पर्यावरणीय स्थिति को स्थिरता प्रदान की जा सके।

जल, जंगल और जमीन से और दूर होंगे आदिवासी

राष्ट्रीय वन नीति के उद्देश्य

  1. प्राकृतिक जंगलों के संरक्षण और रखरखाव के माध्यम से जैव विविधता और पर्यावरणीय स्थिरता कायम करना
  2. प्राकृतिक ढांचे में बिना किसी छेड़छाड़ के जंगलों को बचाने के लिए पुनर्वास संबंधी उपाय
  3. पारिस्थितिकीय तंत्र को मजूबत करना ताकि इन पर (वनों पर) निर्भर लोगों के लिए आजीविका में सुधार किया जा सके।
  4. देश में वानिकी से संबद्ध राष्ट्रीय निर्धारित योगदान लक्ष्य (एनडीसी) हासिल कर (देश के विकास में) योगदान देना।
  5. एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन तकनीक के इस्तेमाल से नदियों के कैचमेंट एरिया और दूसरी सिंचित भूमि में भू-कटान पर निगरानी करना।
  6. वनों की वनस्पतियां और वन मिट्टी के स्वास्थ्य के रखरखाव के लिए जल आपूर्ति कायम करना जिसमें भूमिगत जलविद्युत के रिचार्ज और सतह पर मौजूद जल प्रवाह के जरिए मदद ली जाएगी।
  7. जंगल वाली जमीन की सुरक्षा को पुख्ता करना जिसमें गैर-वानिकी प्रयोजनों के लिए उसके इस्तेमाल पर सख्त अंकुश होगा। साथ ही वन भूमि की रक्षा के लिए निगरानी तंत्र खड़ा करना।
  8. वनीकरण और पेड़ों को लगाने के लिए के लिए पुनररोपण जैसे विशेष कार्यक्रम चलाना खासकर जंगल क्षेत्रों की वह जमीन जो खाली है और जंगलों से बाहरी  क्षेत्रों में है। इनके लिए जमीन की सतह और जमीन के नीचे से पानी की व्यवस्था करना शामिल है।
  9. जैव विविधता संरक्षण के मूल उद्देश्य और अन्य पारिस्थितिकीय तंत्र को समृद्ध करने के लिए संरक्षित क्षेत्रों और अन्य वन्यजीवों से समृद्ध इलाकों का प्रबंधन।
  10. पहाड़ में जंगलों का संरक्षण और स्थायी तौर पर प्रबंधन के लिए अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम आबादी दोनों के लिए वाटरशेड, जैव विविधता, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सेवाओं और पारिस्थितिकीय तंत्र का ठोस बनाने की कोशिश।
  11. हरियाली वाले पर क्षेत्र नजर रखने, पारिस्थितिकीय हालात का मूल्यांकन और जलवायु परिवर्तन जैसी चिंताओँ में पारिस्थितिकीय प्रणालियों की योजना और प्रबंध करना।
  12. नियमों को मजबूत करने और लकड़ी के बने उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देने के साथ एग्रो व फार्म फॉरेस्टी को प्रोत्साहित करना। जंगलों क्षेत्र के बाहरी क्षेत्र लमें वृक्षारोपण करना जिससे रिटर्न सुनिश्चित हो सके।
  13. आरईडीडी (रिड्यूजिंग इम्मीशन्स फ्राम डिफोरेस्टेशन एंड फारेस्ट डिग्रेशन- वन कटाई और वनों की कमी में उत्सर्जन का कार्य) के माध्यम से वन प्रबंधन ताकि जलवायु परिवर्तन की स्थिति से पैदा प्रभाव कम किए जा सकें।
  14. सामुदायिक और निजी प्रबंधन के स्वामित्व वाले वनों के विकास के लिए निरंतर लोगों को भागीदारी से जोड़कर लक्ष्य हासिल करना
  15. स्थानीय लोगों के हितों को देखते हुए शहरी और उनसे लगते क्षेत्रों में हरियाली जगहों का प्रबंधन और विस्तार करना।
  16. नीति को कारगर तरीके से लागू करने के लिए विश्वसनीय उपायों से बंदोबस्त करना, निगरानी बढ़ाने और मूल्यांकन के ढांचे की स्थापना करना। सुशासन सुनिश्चित करने, समान वित्तीय सहायता प्रदान करने और समय समय पर समीक्षा के साथ कार्यान्वयन ढांचे को सुनिश्चित करने का कार्य।

