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केवल संघियों का नहीं, यह देश वरवर, वेरनॉन, सुधा, फरेरा और नवलखा का भी है

हाल ही में देश में पांच बुद्धिजीवी सामाजिक कार्यकर्ताओं को महाराष्ट्र पुलिस ने भीमा-कोरेगांव हिंसा के मामले में गिरफ्तार किया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आगामी 7 सितंबर तक उन्हें अपने-अपने घरों में नजरबंद रखने का आदेश दिया है। इसे लेकर चर्चाओं का दौर जारी है। इसी चर्चा के बीच अपने एक लेख पर उठाये गये सवाल का जवाब दे रहे हैं प्रेमकुमार मणि :

(बीते 29 अगस्त 2018 को पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं की महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के बाद प्रेमकुमार मणि ने ‘अगले तीन वर्षों में कोरेगांव की घटना रामजन्मभूमि मामले पर चढ़ बैठेगी’ शीर्षक लेख फॉरवर्ड प्रेस के लिए  लिखा। यह लेख 30 अगस्त 2018 को प्रकाशित हुआ था। इसी लेख के संबंध में शान कश्यप ने प्रेमकुमार मणि के फेसबुक वॉल पर टिप्पणी की। इस टिप्पणी में उन्होंने मणि जी पर हिंसा का समर्थन करने का आरोप लगाया और साथ ही पांचों सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को जायज ठहराया। प्रेमकुमार मणि ने शान कश्यप जी की टिप्पणी का विस्तृत जवाब दिया है। प्रस्तुत है यह जवाब – संपादक)

श्री शान कश्यप जी,

आप को इसलिए सम्बोधित कर रहा हूँ कि आप एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वह वर्चस्ववादी विचारधारा है। ‘आपका देश’ कुछ लोगों का देश है, शेष लोग वहां आपकी मर्ज़ी और नियम-कायदों से जियें तो ठीक, अन्यथा देशद्रोही।

यह देशद्रोह बड़ा ही भ्रामक शब्द है। मुगल अपने को देश मानते थे और अंग्रेज अपने को। कभी कांग्रेस और आज भाजपा अपने को देश मानती है। हम समझना ही नहीं चाहते कि यह देश है क्या। राष्ट्र तो जरा और कठिन मामला है। आपको फ़्रांस देश का एक उदाहरण दूँ। तब राष्ट्रपति द गॉल हुआ करते थे। वहां किसी मामले पर लेखक ज्यां पॉल सार्त्र ने सवाल खड़ा किया था, जिससे वहां की संसद में हंगामा मच गया था। संसद सदस्य सार्त्र पर देशद्रोह का मुकदमा चलाना चाहते थे, अविलम्ब गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे। द गॉल ने पूरी बहस को इस वक्तव्य से ख़ारिज किया कि आप ही लोग फ़्रांस नहीं हो, वह (सार्त्र) भी फ़्रांस है।

यह देश क्या मेरी आपकी बपौती है? यह मेरा भी है,आपका भी और सुधा, वरवर और नवलखा का भी। उन आदिवासियों, दलितों, किसानों, मज़दूरों का भी जो आपकी विचारधारा से असहमत हैं। माओवादी होना कोई अपराध है क्या? आप जानते होंगे माओ को। उन्होंने अपने देश को अपने तरीकों से संवारा था। जिस देश को संवारा, उसे संवारने में हमारे पुरखे बुद्ध की विचारधारा भी व्यवहृत हुई है। चीन के लोगों ने बुद्ध को विदेशी नहीं कहा और नक्सलवाद तो एक विचारधारा है। जैसे आपके संघ की विचारधारा है। संघ की विचारधारा देश के नाम पर कुलीन हिन्दुओं, जिन्हे द्विज कहा जाता है, के वर्चस्व को स्थापित करना है। नक्सलवादी विचारधारा भूमिहीन किसानों के वर्चस्व को। दोनों हिंसा में विश्वास करते हैं। संघ की तो विचारधारा ही है राजनीति का हिन्दुकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण। नक्सलवादी भी हिंसा में विश्वास करते हैं। लेकिन मेरे जैसे लोग, जो वाकई हिंसा के विरुद्ध हैं, कोई आवाज़ उठाते हैं, तो उस पर आप जैसे लोग ध्यान नहीं देते।

हमारी चेतना में हिंसा कहाँ से आती है? हिन्दू देवी-देवताओं को देखिये। शिव, राम, कृष्ण, हनुमान, दुर्गा आदि का स्वरूप क्या है? कोई त्रिशूल, कोई तीर-धनुष, कोई सुदर्शनचक्र से लैस हैं। कुछ वर्ष पहले मैंने दुर्गापूजा में हिंसा के दृश्य से परहेज करने की बात की थी। कम ही लोगों ने समझा। तो आप ही तय कीजिए कि यह हिंसा की संस्कृति कहाँ से निःसृत है। बुद्ध और ईसा हिंसक रूप में नहीं हैं। वे मुझे प्रिय हैं। लेकिन आप किस पक्ष में हैं?

