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करूणानिधि : सीएम बनते ही मनुवादियों से लिया लोहा

करूणानिधि का जीवन आत्म सम्मान आंदोलन के दौर में शुरु हुआ। प्रखर वक्ता और समाज को लेकर स्पष्ट समझ ने उन्हें राजनीति में स्थापित कर दिया। जब मुख्यमंत्री बने तब सबसे पहले अपने उन विचारों को लागू किया जिसके मूल में वंचित तबके का सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक विकास था। हालांकि अपने अंतिम वर्षों में वे इसी राह पर कायम न रह सके। बता रही हैं वी. गीता :  

(मुथुवेल करूणानिधि : जन्म 3 जून 1924 – मृत्यु  7 अगस्त 2018)

तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि जब चिर निद्रा में लेटे थे, तब एक स्थानीय टीवी चैनल दिन भर उनकी अंतिम या़त्रा का प्रसारण करता रहा। इसके अलावा टीवी पर अपने प्रिय नेता के बिछड़ जाने पर लोग दुख प्रकट करते रहे और विशेष साउंड के साथ लेखकों,  कलाकारों, अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के वक्तव्य दिखाए जाते रहे, लेकिन इस दिन बारंबार जो वाक्यांश टीवी पर गूंजता रहा, वह था ‘सामाजिक न्याय’। कुछ लोगों के लिए तो इस वाक्यांश को कल्याणवाद के रूप में लिया जाता रहा है कि करुणानिधि सरकार ने 1969 में अपने रंग में आते ही गरीबों के कल्याण के लिए अपना ध्यान केंद्रित किया। लेकिन इसके अलावा दूसरों के लिए करुणानिधि की आरक्षण नीति स्पष्ट रूप से सामाजिक न्याय पर आधारित थी। पिछड़े वर्गों,  दलितों, अत्यंत पिछड़ी जातियों, डिनोटिफाइड समुदायों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए कोटा की उनकी नीति बेहद चर्चित रही थी। अब तक दूसरों के लिए तो करुणानिधि सामाजिक न्याय के लिए खड़े थे, क्योंकि उन्होंने विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा शासन और शिक्षा की भाषा के रूप में हिंदी थोपने के प्रयासों के मुकाबले तमिल भाषा के महत्व और कारण को बरकरार रखा था।

यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि करुणानिधि के पास जाति आधारित अन्याय से सबसे दृढ़ता से निपटने का सामाजिक न्याय फैलाने वाला नजरिया था। सामाजिक रूप से प्रताड़ित समुदाय से होने के कारण  वे मंदिर समर्पण के अभ्यास, भेदभाव और शोषण जैसे स्वरूपों से वह भलीभांति परिचित थे। उनके बाल्यावस्था के दौरान (1920 के दशक के उत्तरार्ध और 1930 के दशक के आरंभ में) आत्मसम्मान आंदोलन तमिल समाज में सक्रिय रूप से मौजूद था। इसके अलावा धर्म निंदा, ब्राह्मण वर्चस्व और जातिवादी अत्याचारों को अखबारों, मंचों और रोजमर्रा के बातचीत से उकसाया जा रहा था। इस माहौल में पले-बढ़े करुणानिधि ने 1940 की शुरुआत में अपने लेखन को इसी मुद्दे से ही धार देनी शुरू दी, जिससे नई पीढी को बहुमूल्य विचार मिलने लगे। आत्मसम्मान आंदोलन में बीते बचपन के अनुभव से क्रांतिकारी विचार उन्हें मिले, जिन्हें वे आधुनिक मंच और फिल्म के माध्यम से फैलाने लगे।

इसके बाद 1940 के दशक के अंत में आत्मसम्मान जैसे मुद्दों को एक विशिष्ट स्थान मिला,  क्योंकि तब तक पेरियार ने पुरानी गैर-ब्राह्मण जस्टिस पार्टी का नेतृत्व संभाल लिया था। बाद में इस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कड़गम (डीके) कर दिया गया और इसे एक सार्वभौम द्रविड़ राष्ट्र के पक्ष में आगे बढ़ाया गया। उनके लिए और आत्मसम्मान के लिए आवाज उठाने वालों के लिए, द्रविड़ राष्ट्र का मतलब था ब्राह्मण-बनिया के आधिपत्य से और छली ब्राह्मणवादी हिंदूवाद से मुक्त समाज। पेरियार के लिए यह केवल राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के अधिकार को कायम रखने का सवाल नहीं था, बल्कि राष्ट्र के लिए वैकल्पिक दृष्टिकोण के माध्यम से सोचने का एक सवाल था और जो ब्राह्मण-बानिया के हितों के लिए कैद नहीं था।