वन प्रबंधन के लिए तय आवश्यक सिद्धांत

  1. मौजूदा प्राकृतिक वनों को पूरी तरह संरक्षित किया जाना चाहिए और उनकी उत्पादकता में सुधार हुआ हो। पहाड़ी ढलानों पर नदियों, झीलों और जलाशयों और महासागरों के तटवर्ती क्षेत्र और अर्द्ध शुष्क और रेगिस्तान के इलाकों में तेजी से वन कवर को बढ़ाने के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएंगे।
  2. वैज्ञानिक और तकनीकी हस्तक्षेपों के माध्यम से वन वृक्षारोपण से उत्पादकता बढ़ाई जाएगी ताकि लकड़ी के अधिक उपयोग को प्रोत्साहन मिले और अन्य उच्च कार्बन छोड़ने वाले साधनों का कम से कम उपयोग हो।
  3. देश की पर्यावरणीय हिफाजत के लिए पारिस्थितिकीय तंत्र सेवाओं को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना। प्राकृतिक जैव विविधता को ध्यान रखकर वनों का समृद्ध विकास करना।
  4. वनस्पतियों, वन्य जीवों और संपूर्ण जैव-विविधता के संरक्षण के लिए, राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों, वन संरक्षित क्षेत्रों, सामूहिक नियंत्रण वाले वनों, जीव जंतुओं  वाले क्षेत्र और महत्वपूर्ण वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों व जैव विविधता के पूर्ण विरासत स्थलों का नेटवर्क मजबूत करना।
  5. उपयुक्त प्रजातियों के पौधों के रोपण से वनीकरण का तेज करना। ग्रामीण क्षेत्र की आबादी को ईंधन के लिए लकड़ियों के कम से कम इस्तेमाल या छोटी लकड़ियों के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करना। वनों पर निर्भरता को कम करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी जैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को बढ़ावा दिया जाएगा।
  6. आदिवासी और अन्य वन आश्रित क्षेत्र की आबादी की आय में सुधार के लिए नॉन-टिंबर फॉरेस्ट रिड्यूज (एनटीएफी) जैसे कि औषधीय और सुगंधित पौधों, तेल के बीज, राल, जंगली खाद्य पदार्थ, फाइबर, बांस और घास का स्थायी रूप से प्रबंधन किया जाएगा।
  7. वन क्षेत्रों के बाहर पेड़ लगाने और शहरी ग्रीन क्षेत्रों को मिशन मोड पर लिया जाएगा ताकि राष्ट्रीय स्तर पर एक-तिहासी भाग में वनों और पेड़ों से आच्छादित करने का लक्ष्य हासिल किया जा सके। साथ ही इससे नेशनल डिटरमिंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) के लक्ष्य को पाने में उम्मीद बढ़े।
नागालैंड के वन क्षेत्रों में खदान माफिया का विरोध करते स्थानीय लोग

नये वन नीति को लागू करने की रणनीति

वनों का सतत प्रबंधन

(क) वनों पर खतरों को कम से कम करना होगा। वनों क्षेत्र में अतिक्रमण,  पेड़ों को अवैध तरीके से गिराना, जंगल की आग, खतरनाक खरपतवार, जानवरों की चराई आदि के विभिन्न खतरे हैं- इन सबको लेकर अनुमोदित कार्य योजना / प्रबंधन योजना के ढांचे के भीतर वन प्रबंधन होगा जिसमें सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करके आगे बढ़ा जाएगा।

(ख) वनों की आग पर रोकथाम के लिए प्रावधान- जलवायु और लैंडयूज में बदलाव के साथ जंगलों में भीषण आग को जैव विविधता के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है। जंगल की आग और उनके फैलने की लगातार बढ़ती घटनाओँ के परिणामस्वरूप हर साल वन कार्यों और संबंधित पारिस्थितिकीय को भारी  नुकसान होता है। जंगल की आग से पारिस्थितिकीय की रक्षा के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएंगे। इन इलाकों को मानचित्रों में चिन्हित किया जाएगा। क्षेत्र में सूचना देने की तकनीक और सामुदायिक भागीदारी के आधार पर प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और आग को नियंत्रित करने के तरीकों को विकसित और मजबूत किया जाएगा। इसके अलावा जंगल और स्थानीय आजीविका पर पड़ने वाले आग के कारणों और प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा की जाएगी।

(ग) प्राकृतिक जंगलों की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ाना- पारिस्थितिकीय तंत्र में बदलाव, गिरावट, लैंडयूज बदलने, प्रदूषण, दोहन, वनों की कटाई आदि से जैव विविधता और स्थानीय आबादी की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। घने जंगलों का संरक्षण और संवर्धन सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। सख्त संरक्षण उपायों से लेकर और स्थानीय  लोगों की सहभागिता से उपयुक्त स्वदेशी प्रजातियों को पौधों के रोपण और अविकसित जंगलों के पुनर्वास जैसे उपायों से वनों का विस्तार किया जाएगा।

