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आरक्षण के लिए मराठा समुदाय अब शूद्र भी बनने को तैयार

मराठा खुद को आरक्षित वर्ग में शामिल करने का विरोध करते रहे हैं, क्योंकि वे खुद को उच्च जाति का मानते रहे हैं। भले ही उच्च जातियां उन्हें शूद्र मानती रही हों।अब उन्होंने आरक्षित वर्ग में शामिल होने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है। यह हिंसक शक्ल अख्तियार कर चुका है। आखिर इसकी वजह क्या है? बता रहें हैं, बापू राऊत

महाराष्ट्र, आरक्षण के कारण युद्ध का मैदान जैसा बना हुआ है। मराठा मोर्चा वर्सेस पुलिस और सरकार आमने-सामने है। मराठा आंदोलन ने अब हिंसा का रूप ले लिया है। कुछ मराठा युवा आरक्षण के लिए खुदखुशी कर रहे हैं। वास्तव में क्या है मराठा आरक्षण आंदोलन? सन 2007 में विधानसभा के नागपूर अधिवेशन में मराठा सेवा संघ की शाखा रही संभाजी ब्रिगेड के लोगों ने मराठा समाज को आरक्षण देने के लिए अनशन किया था। तब के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने मराठा समाज को ओबीसी में शामिल करने का आश्वासन दिया था। तब से लेकर आजतक आरक्षण के लिए आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की जनसंख्या 32 प्रतिशत है। स्वतंत्रता के बाद सरकार या खुद मराठा लोगों ने अपने आप को कभी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा नहीं माना । वह हमेशा महाराष्ट्र का सत्ताधारी समाज रहा है और खुद को क्षत्रिय मानता रहा है। उन्होंने संविधान निर्माण के समय आरक्षण की मांग इसीलिए ठुकरा दी, क्योंकि वे ऊंची जाति के हैं और आरक्षण उनके लिए अपमान जैसा था।

मराठा आरक्षण के लिए मुंबई बंद के दौरान आगजनी

यह बात सही है कि इस बहुसंख्यक मराठा जाति के कुछ लोग अमीर बन गए पर अधिकांश  गरीब बने रहे। कुछ लोग अमीर इसीलिए बन गए क्योंकि उन्होने सत्ता का उपयोग खुद के लिए किया। कारखाने, उद्योग, बड़ी-बड़ी शिक्षण संस्थाएं एवं अन्य संस्थान स्थापित किए और मैनेजर के रूप में उनका मालिकान उच्च जातियों के हाथों सौप दिया। बाद इन्हीं लोगों के हाथों की कठपुतली बन गए। उन्होने करोड़ों लगाकर मंदिर और मठ  बनवाए लेकिन वहां अपने लोगों को नौकर तक नहीं रखा। दूसरी तरफ अधिकांश इसीलिए गरीब हुए क्योंकि उनकी जमीन पीढ़ी दर पीढ़ी आपस में बंटती जा रही थी। गरीबी का दूसरा कारण, गांव में शान-शौकत से पाटिलगिरी की मिजाज रखना तथा शादी ब्याह में जमीन बेचकर दहेज प्रथा का कड़ाई से पालन करना था। आज भी मराठा समाज के लोग अपने सरनेम के आगे पाटिल  लगाते हैं जिसे जाति के अहंकार के रूप में देखा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समाज वर्चस्वशाली रहा है। निचली जातियों पर रोब दिखाना इनका जन्मसिद्ध अधिकार रहा है।

संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के अंतर्गत केवल सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर  पिछ्डे लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान है जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी  शामिल हैं। वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट स्वीकार कर ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया जिसका संविधान के अनुच्छेद 340 में जिक्र किया गया है। अतीत में मराठा समाज हमेशा आरक्षण का कट्टर विरोधी रहा है। मराठा महासंघ, छावा संघटना  तथा शालिनीताई पाटिल और महासंघ के शशिकांत पवार आदि मराठाओं ने आरक्षण का कड़ा विरोध किया है। इतना ही नहीं, 1980 के दशक में जब ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया गया, तब देशभर में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन में मराठा समाज आरक्षण का विरोध करने वाले के रूप में आगे आया था।

आरक्षण के लिए मुंबई की सड़कों पर मराठा समुदाय

आज मराठा समाज के कुछ बुद्धिजीवियों, मराठा सेवा संघ और संभाजी ब्रिगेड जिनका रवैया प्रतिगामी रहा है, आरक्षण के लिए संघर्ष के रास्ते पर उतर आए हैं । मराठा समाज को मिलनेवाले आरक्षण का अनुसूचित जाति /जनजाति एवं ओबीसी लोगों ने विरोध नहीं किया बल्कि समर्थन कर आरक्षण की 50 प्रतिशत की मर्यादा तोड़कर जाति संख्यानुसार आरक्षण देने की मांग की है। राणे कमेटी की सिफ़ारिश पर मराठा को 16% आरक्षण लागू करने की घोषणा सरकारने की। लेकिन कुछ आरएसएस समर्थक लोगों ने कोर्ट द्वारा मराठा आरक्षण पर रोक लगवा दी।