करुणानिधि जैसे साहसी नौजवान के लिए द्रविड़ राष्ट्रीयता से भरा क्षण एक बड़ा अवसर था। वे सामाजिक न्याय की राजनीति को तमिल गर्व की एक प्रभावशाली राजनीति बनाने के साथ-साथ आर्य-ब्राह्मण-संस्कृत-हिंदी संस्कृति की आलोचना को पुनर्परिभाषित करने लगे। इधर करुणानिधि के प्रभावशाली लेखन में मौजूद इस आलोचना ने भारतीय राष्ट्रवाद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की आलोचना के रुख को बदल कर रख दिया।

वर्ष 1949 में करुणानिधि पेरियार से अलग हो गए। दरअसल इस वर्ष सीएन अन्नदुराई की अध्यक्षता में एक समूह ने डीके से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने का फैसला किया। करुणानिधि भी इस समूह का हिस्सा थे। उस दौरान उन्होंने दावा किया कि वे पेरियार ने खुद से बहुत छोटी महिला से शादी की थी। इसके अलावा अन्य मतभेद भी थे। अन्नादुराई भी पेरियार की उत्साही, महत्वाकांक्षी और भारतीय स्वतंत्रता की कठोर आलोचना से असहज थे और निर्वाचन लोकतंत्र की संभावनाओं से चिंतित थे, जो स्वतंत्र भारत में होना तय था।

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डीएमके से जुड़ने के बाद करुणानिधि ने नई पार्टी के लिए समर्थन इकट्ठा करने के लिए अपनी लेखकीय क्षमताओं का सहारा लिया। उन्होंने लेखक और स्पीकर के रूप में अपनी बेहतरीन प्रतिभा का प्रदर्शन किया। वे नई पार्टी के तेजतर्रार और शिक्षित युवा के साथ-साथ सहज भी थे। करुणानिधि ने तमिलनाडु में व्यापक रूप से यात्रा की और पार्टी को नई पहचान दी। 1950 का दशक पार्टी के लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी समय पार्टी के भविष्य की नींव पड़ी।

बहरहाल, डीएमके वर्ष 1967 में कांग्रेस को हरा कर सत्ता में आई। अन्नदुराई मुख्यमंत्री बने। करुणानिधि को लोक निर्माण मंत्री नियुक्त किया गया था, लेकिन उन्होंने पार्टी प्रचारक और आयोजक के रूप में अपनी भूमिका जारी रखी। वर्ष 1969 में अन्नादुराई का निधन हो गया, तो वह अपने गुरु की जगह को संभालने के लिए पूरी तरह परिपक्व हो चुके थे और उसी वर्ष मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी कार्यकुशलता को साबित भी कर दिया। वर्ष 1971 में उन्हें बहुत कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ा लेकिन आखिरकार उनकी पार्टी विजयी रही। 1970 के दशक की शुरुआत को द्रविड़ शासन का उल्लेखनीय काल कहा जा सकता है।

एक कार्यक्रम में करूणानिधि और पार्श्व में पेरियार, अन्नदुराई और करूणानिधि का बैनर (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

करुणानिधि को अपने आदर्शों को अभ्यास में लाने के लिए कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। लेकिन डीएमके ने जिस तमिल आत्म-शासन की बात कही थी, उसमें वह लोकप्रिय साबित हुआ था। 1956 में राज्यों के भाषाई पुनर्गठन के साथ ही स्वतंत्र भारत में भाषा और संस्कृति के संबंध में डीएमके की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की पुष्टि हुई। इसके बावजूद भारतीय राज्य को आदर्श संघीय राजनीति और अधिकार नहीं थे। विशेष रूप से आर्थिक नियोजन और विकास के मामले में अधिकार बहुत सीमित थे। स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार की ऐसी साजिश थी।