(घ) वनों में पौधारोपण की उत्पादकता बढ़ाना : अधिकतर राज्यों में वृक्षारोपण की खराब स्थिति है। इस स्थिति के लिए गहन वैज्ञानिक प्रबंधन किया जाएगा और टीक, साल, शीशम, पोप्लर, जीमेलिना, नीलगिरी, कैसुरिना, बांस आदि जैसी व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण प्रजातियों के पौधों के रोपण का कार्य चलाया जाएगा। वन निगमों के साथ ऐसी जमीन जो बेकार पड़ी है या फिर उसका कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा है तो उसे गुणवत्ता वाली लकड़ी के उत्पादन के लिए प्रयुक्त किया जाएगा। वनीकरण और वनों की कटाई संबंधी गतिविधियों के लिए सार्वजनिक और निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल विकसित किया जाएगा।

(च) कैचमेंट एरिया, हिफाजत और समृद्धि : ऐसी स्कीमों और परियोजनाओं पर जो खड़ी ढलानों, नदियों, झीलों, जलाशयों, भूगर्भीय तौर पर अस्थिर इलाकों और ऐसे अन्य पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील  वन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करती हैं, पर पूरा प्रतिबंध लगाया जाएगा। पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील वन क्षेत्रों को वहां के अनुकूल मिट्टी और जल संरक्षण उपायों के जरिए स्थिर किया जाएगा, साथ ही वहां बांस या जो भी वहां के लिए उपयुक्त पेड़ और घास होंगे लगाई जाएंगे।

(छ) जैव विविधता संरक्षण के लिए देश में प्राकृतिक वनों का समृद्ध भंडार हैं। प्राकृतिक वनों से जैव विविधता की हिफाजत के लिए दो अहम कदम कदम उठाए जाएंगे।  (एक) देश के वन क्षेत्रों की जैव विविधता का सर्वेक्षण कराया जाएगा और व्यवस्थित रूप से दस्तावेजीकरण होगा। और जो असाधारण रूप से वर्गीकरण की जा सकने वाले टैक्सोनोमिक और पारिस्थितिकीय लिहाज से अहम क्षेत्र होंगे, उनको संरक्षित किया जाएगा।  जैव विविधता की सुरक्षा के लिए जैव-चोरी के खिलाफ राष्ट्रीय जैव विविधता अधिनियम में कानूनी और प्रशासनिक उपायों को समन्वित किया जाएगा। (दो), संरक्षण की आधुनिक तकनीक जिसमें स्थानांतरण से जैव विविधता को खतरा नहीं होता, उसे भी अपनाया जाएगा। साथ ही रेलक, इंडेजर्ड एंड थ्रेटेंड (आरईटी) प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

(ज) वनों और वृक्षारोपण के लिए सरकार द्वारा अनुमोदित कार्य/प्रबंधन योजनाओं के तहत अमल होगा। यह कार्य योजना केंद्र की ओर से अनुमोदित होगी यानी भारत सरकार द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार पालन किया जाएगा जो समय-समय पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी गाइडलाइन्स जारी करेगी । निजी वन/ वन वृक्षारोपण/ पेड़ के लॉट विनियमित करने को लेकर प्रबंधन योजनाओं के अनुसार काम होगा।

(झ) भागीदारी से वन प्रबंधन को मजबूत करना : भारत का आपसी भागीदारी से वन प्रबंधन करने का समृद्ध और विविधतापूर्ण अनुभव है। इस भागीदारी वाले दृष्टिकोण को और मजबूत करने की आवश्यकता है  जिसके लिए एक राष्ट्रीय समुदाय वन प्रबंधन (सीएफएम) मिशन लॉन्च किया जाएगा। इस मिशन को कानूनी आधार प्रदान किया जाएगा। इसके सक्षम संचालन के लिए ढांचा विकसित किया जाएगा। गांवों में राष्ट्रीय,  राज्य और स्थानीय स्तर के विकास कार्यक्रमों को किया जाएगा। ग्राम सभा और जेएफएमसी के बीच तालमेल से वन प्रबंधन में सफल सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाएंगे।

(ट) नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस प्रबंधन : नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एनटीएफपी) जैसे कि औषधीय और सुगंधित पौधे, तेल के बीज, राल, जंगली खाद्य पदार्थ, फाइबर, बांस, घास आदि से वनों पर निर्भर समुदाय अपने खानपान और आजीविका सुरक्षा को लेकर पूरक मदद लेते हैं। वे इस पर निर्भर ही होते हैं। इस तरह पौधों की उपज के लिए स्थाई प्रबंधन जरूरी हैं ताकि यहां के लोगों के लिए रोजगार मिले और आय के लिए अवसर खुलें। ‘वैल्यू चेन एप्रोच’ की प्रणाली जलवायु मामले में कारगर है और बाजार उन्मुखी है।