अब मराठा समाज को ओबीसी के दायरे में लाने के लिए नई संभावनाएं  खोजी जा रही हैं जहां से मराठा समाज के ओबीसीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी है। आरक्षणधारी कुनबी (कृषि) समाज और मराठा जाति  एकसमान होने के दावे के साथ- साथ मराठा समाज को हिन्दू धर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था के अंतर्गत शूद्र श्रेणी में दिखाने का प्रयास हो रहा है जो की ब्राह्मणवादी व्यवस्था में पहले ही शूद्र श्रेणी में था। लेकिन शूद्रत्व मराठा समाज को अस्वीकार्य था। संभाजी ब्रिगेड के अध्यक्ष प्रवीण गायकवाड ने “ब्राह्मनी धर्मानुसार मराठे शूद्रच” नाम की किताब लिखकर मराठाओं के शूद्र होने का दावा किया है। इस दावे के साथ वे मराठा को सामाजिक एंव सांस्कृतिक पिछड़ेपन के दायरे में लाकर और ब्राह्मणों द्वारा प्रताड़ित दिखाकर ओबीसी वर्ग में अन्तर्भूत करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने इतिहास को टटोला है। पहला, उन्होने शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक समारोह को याद किया है, जहां शिवाजी महाराज को पूना के ब्राम्हणों ने “शूद्र वर्ण” का  कहकर राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया। धर्मशास्त्रों के अनुसार शूद्र वर्ण के लोग राजा नहीं बन सकते। काशी के गंगा भट्ट ने अपने पैर के अंगूठे से शिवाजी महाराज के माथे पर तिलक लगाया था। दूसरा, उनका दावा है कि शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज की हत्या मनुस्मृति में लिखित नियमों से की गई थी। तीसरा, कोल्हापुर संस्थान के पुरोहित ने राजे शाहु महाराज के पूजा समारोह में वेदोक्त मंत्र द्वारा पूजा करने को नकार दिया। उनका कहना था कि वेदोक्त मंत्र केवल ब्राम्हण के लिए होते हैं, तथा शूद्रों के लिए पुराणोक्त मंत्र। आपके शूद्र होने के कारण राजा होकर भी वेदोक्त मंत्र से पूजा नहीं की जा सकती। इस घटना में बाल गंगाधर तिलक ने भी ब्राम्हणों का  समर्थन किया था। 2017 में पूना में खोले नामक ब्राह्मण महिला ने अपने घर में खाना पकाने वाली मराठा महिला पर आरोप लगाया था कि, उसने अपनी शूद्र जाति छिपाकर उसके  घर और पूजास्थल को अपवित्र कर दिया। सारांश, मराठा समाज हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा ठगा महसूस कर ओबीसी में वर्गीकृत होकर अपना “ओबीसीकरण” चाहता है।

मराठों के इस ओबीसीकरण प्रक्रिया से मूल ओबीसी जातियों पर खतरा मंडरा सकता है। मूल ओबीसी को आरक्षण के कारण पंचायत, नगरपालिका तथा महानगरपालिका में प्रतिनिधित्व मिलना शुरू हुआ था। लेकिन नए ओबीसीकरण  प्रक्रिया से इन संस्थाओं पर मराठों का वर्चस्व कायम होगा तथा मूल ओबीसी के सत्ता के सपने हाशिये पर होंगे। सरकारी नौकरियों के भी इस ओबीसीकरण के दायरे में आने की संभावना से नकारा नहीं जा सकता। मराठा, जाट, पटेल तथा गुज्जरों को आरक्षण देने के लिए तमिलनाडु के आरक्षण फार्मूले पर बहस छिडी हुई है। नचिअप्पन संसदीय कमेटी ने आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को समाप्त  कर जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देने की सिफ़ारिश की है। लेकिन आरक्षण प्राप्ति के लिए छिपे हुए आरक्षण विरोधियों को पहचानना होगा, क्योंकि वे हमेशा अपने चेहरे पर काली पट्टी बांधे हुए रहते हैं। आज मराठा आरक्षण के समर्थन में नेता, मीडिया और बुद्धिजीवी सामने आ रहे हैं। लेकिन वह जातियां, जनजातियां जिनको आरक्षण की सख्त जरूरत है, उन्हें हाशिये पर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इन जातियों की आवाज न नेता उठाता  है और न मीडिया। अगर नेता होता है भी तो वह स्थापित पार्टियों का गुलाम होता है, उसे न बोलना आता, न खड़ा होना। भारत में अमीर, गरीब और अति गरीब के साथ वे लोग भी रहते हैं  जिन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं मिलता, शादी ब्याह में घोड़ी पर बैठने का हक नहीं, मूंछ रखने पर मारे जाते हैं, साइकिल पर बैठकर स्कूल जाने पर रोका जाता है, स्कूल में मध्याह्न भोजन के दौरान अलग बिठाया जाता है। उन्हें बिना वजह प्रताड़ित किया  जाता है। ऐसे समाज को आरक्षण के किस वर्ग में रखोगे? यह मुख्य प्रश्न है।

(कॉपी-एडिट : सिद्धार्थ/अशोक)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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