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मैं नक्सलवादियों की हिंसा का समर्थक नहीं हूँ। संघ के डंडा-पैने की संस्कृति का भी समर्थक नहीं हूँ। लेकिन आदिवासी इलाकों में जिस तरह पूंजीपतियों के फ़ौज-फाटे पहुँच रहे हैं और उन्हें नक्सलवादी कहकर कुचल रहे हैं, उसका तीखा प्रतिवाद करता हूँ। वे फ़ौज पर आक्रमण नहीं करते। फ़ौज उनपर (आपके आदेश से) आक्रमण करती है। उनके क्षेत्र में खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधन हैं। आप उन्हें कहते हैं कि तुम मुख्य धारा में शामिल हो। विकास का हिस्सा बनो। हम तुम्हारा विकास चाहते हैं। उनका आग्रह है कि हम विकास के नहीं सुख-सुकून के हिस्सा बनना चाहते हैं। वे जानते हैं कि हमारे जंगल पहाड़ विनष्ट कर जो विकास आप स्थापित करेंगे, उसमें उनकी भागीदारी आपके घरों में चाकर बन झाड़ू-पोंछा लगाने की होगी। वे अपनी संस्कृति भूल जायेंगे। मृदंग-मांदल भूल जायेंगे। आप उनके लिए अन्य हैं। आप उनका सांस्कृतिक-सामाजिक बलात्कार करना चाहते हैं। उनकी आज़ादी छीनना चाहते हैं। वे जब प्रतिरोध करते हैं, तब आप उन्हें नक्सली घोषित करते हैं और अपनी फ़ौज भेज कर कत्लेआम करते-करवाते हैं। आप के ही आंकड़ों के अनुसार अस्सी फीसदी वे मारे गए हैं; बस बीस फीसदी आप मरे हैं।

भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ्तारी के बाद अपने-अपने घरों में नजरबंद (बायें से दायें) अरूण फरेरा, सुधा भारद्वाज, वरवर राव, गौतम नवलखा और वेरनॉन गोंसाल्वेस

यह लड़ाई आज से नहीं है। कांग्रेस राज में भी यही हो रहा था। बल्कि हज़ारों साल से यह लड़ाई छिड़ी है। कांग्रेस और आपका सम्बन्ध तो अर्जुन और कर्ण वाला है। एक ही कुक्षि-कोख के जन्मे हैं आप दोनों। बस असल और कम-असल वाला भेद है। एक दूसरे के मददगार भी हैं आप दोनों। महाभारत काल में अर्जुन ने जब खांडव वन जला कर अपना इंद्रप्रस्थ (इंद्र उसका बाप था) बनाया-बसाया था, तब विस्थापित नागों ने कर्ण की सहायता करनी चाही थी। कर्ण ने उन्हें अमानव (आज नक्सली ) कह कर भगा दिया। अर्जुन और कर्ण के अन्तर्सम्बन्ध जग जाहिर हैं। कर्ण नागों और एकलव्य से समझौता नहीं करता; दुर्योधन से जरूर करता है। आपलोगों के कांग्रेसी अन्तर्सम्बन्ध भी जगजाहिर हैं। इंदिरा की मौत पर आप रोये थे, अटल के अवसान पर वे रोये थे। आगे भी यह सिलसिला चलता रहेगा।

पुलिस की हिरासत में सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज

इसलिए श्री शान कश्यप जी हिंसक आप लोग हैं। आपका पूरा कुनबा है। फ़ौज फाटे, जुडिसियरी, यह दिखावे वाला लोकतंत्र आपका है। हम तो एक वास्तविक जनतंत्र के ख़्वाब ही बुन रहे हैं। हमारे लोकतंत्र में आपको अपनी मर्ज़ी से, अपनी संस्कृति के साथ विकसित होने का अवसर देंगे। हाँ, आपका वर्चस्व नहीं चलने देंगे। कई संस्कृतियां एक साथ सहअस्तित्व बनाये रख सकती हैं। एक बाग में कई रंग और प्रकार के फूल खिल सकते हैं। आप लोगों को शारीरिक मिहनत से नफरत है। मानसिक मिहनत के भी कुछ ख़ास कसीदे आपने बुने-गढ़े नहीं। फिर भी आपका संग-साथ हमें अच्छा लगता है। हम शांति, सुकून चाहते हैं ; विकास-वैभव नहीं। हिंसा तो हमारी संस्कृति में ही नहीं है। हम तो मुरली-मांदल, हल-फाबड़े वाले हैं। वन्य-पशुओं से रक्षा के लिए तीर-धनुष रखते हैं; राज्य स्थापित करने के लिए नहीं। हम अपनी छोटी दुनिया में ही मग्न रहने वाले लोग हैं। हमलोग देश नहीं गांव में रहते हैं; राष्ट्र नहीं जंगलों में बसते हैं। हम लोग दो दुनिया के लोग हैं। हम लोग इन भिन्न दुनियाओं के बीच पुल बनाना चाहते हैं। लेकिन आप तो हमें गुलाम बनाने का, विनष्ट करने का ख़्वाब देखते हैं। तुर्रा यह कि हमीं हिंसक हैं।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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