जंगलों के बाहरी क्षेत्र में पेड़ों का प्रबंधन

(क) कृषि- खेती संबंधी वानिकी को बढ़ावा : कृषि-खेती वानिकी ने देश में गहरी जड़ें हैं। ट्री आउट साइड फॉरेस्ट (टीओएफ) यानी वनों के बाहर पेड़ लगाने में भागीदारी से वन क्षेत्र बढ़ा है और पारिस्थितिकीय तंत्र मजबूत हुआ है। देश में लकड़ी की मांग थोक में बढ़ी है और किसानों की आय में भी इजाफा हुआ है। जबकि देश में लकड़ी की मांग में भारी बढ़ोतरी हुई है। जलवायु अनुकूल परिस्थितियों में इससे किसानों की आय बढ़ेगी सकेगी। और इस प्रकार स्थायी रूप से प्रबंधित जंगलों और पेड़ों से प्राप्त लकड़ी के उपयोग को बढ़ावा देने की स्थिति में जहां जलवायु को माकूल बनाए जाने की स्थिति होगी वहीं आय में भी बढ़ोतरी होगी। इसके संदर्भ में निम्नलिखित उपाय किए जाएंगे :

  1. कृषि-वानिकी और खेती वानिकी को प्रोत्साहन दिया जाएगा जो परिचालन समर्थन प्रणाली से संभव होगा।
  2. बेहतर पौध और वन रोपण संबंधी सामग्री के प्रमाणीकरण के लिए सिस्टम स्थापित करना।
  3. किसानों और वन आधारित उद्योगों के बीच उत्पादन पूर्व समझौता। इस तरह के समझौते के लिए किसानों को सुगमता प्रदान करने के प्रयास किए जाएंगे।
  4. देश में वन और पेड़ों से कवर करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल विकसित किया जाएगी जिसमें जगह का चयन होगा और वन विभाग, वन विकास निगम, स्थानीय लोगों, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों आदि के बीच तारतम्य स्थापित किया जाएगा।
  5. लकड़ी के लिए बाजार बनाने, खेती, कटाई, परिवहन और विपणन को बढ़ावा देने के लिए देश में मौजूदा व्यवस्था में सुगमता को सुनिश्चित किया जाएगा। कृषि फसल बीमा योजना में कृषि वानिकी और खेती वानिकी को शामिल करने की सुविधा प्रदान की जाएगी। इसके अलावा कृषि फसल बीमा योजना में कृषि- खेती वानिकी फसल भी शामिल किया जाएगा।
  6. कृषि वानिकी के प्रचार और जागरूकता के लिए सेवाएं विस्तारित और लॉन्च की जाएंगी।

(ख) शहरी क्षेत्र को हरियाली से ढकना : शहरी क्षेत्र में वनों के लिए वुडलैंड्स, नमी वाले क्षेत्रों की जमीन, पार्क, संस्थागत क्षेत्रों वाले बगीचे, उद्यान, एवेन्यू बागान, ब्लॉक बागान आदि को शामिल किया जाएगा। हरियाली वाले ये क्षेत्र स्थानीय निवासियों को लिए सौंदर्य प्रदान करते हैं, जीवन को मनोरंजक बनाते हैं और पर्यावरण और आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं। शहरी क्षेत्र में वन पारिस्थितिकीय तंत्र मजबूत करता है जिससे शहरों में स्वास्थ्य, स्वच्छ हवा और इससे संबंधित कई लाभ मिलते हैं। इस पूरे कार्य के लिए प्रबंधन योजना तैयार की जाएगी जो शहरों की विकास योजना के अनुरूप होगी।

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वनों और पेड़ों से कवर करने के नए प्रमुख प्रबंधन

