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मुझे जाति व्यवस्था से नफरत क्यों हुई : पी. एस. कृष्णन

इंसानों के किसी समुदाय को अछूत माना जाता है, यह तथ्य मुझे डॉ. आंबेडकर के  माध्यम से पता चला। श्रीनारायण गुरु और अय्यंकाली ने मुझे जाति विरोधी बनाया। विवेकानंद से जाति से नफरत करना सीखा। यह सब वासंती देवी के प्रश्न के जवाब में बता रहे हैं, पी.एस. कृष्णन :

आजादी के बाद का सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी (भाग- 2)  

(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को  वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उसमें पी.एस. कृष्णन  भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते दस्तावेज हैं।  सेवानिवृति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमानियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय तमिलनाडु  की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुत : आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है।फॉरवर्ड प्रेस की इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना है। हम किताब प्रकाशित करने  से पहले इसके कुछ अंश सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। इस अंश में पी. एस. कृष्णन ने वासंती देवी के इस प्रश्न का जवाब दिया है कि उच्च जाति में पैदा होने के बावजूद आपको जाति  व्यवस्था से नफरत क्यों हुई और आपने  जाति व्यवस्था से उत्पीड़ित तबकों  के लिए काम करना शुरू किया। संपादक)

वासंती देवी : आप भारत के सबसे तिरस्कृत, सबसे अधिक किनारे लगा दिए तबकों के हितों के लिए अनथक और बेमिसाल योद्धा रहे हैं। ये भारत के वे तबके हैं, जिनकी बुनियादी मानवीय गरिमा को शताब्दियों से भारतीय जाति व्यवस्था ने खारिज किया। आप ऐसे परिवार में पैदा हुए थे, जो सामाजिक तौर पर सबसे अगड़ी जाति से संबंध रखती थी, लेकिन आपने अपने को पूरी तरह उन लोगों के साथ जोड़ लिया, जो जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर माने जाते हैं। आपने अपने भीतर कैसे इस तरह की आवेगात्मक प्रतिबद्धता विकसित की? किन चीजों का आपके आरंभिक जीवन पर प्रभाव पड़ा था, जिसने आपके परिप्रेक्ष्य और मिशन को रूपायित किया, जिसके लिए आपने अपने-आपको तैयार किया? आप केरल में पैदा हुए, आपकी पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई। केरल सामाजिक सुधार आंदोलन के विविध रूपों के मेल का साक्षी है, यहां वामपंथी क्रान्तिकारी सुधार और प्रबुद्ध राजशाही की विरासत भी है। क्या केरल ने आपको रास्ता दिखाया?

पी.एस. कृष्णन :  सामाजिक न्याय का प्रश्न दलितों/अनुसूचित जातियों (एससी), सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्गों (एसइडीबीसी/बीसी) और आदिवासी/अनुसूचित जातियों (एसटी) से जुड़ा रहा है। सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष मेरे जीवन के सुनहरे क्षण रहे हैं, यह संघर्ष मेरे पूरे जीवन के साथ जुड़ा रहा है। किशोर अवस्था से लेकर अब तक मैं इस संघर्ष से जुड़ा रहा हूं, इसमें मेरे 1956 में आईएएस बनने से लेकर 1990 के अंत तक का सेवाकाल शामिल है। जहां तक इस प्रश्न का संबंध है कि क्या चीज मुझे  सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का रास्ता चुनने और इसे अपनाने की ओर ले गई, यह प्रश्न मुझसे कई बार अन्य लोगों ने भी आवेगपूर्ण तरीके से पूछा। सच्ची बात यह है कि मेरे मित्र मुझसे आत्मकथा लिखने के लिए कहते रहे हैं। सितंबर 2015 से 2016 तक मैं गंभीर बीमारी का शिकार रहा, जब मैं बीमारी की इस स्थिति से उबरा तो श्री के. माधव राव (आंध्रप्रदेश कैडर में सीधी भर्ती से आईएएस बनने बाले तीसरे दलित व्यक्ति, जो मुख्य सचिव के पद पर रहते हुए सेवानिवृत हुए) ने मुझे शिद्दत के साथ इस बात की याद दिलायी। उन्होंने आत्मकथा लिखने के संबंध में अपने बहुत पहले के अनुरोध को याद दिलाया और मुझसे आग्रह किया कि बिना समय गंवाये मुझे यह काम कर देना चाहिए।