आर्य संस्कृति को चुनौती देने वाले द्रविड़ बहुजन नायक : करूणानिधि

करुणानिधि ने अपनी लड़ाइयां सावधानीपूर्वक चुन रखी थी। जिनमें सामाजिक न्याय और तमिल भाषा, संस्कृति को लेकर पहल महत्वपूर्ण लड़ाइयां थीं। इसके साथ ही कल्याणवाद भी था, जो आर्थिक विकास पर पूरी तरह से निर्भर नहीं था,  लेकिन जनता की अच्छाई के लिए इसे एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में देखा जा सकता था। इस दौरान उन्होंने तमिलनाडु के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए कड़ा संघर्ष किया। लेकिन इसके बावजूद राज्य में श्रम आंदोलन जोड़ पकड़ गया।

1969 में करुणानिधि के महत्वपूर्ण कार्य उनकी दूरगामी नीति को दर्शाते हैं। इस वर्ष एएम सत्तनाथन की अध्यक्षता में बैकवर्ड क्लासेस कमीशन की स्थापना की गई। इन वर्गों के लिए 25% से 31% तक आरक्षण बढ़ाया गया। दलितों के लिए आरक्षण को 2% से बढ़ाकर 18% कर दिया गया। आयोग ने पिछड़े वर्गों को दो समूहों में विभाजित कर दिया। पिछड़ी जातियां और अत्यंत पिछड़ी जातियां। इनमें पहले के लिए 16% आरक्षण और बाद वाले के लिए 17% की सिफारिश की गई थी। थी। गौरतलब है कि यह विभेद तब तक अमल में नहीं लाया गया, जब तक करुणानिधि की सरकार ने कोटा को 25% से 31% तक बढ़ा नहीं दिया।

अपने प्रतिद्वंद्वी व पूर्व मुख्यमंत्री एम. जी. रामचंद्रन के साथ करूणानिधि (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

1970 में पिछड़े माने जाने वाले वानियर जो किसान समुदाय में आते थे, वे बड़े आरक्षण कोटे के लिए कैंपेनिंग कर रहे थे। इस समय डीएमके सत्ता से बाहर थी और एआईएडीएमके के साथ एमजी रामचंद्रन सत्ता में थे। इसके बाद जब डीएमके 1989 में सत्ता में लौटी, तो वानियर आंदोलन का असर देखा गया। करुणानिधि राजनीतिक हलकों में उठ रहे वानियर के उदय के बारे में विशेष रूप से सावधान थे, लेकिन दूसरी तरफ, वे संवेदनशील भी थे कि कैसे जातीय पहचान को रोकने या शिक्षा और सरकारी रोजगार तक इसके पहुंचने के योग्य बनाया जाए।

एमजी रामचंद्रन की सरकार पहले ही पिछड़े वर्गों का कोटा को बढ़ाकर 50% कर चुकी थी। बहरहाल,  इधर वानियार आंदोलनों पर ध्यान देते हुए करुणानिधि की सरकार ने पिछड़े वर्गों के वर्ग में वानियरों के लिए 20% कोटा बनाया। अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% का एक अतिरिक्त कोटा तय किया गया था, जिन्हें केवल एक समग्र अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूची में ही नहीं माना जाता था। सच्चर कमेटी की सिफारिशों को जब वर्ष 2006 में संसद में प्रस्तुत किया गया, तब करुणानिधि की सरकार ने पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के लिए सामान्य पिछड़ा वर्ग कोटा में एक कोटा प्रस्तुत किया। इसके अलावा 2008 में एक दलित समुदाय अरुंदथियर के लिए अनुसूचित जातियों के लिए कुल 18 प्रतिशत के भीतर कोटा तैयार करने पर वे सहमत हो गए।

पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ करूणानिधि (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)]