  1. उत्पादन वानिकी : लकड़ी और अन्य वन उत्पादन की मांग में प्रवृत्ति में बढ़ोतरी हुई है और अर्थव्यवस्था के तेजी से बढ़ने के साथ ही यह आगे भी जारी रहने की संभावना है। कई वर्षों में देश में आयात पर निर्भरता भी काफी बढ़ी है। इस क्रम में (लकड़ी की उपलब्धता) में आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए, राज्यों को उनके वृक्षारोपण कार्यक्रमों को वैज्ञानिक इनपुट और आनुवंशिक रूप से बेहतर (पौध) रोपण सामग्री देने और आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
  2. वनों का आर्थिक मूल्यांकन : वनों से हम लकड़ी,  ईंधन की लकड़ी, चारा और एनटीएफपी (नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस)  की विस्तृत श्रृंखला और पारिस्थितिकीय सेवाएं लेते हैं। साथ ही वन जलविद्युत लाभ, मिट्टी संरक्षण, बाढ़ नियंत्रण, कार्बन जैसे अमूर्त लाभों की ऐसी विस्तृत श्रृंखला प्रदान करते हैं जिनमें जैव विविधता संरक्षण, समग्र पर्यावरण में सुधार आदि शामिल हैं। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विकास में वनों का योगदान आमतौर पर औद्योगिक लाभ के लिए मिली लकड़ी, ईंधन की लकड़ी और एनटीएफपी के रिकॉर्ड किए गए मानकों के आधार पर देखा जाता है जो वास्तविकता में देखें तो काफी कम है। प्रतिष्ठान संस्थाओँ के जरिए वैज्ञानिक तरीके से वनों और उनकी सेवाओं के उचित मूल्यांकन के लिए ढांचा विकसित किया जाएगा।
  3. पानी के रिसाइकिल के लिए वन प्रबंधन : पानी हम सब प्राणिमात्र के लिए वन महत्वपूर्ण हैं और वनों से इसके लिए मूल्यवान आउटपुट मिलता है। स्वस्थ वन पारिस्थितिक तंत्र इस बात में भी मददगार है कि वह सतह पर कई चीजों को शुद्ध करता है। उससे धाराएं, नदियां और अन्य जलीय प्रणालियां हैं। वन और अन्य पारिस्थितिकीय तंत्र जो महत्वपूर्ण कैचमेंट के रूप में भी कार्य करते हैं उन्हें पहचानने और संरक्षित करने की आवश्यकता होती है। कैचमेंट क्षेत्रों के उपचार के लिए वैज्ञानिक तरीके से योजनाएं चलाई जाएंगी जो वन कार्य/प्रबंधन योजनाओं का ही हिस्सा होंगी।
  4. वन प्रमाणन : एक विश्वसनीय प्रमाणन प्रक्रिया उत्पादों पर अच्छी कीमत प्रदान कर सकती है जो वनों को और मूल्यवान बना सकती है जिससे उनकी कटाई पर भी रोक लगेगी। उचित प्रमाणीकरण व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाएगा जिसमें चरणबद्ध तरीके से संस्थागत ढांचे लिए जाएंगे ताकि वन प्रबंधन में सही ढंग से मानकों का प्रयोग हो सके।
  5. एकीकृत जलवायु परिवर्तन की चिंताएं, आरईडीडी और वन प्रबंधन की रणनीति : वन कार्बन डाइऑक्साइड में प्राकृतिक सिंक के रूप में कार्य करता है जिससे जलवायु परिवर्तन की स्थिति में  सहायता मिलती है। लकड़ी के उत्पादों का उपयोग जिनमें न्यूनतम कार्बन असर होते हैं वह कार्बन को लॉक करके उसके अधिक उत्सर्जन में मददगार है। जलवायु परिवर्तन वन पारिस्थितिकीय की संरचना, बनावट को प्रभावित करता है जो एम्बेडेड और वनों पर आश्रित जीवन रूपों को क्रमशः प्रभावित करता है। टिकाऊ वन प्रबंधन और खासकर सामरिक कार्रवाई जैसा कि देश के लिए आरईडीडी+संदर्भ दस्तावेज में शामिल किया गया है।  वन-आधारित जलवायु परिवर्तन स्थिति को अनुकूल बनाने के लिए निम्न बंदोबस्त होंगे:

(क) वनों और जमीन क्षेत्र को पेड़ों से कवर करने और पारिस्थितिकीय सेवाओं को बढ़ाने के दौरान जंगलों के प्राकृतिक उत्थान में सहायता करने के लिए अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने के लिए कदम उठाए जाएंगे। अपर्याप्त प्राकृतिक जंगलों की गुणवत्ता में सुधार के लिए सभी प्रयास उचित हस्तक्षेप के माध्यम से किए जाएंगे।

(ख) कृषि-खेती वानिकी क्षेत्र को उनकी पूरी आत्मनिर्भरता और क्षमता का एहसास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

(ग) तटीय और समुद्री क्षेत्रों, वायुशिफ, समशीतोष्ण और उप-अल्पाइन जंगल, अल्पाइन घास, पश्चिमी और पूर्वी घाट इत्यादि जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकीय को विशेष रूप से संरक्षित किया जाएगा।