पी. एस. कृष्णन की तस्वीर

के. माधव राव ने मेरे जीवन और कार्य को ‘नायाब’ कहा। अन्य मित्रों ने मेरे जीवन के बारे में अपनी राय रखी, जैसा मेरा शुरूआती जीवन था, जिस तरह से मैं प्रशासनिक सेवा में 1956 में आने से लेकर 1990 में सेवानिवृत्त होने तक काम किया। इन लोगों ने मेरे उन कामों को याद दिलाया जो मैंने दलितों और अन्य वंचित तबकों के लिए किया। उन कामों को याद दिलाया जिनके सुनिश्चित परिणाम आए और जिनका दलितों और अन्य वंचितों के लिेए अत्यन्त महत्व है। इसमें वे काम भी शामिल थे, जिनके सुनिश्चित परिणाम नहीं आ पाए और जिनके लिए प्रयास करने की जरूरत बनी हुई है। इस संघर्ष के दौरान मुझे जिन कठिनाईयों और मुसीबतों से गुजरना पड़ा और जिन उत्पीड़नों का सामना करना पड़ा, वह सब सरकारी सेवा में काम करने वाले के साथ-साथ अन्य पेशों लोगों के लिए भी मददगार और दिशा-निर्देशक होगा, जिसमें सामाजिक कार्य करने वाले लोग भी शामिल हैं।

आत्मकथा लिखने के अपने मित्रों के पुरजोर आग्रहों और उनके द्वारा आत्मकथा की अहमियत को रेखांकित करने के बावजूद भी मेरे भीतर व्यक्ति केंद्रित आत्मकथा लिखने के संदर्भ में झिझक थी, विशेषकर उस तरीके जैसे कि आम तौर पर आत्मकथाएं लिखी जाती हैं। आप देश के शैक्षिक जगत की सबसे अनुभवी लोगों में एक हैं और आपके पास सामाजिक न्याय की एक अन्तर्दृष्टि है। आप ने इन प्रश्नों को जिस तरह से प्रस्तुत किया है, जिस तरह आप ने महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बातों को इसमें समाहित किया है, जिस तरह की इन प्रश्नों की अन्तर्वस्तु है और जिस तरह से घटनाक्रम सामने आया है, इस सब ने मेरे भीतर की दुविधा को हल कर दिया। आपके प्रश्नों ने मुद्दों, घटनाओं और विषयों से जुड़े तथ्यों को याद करने को प्रेरित किया और इन चीजों के संदर्भ में ही एक सही परिप्रेक्ष्य के साथ व्यक्ति, व्यक्ति के जीवन कार्यों और जीवन को जगह दी गई है।

अंग्रेजी किताब क्रूसेड फॉर सोशल जस्टिस की तस्वीर (जिसका हिंदी अनुवाद फॉरवर्ड प्रेस से शीघ्र प्रकाश्य)

अपने जन्म के चलते मुझे ‘छुआछूत’ का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन छुआछूत का एहसास मुझे बिजली के झटके की तरह आंबेडकर के एक कथन से हुआ। उन्होंने कहा था कि प्रत्येक सात भारतीय में एक भारतीय ‘अछूत’ है। आंबेडकर का यह कथन ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपा हुआ था। जब मैं उनके कथन से छुआछूत के बारे में जाना, तब मेरी उम्र 10 या 11 वर्ष रही होगी, यह 1942 या 1943 की बात है। मैं उनके इस कथन का अर्थ पूरी तरह समझ नहीं सकता था।

उन दिनों मैं अपने पिता के साथ प्रत्येक सुबह श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर जाया करता था। जब मुख्य मंदिर और सहायक मंदिरों की पूजा-अाराधना का दौर समाप्त हो जाता था, तो मंदिर के अहातों में गलियारों से होकर एक लंबा चक्कर लगाते थे। इस तरह का चक्कर लगाने के दौरान मैं अपने पिता से विभिन्न सामाजिक विषयों पर बातें करता था। यह बहुत ही उथल-पुथल का समय था, इस समय को हम स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधार और सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलनों के समय के रूप में जानते हैं। इन सामाजिक-क्रांतिकारी आंदोलनों में समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन भी शामिल हैं। इन आंदोलनों से जुड़े मुद्दों में मेरी रूचि थी। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में आंबेडकर के कथन के प्रकाशन के अगली सुबह मैंने अपने पिता से पूछा, “आंबेडकर कौन हैं और उन्होंने यह क्यों कहा कि प्रत्येक सात भारतीय में से एक भारतीय ‘अछूत’ है, और कैसे कोई भी ‘अछूत’ हो सकता है?