करुणानिधि यह जल्दी पहचान गए कि पिछड़े वर्गों में आंतरिक रूप से अंतर किया गया था। उन्होंने आय मानदंडों और क्रीमीलेयर में सिर खपाना ठीक नहीं समझा और स्वयं को पिछड़ेपन के स्तर को स्थापित करने पर केंद्रित किया। उनके अरुंदथियर के लिए अलग कोटा के तर्क ने लोगों के बीच उनके विचारों का लोहा मनवाया। इससे अस्पृश्यों की बड़ी संख्या की पहुंच आय, शिक्षा और राज्य सेवा तक बढ़ी। हालांकि उनके इस तरह के फैसले राजनीतिक विचारों से भी प्रभावित थे, लेकिन इसे केवल राजनीति कहकर टाला नहीं जा सकता है। यदि अवसरवादी राजनीति के बरक्स तुलना करें, तो पाएंगे कि एआईएडीएमके ने असमानता दूर करने को लेकर ठीक से काम किए बिना ही कोटा को बढ़ाया, केवल विशेष जाति समुदायों का पक्ष छोड़कर। वहीं करुणानिधि के नेतृत्व वाली डीएमके ने भी एक विशेष रसूखदार जाति पर भरोसा नहीं किया।

जाति चुनावी राजनीति का एक बड़ा कारक है, लेकिन डीएमके के तमिलमय और सामाजिक न्याय की अलंकारिक राजनीति ने यह सुनिश्चित किया है कि इस पार्टी को इस या उस समुदाय वाली पार्टी के रूप में नहीं पहचाना जा रहा है। वहीं दूसरी ओर यह भी दुर्भाग्य ही है कि एआईएडीएमके इससे बचाव करने में असफल रही है। जबकि उत्तर, दक्षिण और पश्चिमी तमिलनाडु की सभी रसूखदार जातियों के दावों को संतुलित करना जरूरी होता है। ये जातियां डीएमके का भी ‘प्रतिनिधित्व’  करती रही हैं, लेकिन शायद ही कभी वे अपने दावों में मुखर होती हैं।

वर्गीकृत असमानता या जातीय भेदभाव को लेकर करुणानिधि के विचार कभी ढोल पीटने जैसे नहीं रहे, लेकिन उनमें सामाजिक न्याय को लेकर जर्बदस्त चेतना रही है। शुरुआत से ही आत्मसम्मान आंदोलन की गहरी छाप उन पर थी। आत्मसम्मान आंदोलन के उदय के समय राज्य की कार्रवाई या सामाजिक न्याय की नीतियों को लेकर वे हमेशा सार्वजनिक बहस,  नागरिक अभियान और आंदोलन के साथ थे। जब तमिल पहचान के साथ गैर-ब्राह्मण पार्टी सत्ता में आई, तब लोगों में आशा जगी कि जाति आधारित भेदभाव को सरकार निपटाएगी।

अपनी दूसरी पत्नी दयालू के साथ करूणानिधि (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

बहरहाल, 1940 के दशक में आत्मसम्मान आंदोलन के संदर्भ को एक प्रभावशाली सांस्कृतिक के रूप में ढाल दिया गया। डीएमके की युवा विचारधारा ने इस आंदोलन को परवान चढ़ाया। तमिलों को अपने प्राचीन पूर्व-वर्ण अतीत के आधार पर स्वयं को बदलने के लिए प्रेरित किया गया। इस बदलाव के लिए प्रेरणा बने उस समय के प्रमुख ग्रंथों से जुड़े साहित्य, जिनमें जैन और बौद्ध साहित्य भी शामिल थे। तब यह तर्क दिया गया कि एक बार जब वे अपनी ऐतिहासिक पहचान को समझ लेते हैं, तो वे जातिवाद को खत्म करके समानता और बंधुता का अभ्यास करेंगे।

तमिलयता की स्थापना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका करुणानिधि की थी। उनके लेखन और भाषणों के माध्यम से लोग प्राचीन तमिल साहित्य के उद्धरण से रूबरू हो रहे थे। उन्होंने ब्राह्मणवादी संस्कृति और हिंदूवाद को खारिज करते हुए एक विशिष्ट तमिल आचारों को प्रतिस्थापित किया। उन्होंने इस आचार को ऐसी भाषा में उपलब्ध कराया, जिसे आसानी से समझा जा सके। इस प्रकार 1950 के दशक से तमिलों ने उत्साह जाति-विरोधी राजनीति की घोषणा की या कम से कम जाति आधारित पहचान में अरुचि दिखाई। डीएमके के प्रति दलितों को लगाव इसलिए महसूस हुआ कि वहां दलितों को अपने साथी तमिलों के साथ एकजुट होकर रहने का भान हुआ। 1950 और 1960 के दशक के दौरान डीएमके ने राज्य भर में जाति के मुद्दों को लेकर आंदोलन किया था और ऐसा लगता था कि तमिल समुदाय जातिवाद से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाएगा। 1920 और 1930 के दशक में दलित नेताओं और विचारकों ने सार्वजनिक रूप से जाति और अस्पृश्यता के मुद्दों को प्रस्तुत किया और इसी समय दलित पीढ़ी ने तमिलयता का मुद्दा भी गरम किया।