(घ) जलवायु परिवर्तन  को सभी चिंताओँ को वन और वन्यजीव क्षेत्रों में कामकाजी / प्रबंधन योजनाओं और सामुदायिक पारिस्थितिकीय प्रबंधन योजनाओं हिस्सा बनाया जाएगा।

(च) लकड़ी प्रौद्योगिकी में नई खोजों और उद्यमों के प्रचार के लिए कदम उठाए जाएंगे। लकड़ी की बाजार में ब्रांडिंग अभियान जैसे कि “वुड इज़ गुड”, “गो मोर वुड्अ- गिव मोर वुड्स” चलाए जाएंगे।

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  1. राष्ट्रीय वन पारिस्थितिकीय प्रबंधन सूचना प्रणाली का विकास : वानिकी क्षेत्र में देश में पर्याप्त और विश्वसनीय व अनुकूल डेटासेट की कमी एक गंभीर चिंता का विषय है। वैज्ञानिक नियोजन और प्रबंधन के लिए ऐसे व्यापक और विश्वसनीय डेटासेट की दरकार है। राज्यों और अन्य स्रोतों से विश्वसनीय डेटा का नियमित प्रवाह सुनिश्चित करने और इसे सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराने के लिए सिस्टम को डिजाइन और स्थापित करने की जरूरत है। एक राष्ट्रीय वन पारिस्थितिकीय प्रबंधन सूचना प्रणाली विकसित की जाएगी और नवीनतम सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग से इसका परिचालन कराया जाएगा। भारतीय जंगलों में बढ़ते स्टॉक और कार्बन स्टॉक के आकलन पर अधिक जोर होगा और इसका महत्व बताया जाएगा।

वन्यजीव प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण

भारत में विभिन्न पारिस्थितिकीय ढांचों में जंगली वनस्पतियों और जीवों की समृद्ध विविधता है। संरक्षण को लेकर गंभीर चुनौतियों के बावजूद  देश में वन्यजीवन प्रबंधन ने प्रमुख वन्यजीव प्रजातियों की सुरक्षा में अपना योगदान दिया है। जीवों के लिए उनके प्रमुख ठिकानों को महफूज किया गया है और वन्यजीवों को सुरक्षित तरीके से पुनर्स्थापित किया गया है। हालांकि  हमारे वन्यजीवों के निवास और कॉरिडोर लगातार मानव जाति के साथ संघर्ष से लेकर अवैध तरीके से शिकार और व्यापार तक जूझते रहे हैं, साथ ही वन्य जीव प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन प्रभाव भी पड़े हैं। इसलिए वन्यजीवन की रक्षा और उनके ठिकानों को सुरक्षित रखने के प्रयासों पर नए सिरे से काम करने की तत्काल आवश्यकता है। इस संबंध में निम्नलिखित कार्यवाही की जाएगी:

(क) प्राकृतिक जैव विविधता के स्वरूप को बनाए रखने के लिए संरक्षित क्षेत्रों (पीए) का प्रबंधन मजबूत किया जाएगा। पीए से बाहर के इलाकों में वन्यजीवन के लिए उनकी प्राकृतिक गति, प्रजनन स्थल, आवास संरक्षण आदि की व्यवस्था सुनिश्चित की जाएगी। संरक्षण क्षेत्रों से बाहर वन्यजीवों से समृद्ध क्षेत्रों को चिन्हित किया जाएगा और जीवों में पारिस्थिकीय व अनुवांशिक निरंतरता सुनिश्चित की जाएगी। इस तरह के क्षेत्रों में वन्यजीवों की आवास बहाली और पारिस्थितिकीय गलियारों का प्रबंधन प्रभावी रूप से सुरक्षित किया जाएगा।

(ख) वन्यजीवों की जनसंख्या और आवास संबंधी जरूरी सुविधाओं के लिए सभी तरह की प्रजातियों के आकलन होगा ताकि प्रबंधन नीति का यह एक अभिन्न और नियमित हिस्सा हो।

(ग) मनुष्य और वन्यजीवों में सदियों से संघर्ष होता आया है लेकिन हाल के वर्षों में वन्यजीव प्रजातियों का अंदर और बाहर से दोंनों से टकराव बढ़ा है। मनुष्य और वन्यजीवों के बीच आपसी संघर्षों को खत्म करने के लिए राज्य स्तर पर रणनीति तैयार करने और उस पर कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाएगा। इस संघर्ष के स्थानीय और अस्थाई पहलुओं को ध्यान में रखा जाएगा।