मेरे पिता ने बताया कि छुआछूत भारतीय समाज में मौजूद है। मैं अपने पिता के प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुझे बिना लाग-लपेट के सच्चाई से अवगत कराया। उनसे यह सुनने के बाद कि जिन जातियों पर अमानवीय जीवन थोप दिया गया है, उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है। मैंने उनसे पूछा क्या यह अन्याय नहीं है? बिना किसी हिचकिचाहट के उन्होने कहा कि यह अन्याय है। यह संवाद और उस समय का वातावरण एवं परिवेश ही वह जिस चीज है जिसके चलते मैने ‘छुआछूत’ के खिलाफ खड़ा होने का निर्णय लिया।

डॉ. आंबेडकर का कथन और इस संदर्भ में मेरे पिता के स्पष्टीकरण वह पहले प्रभाव थे, जो मुझे छुआछूत की मुखालफत की ओर ले गए थे और इन्हीं चीजों ने मुझे बाद में पूरी जाति व्यवस्था के खिलाफ खड़ा कर दिया। मैं खुशकिस्मत था कि बचपन में मेरे साथ खेलन-कूदने वाले और मेरे दोस्त विभिन्न समुदायों के लड़के थे। इसमें उन समुदायों के भी लड़के थे, जिन जातियों के साथ अछूतों का व्यवहार किया जाता था या उन जातियों में जिन जातियों ने इसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, लेकिन उनके साथ भी अछूतों जैसा ही व्पवहार किया जाता था। इन लड़कों में मुझे करूणाकरन और फर्नांडिज का नाम याद है, हालांकि 1941 के बाद मेरा उनसे मेरा कोई संपर्क नहीं है। आंबेडकर के कथन के संबंध में जब मैने अपने पिता से बात सुनी थी, तो मुझे अपने बचपन के मित्रों का ख्याल आया। कोई ऐसा तर्क नहीं हो सकता था, जिसके आधार पर उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया जाय या अन्य लोगों और उनके बीच कोई अन्तर हो। मुझे एक महिला की भी याद आती हैं, जिनके पैरों को लकवा मार गया था। उनकी झोपड़ी हमारे घर के पास थी। स्कूल से आने के बाद कभी-कभी शाम को मैं उनके घर जाता था और उनसे मलयालम कविताएं सुनता था। मैं उनकी जाति नहीं जानता हूं, लेकिन वे जरूर या तो दलित या गैर-दलित ‘निम्न जाति’ की रही होंगी। यह सभी स्मृतियां मेरे भीतर समाहित हो गई थीं, इन्होंने मेरे लिए यह असंभव बना दिया था कि मैं छुआछूत या समाज में जाति आधारित  भेदभावों को स्वीकार करूं।

इस दौरान मैं नियमित तौर पर कौमुदी पढ़ता था। यह एक दैनिक अखबार था। यह त्रावणकोर का पहला अखबार था, जिसे एक ऐसे व्यक्ति ने निकाला था जिनका उस समुदाय से संबंध था, जो समुदाय अपने प्रयासों से अभी-अभी जाति की दासता से उबरा था। जिस व्यक्ति ने यह अखबार निकाला था, उनका नाम के. सुकुमारन था। वे इजावा समुदाय के विलक्षण बौद्धिक नेता थे। केरल कौमुदी के संपादकीय पन्ने पर प्रतिदिन  नारायण गुरू का एक कथन निकलता था। इनमें से कुछ कथन मुझे आज भी याद हैंः

                    “इंसान की एक जाति, एक धर्म, एक भगवान”

                   “जो भी धर्म हो, जरूरत इस बात की है कि इंसान को अच्छा होना चाहिए”  

नारायण गुरू के वचन और उस समय मैं उनके जीवन के बारे में जो कुछ जाना, यह सब  वे अन्य चीजें थीं, जिन्होंने समाज और सामाजिक मुद्दों पर मेरे दृष्टिकोण को आकार देने में मेरे शुरूआती जीवन पर असर डाला।

श्रीनारायण गुरु

मेरे जीवन पर अन्य शुरूआती प्रभाव विवेकानंद का पड़ा था। उनके लेखन और उनके कथनों को मैं उन दिनों पढ़ता था। वे तीखे तरीके से “छुआछूत” की आलोचना करते थे। खास करके मालाबार में प्रचलित छुआछूत की उन्होंने कड़ी आलोचना की। मालाबार शुरू में विस्तृत मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, इस समय यह उत्तरी केरल का हिस्सा है। यह 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद केरल का हि्स्सा बना। 1897 में मद्रास में दिए गए अपने एक भाषण (स्वामी विवेकानंद, 1897, ‘दी फ्यूचर ऑफ इंडिया’, ‘दी कंप्लीट वर्क ऑफ स्वामी विवेकानंद’, वाल्यूम 3 : ‘लेक्चर फ्राम कोलंबो टू आलमोड़ा’) में कहा :