दलित संवाद के इस ऐतिहासिक क्षण में करुणानिधि की प्रतिक्रिया अस्पष्ट रही है, जबकि उन्होंने चुनाव जीतने के लिए दलित दलों के साथ गठबंधन किए। उन्होंने दलित अधिकारों को लेकर तत्काल प्रतिक्रिया नहीं दी, खास तौर पर वह उत्पीड़न और पुलिसिया जुल्म के खिलाफ उनकी चुप्पी बेहद खलती रही है। तमाराबरानी हत्याओं (1999) के बाद में उन्होंने कभी तत्परता से कार्रवाई नहीं की। इसके अलावा उन्होंने आदिवासियों के साथ हुए अत्याचार पर भी चुप्पी साध ली और अत्याचारी तथाकथित चंदन के तस्कर वीरप्पन के खिलाफ कोई विशेष कोई कदम नहीं उठाया।

अब केवल स्मृति शेष : करूणानिधि के निधन से मायूस उनके समर्थक

अंतत: यह कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति, जो कोटा की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए रही है, वह उपजाऊ है, इसमें संदेह नहीं है, लेकिन जाति की कई असमानताओं से टकराने के लिए पर्याप्त नहीं है। करुणानिधि को जिस बात के लिए श्रेय दिया जाता है, वह उनके आरक्षण प्रस्ताव के बारे में नहीं है। 1970 के दशक में उन्होंने धर्म सत्ता के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ी, जब उनकी सरकार ने मंदिर के पुजारी के केवल ब्राह्मण के ही होने को चुनौती दी थी। करुणानिधि ने सबसे पहले एक आदेश पारित किया था, जिसके मुताबिक किसी भी जाति का शख्स मंदिर का पुजारी बन सकता था। डीएमके सरकार ने इस अधिनियम से वंशानुगत पुरालेखों (पुजारी) के रिवाज को समाप्त कर दिया। इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में 16 रिट याचिका दायर कर चुनौती दी गई थी। वहीं, करुणानिधि ने सेतुसमुद्रम परियोजना पर भाजपा से लोहा भी लिया, हालांकि वे 1999 में भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो गए, लेकिन इस निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा रहा। दरअसल करुणानिधि ने जो विरासत छोड़ी है वह मिश्रित है और यहां तक कि समस्याग्रस्त भी है। उनके आखिरी कार्यकाल में दिशा और दृष्टि की एक कमी लोगों को खटकती रही, लेकिन इसके बावजूद नई पीढ़ी के लिए उनकी ऐतिहासिक स्मृति का महत्व है।

(अनुवाद: गुलजार हुसैन, कॉपी एडिटर : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

वी. गीता

लेखिका वी. गीता एक अनुवादक, सामाजिक इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इन्होंने तमिल और अंग्रेजी में आधुनिक तमिल इतिहास, जाति, लैंगिक विषयों, शिक्षा और मानव अधिकार पर विस्तारपूर्वक लेखन किया है। इन्होने एस वी राजादुरई के साथ मिलकर द्रविड़ आन्दोलन और राजनीति पर भी लेखन किया है जिसका प्रकाशन ईपीडब्ल्यू (इकोनॉमिक एंड पालिटिकल वीकली) में किया गया है। इसके अलावा इनकी एक पुस्तक, जिसका शीर्षक है ‘‘टुवर्ड्स, अ नॉन-ब्राह्मिन मिलीनियमः फ्रॉम आयोथी थास टू पेरियार’’। इन्होंने पश्चिमी मार्क्सवाद पर भी कई प्रबंधों का लेखन भी किया है जिनमें एन्टेनियो ग्रामसी के जीवन और विचारों पर केन्द्रित एक विषद ग्रंथ शामिल है

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