(घ) अल्पकालिक कार्रवाई अभियान में क्विक रिस्पांस टीमें होंगी जो पूरी तरह से प्रशिक्षित तो होंगी ही, वो उपकरणों से लैस भी होंगी। ये टीमें लगातार मूवमेंट में रहेंगी और स्वास्थ्य और पशु चिकित्सा सेवाओं को देने में माहिर होंगी। साथ ही ये त्वरित (मुआवजा) मूल्यांकन करने और पीड़ितों को राहत का फौरन भुगतान सुनिश्चित करेंगी।

(च) विदेशी प्रजातियों के आयात और व्यापार उनके उपयोग और रखरखावों को सख्त नियमों के अधीन लाया जाएगा ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि देशी जैव विविधता जेनेटिक प्रदूषण की चपेट में तो नहीं है।

(छ) वन्यजीवों के खिलाफ अपराध और अवैध व्यापार हमेशा ही संरक्षण प्रयासों के लिए गंभीर चुनौती रहे हैं। मौजूदा केंद्रीय निगरानी सिस्टम, जानकारी का आदान प्रदान करना और वन/ वन्यजीवन अपराध पर डेटा अपडेट करने के काम को संस्थागत किया जाएगा और इसके आने वाले समय में लगातार मजबूत करने पर जोर होगा। फोरेंसिक प्रयोगशालाओं के नेटवर्क के रूप में तकनीकी सहायता द्वारा पहचान, जांच और अभियोजन क्षमता को बढ़ाया जाएगा।

(ज) इको-टूरिज्म मॉडल वन क्षेत्र के स्थानीय लोगों की आजीविका की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा, साथ ही वन्यजीवन के निवास और उसके बारे में वैज्ञानिक जानकारियों की अनदेखी नहीं की जाएगी। पर्यटकों को विभिन्न वेबसाइटों के जरिए प्रकृति के बारे में शिक्षा, संरक्षण आदि को लेकर जानकारियां देने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

(झ) ज्यूलॉजिकल गार्डन, वनस्पति उद्यान और जैव विविधता पार्क डि़जायन किए जाएंगे जो आधुनिक और संवाद स्थापित करने वाले तरीकों के साथ तो होंगे ही, इनसे वनजीवन को लेकर जागरूकता पैदा करने की और प्रकृति की हिफाजत की जानकारी दी जाएगी। वनस्पतियों और जीवों के महत्ता के बारे में प्रभावी संचार/व्याख्या करने के लिए जो काफी कारगर होंगे। चिड़ियाघरों और रेस्क्यू केंद्रों का विलुप्त प्रजातियों के संरक्षण और प्रजनन को बरकरार रखने के लिए उपयोग किया जाएगा।

(य) वन्यजीव वाले इलाकों के बाहरी सीमाओँ (को मजबूत करने) और वहां स्थानीय लोगों से सहयोग को लेकर प्रभावी ढंग से प्रबंध किए जाएंगे और जिनको धीरे-धीरे सशक्त भी किया जाएगा।

वन उद्योग इंटरफेस की सुविधा : वन आधारित उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह एक श्रमसाध्य क्षेत्र है जिसमें रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलती है। वन निगमों और औद्योगिक इकाइयों को भी बढ़ाने की जरूरत है। कच्चे माल की मांग को पूरा करने के लिए औद्योगिक प्लांटेशन को तेज किया जाएगा। वन आधारित उद्योगों ने पहले ही किसानों के साथ साझेदारी में कैप्टिव बागान स्थापित किए हैं। पारस्परिक रूप से लाभकारी व्यवस्था वाले उद्योगों को कच्चे माल की जरूरी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए इस साझेदारी को और विस्तारित करने की आवश्यकता है।

अनुसंधान और शिक्षा : वानिकी और वन्यजीवन में वैज्ञानिक अनुसंधान वन प्रबंधन की ताकत है और जो इसमें व्यावहारिक संरक्षण योजना को लेकर समझ को विकसित करता है। वानिकी/ वन्यजीवन शिक्षा को लेकर कई संस्थान शिक्षा का कार्य आगे बढ़ा रहे हैं इसमें स्नातक छात्रों को करियर कई मौके मिल रहे हैं। वन शिक्षा के अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित वन और वन पर एकीकृत और बहुआयामी अनुसंधान पर होगा जिससे स्थानीय लोगों की आजीविका को आधार मिले और आर्थिक विकास में वृद्धि हो सके। नई नीति में जंगल उत्पादों, पारिस्थितिकी तंत्र के विकास उपज मूल्यांकन करने और वन सूची के विषयों पर अनुसंधान सेवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी।

विस्तार और जागरूकता

वन और संबंधित पारिस्थितिकीय तंत्र का संरक्षण और विकास लोगों के समर्थन, स्वैच्छिक भागीदारी और सहयोग के बिना प्रभावी नहीं हो सकता है इसलिए, जरूरी है कि उन सबको विकास और संरक्षण के कार्य से जोड़ा जाए जिनकी वनों में सीधी रुचि हो। स्थानीय निवासियों को सामान्य तौर पर पेड़, वन्यजीवन और प्रकृति के मूल्यों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है। यह सक्रिय भागीदारी सरकारों, स्कूलों, कॉलेजों, एनजीओ, समुदाय आधारित संगठनों, इको-क्लब, पीएसयू, कॉर्पोरेट हाउस, ट्रेड यूनियनों और इस जैसे अन्य संस्थानों के के साथ की जाएगी। वनों, पेड़ों और वन्यजीवन का विस्तार और उनके महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करने को प्रोत्साहित किया जाएगा। व्यक्तिओँ और संस्थाओं को उनके सराहनीय काम को पहचान मिलेगी जिनको पुरस्कृत करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर पुरस्कार स्थापित किए जाएंगे।

उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों का वन प्रबंधन

भारत के उत्तर-पूर्व के वन जैव विविधता के मामले में खासे संपन्न हैं। उत्तर-पूर्व के इन जंगलों का उत्तर-पूर्व के मैदानी क्षेत्रों में जलवायु, कृषि उत्पादन आदि पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अधिकांश जंगलों (लगभग 85% -90%) समुदायिक स्वामित्व में हैं। इनके प्रबंधन के लिए कई कदम सुझाए गए हैं। यहां के वनों को सामुदायिक वन प्रबंधन के ही परिदृश्य का हिस्सा माना गया है। उनको सही से परिभाषित किया जाएगा और डिजिटलीकृत सीमाओं के साथ उनके मैप बनाए जाएंगे। मौजूदा कानूनों में जहां भी जैसी की परिस्थिति होगी, आवश्यकतानुसार उचित नियम कानून और विनियम बनाए जाएंगे। नीतियों पर के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए संशोधन भी किए जा सकते हैं। संस्थागत कानूनी मदद वन प्रशासन और प्रबंधन का अहम हिस्सा होंगे। केंद्रीय मंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड बनाया जाएगा जिससे राज्य के सभी बोर्ड और विभाग संचालित होंगे।

राज्यवार स्थिति : दक्षिण भारत के राज्य आगे

राज्‍यवार में वनों की स्‍थिति को लेकर आई एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले डेढ़ दशक में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल का प्रदर्शन अच्‍छा है। आंध्र प्रदेश में वन क्षेत्र में 2141 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है जबकि कर्नाटक 1101 किलोमीटर और केरल 1043 वर्ग किलोमीटर वृद्धि के साथ क्रम से दूसरे व तीसरे स्‍थान पर रहे। क्षेत्रफल के हिसाब से मध्‍य प्रदेश के पास 77414 वर्ग किलोमीटर का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है, जबकि 66964 वर्ग किलोमीटर के साथ अरुणाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़  क्रमश: दूसरे व तीसरे स्‍थान पर हैं। कुल भू-भाग की तुलना में प्रतिशत के हिसाब से लक्षद्वीप के पास 90.33 प्रतिशत का सबसे बड़ा वनों से ढका है । इसके बाद 86.27 प्रतिशत तथा 81.73 प्रतिशत वन क्षेत्र के साथ मिज़ोरम और अंडमान निकोबार द्वीप समूह क्रमश: दूसरे व तीसरे स्‍थान पर हैं। देश के 15 राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों का 33 प्रतिशत भू-भाग वनों से घिरा है।

वन संरक्षण में बढ़ रही चुनौतियां

वन नीति 2018 को लेकर दावा किया गया है कि इसे वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए पारिस्थितिकीय और आजीविका संबंधी चुनौतियां कम होंगी। पारिस्थितिकीय सुरक्षा के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश के कुल भूक्षेत्र के कम-से-कम एक-तिहाई भागों को वन और पेड़ों से कवर करने की आवश्यकता पड़ेगी। 25 करोड़ लोग को वनों से जलावन की लकड़ी, चारा, बाँस जैसे वन उत्पाद लेते हैं जो इनकी आजीविका के प्रमुख स्रोत हैं। बदलती पर्यावरणवर्ती दशाओं को देखकर सरकार ने पूववर्ती सरकारों की नीति में बदलाव में आवश्यक माना। बेशक, कार्बन स्थिरीकरण और जैव-विविधता में वनों का योगदान बड़ा है लेकिन नई नीति क्या उसी ओर बड़ा कदम है या फिर खेल निजी हाथों में खेलने का है।

(कॉपी संपादक : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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