“भारत पर मुसलमानों की विजय पददलितों और गरीबों के लिए मुक्ति के रूप में आया। इसी के चलते हमारे लोगों का पांचवां हिस्सा मुसलमान बन गया। यह सब कुछ तलवार के दम पर नहीं हुआ था। यह सब कुछ तलवार और तोप के दम पर हुआ था, ऐसा सोचना पागलपन की हद है। और यदि आप सचेत नहीं होंगे तो मद्रास के लोगों का पांचवा हिस्सा इसाई बन जायेगा। जो मैने मालबार क्षेत्र में देखा, उतनी मूढ़तापूर्ण चीज क्या कभी दुनिया में इसके पहले रही हैं? गरीब पराया लोगों को उस रास्ते से गुजरने की इजाजत नहीं थी, जिस रास्ते से होकर उंची जाति के लोग जाते थे, लेकिन यदि वही पराया लोग नाम बदल कर अंग्रेजी नाम होज-पोज कर लें तो वे उस रास्ते से जा सकते हैं, कोई दिक्कत नहीं होगी, या वे अपना मुसलमान नाम रख लें, तो भी कोई परेशानी नहीं होगी, वे आराम से उस रास्ते से जा सकते हैं। यह स्थिति देख कर आप इस बात के अलावा क्या निष्कर्ष निकालेंगे कि ये मलाबारी लोग पागल हैं, उनके घर बहुत सारे पागलों के अड्डे हैं, जब तक वे अपने व्यवहार को बदल नहीं लेते हैं और सभ्य व्यवहार नहीं  करने लगते हैं, तबतक भारत में रहने वाली प्रत्येक जाति को मलाबारी लोगों पर हंसने के अलावा क्या करना चाहिए। इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि इस तरह की घृणास्पद और क्रूर प्रथा को अनुमति प्राप्त है, अपने ही बच्चों को तब तक भूख से मरने के लिए छोड़ देते हैं, जब तक वे अपनी भूख शान्त करने के लिए कोई दूसरा धर्म स्वीकार न कर लें। जातियों के बीच अब और संघर्ष नहीं होना चाहिए” यह वही समय था, जब ‘अछूत समुदायों’ और अन्य ‘निम्न जातियों’ से जुड़े लड़के और लड़कियों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था। यह एक दिलचस्प सामाजिक परिवेश था। तिरूअनंतपुरम क्षेत्र में कृषि मजदूरों की सबसे शुरूआती हड़ताल 1905-1906 में हुई थी, जिसका नेतृत्व पुलाया समुदाय के सबसे प्रतिष्ठित नेता श्री अय्यंकाली ने किया। वे तिरूअनन्तपुरम के निकट स्थित वेंगान्नुर के रहने वाले थे। पुलाया समुदाय केरल का सबसे बड़ा दलित/अनुसूचित जाति समुदाय है, मलाबार में ये लोग चेरूमन या चेरामान के रूप में जाने जाते हैं।

श्रीनारायण गुरु, अय्यांकली और डॉ.आंबेडकर, पी.एस. कृष्णन के प्रेरणास्रोत

केरल में हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म अपनाने वाला यह सबसे बड़ा समुदाय है। श्री अय्यंकाली नारायण गुरू से 10 वर्ष छोटे थे। इस संदर्भ में एक जनश्रुति प्रचलित है कि जब अय्यंकाली पहली बार नारायण गुरू से मिले, तो नारायण गुरू ने उनका नाम पूछा। उन्होंने उत्तर दिया, “अय्यान, काली का बेटा”। उनका यह उत्तर सुनकर नारायण गुरू ने कहा, ‘इसके बाद आपका नाम  ‘अय्यंकाली’ होगा। यह नाम ज्यादा प्रभावशाली था। नारायण गुरू ‘निम्न जाति’ में पैदा हुए, बच्चों का नामकरण करते रहते थे, वे उनका ऐसा नाम रखते, जो ज्यादा प्रभावशाली हो। नामकरण की यह प्रक्रिया उन समुदायों के मनोबल और आत्मविश्वास को विकसित करने की उनकी एक साधारण पद्धति थी, जो समुदाय मनोबल हीनता और आत्मविश्वास की कमी के शिकार थे। उन दिनों घुरहू-निरही तरह के अनाकर्ष नाम ‘निम्न जातियों’ के स्त्री-पुरूषों के रखे जाते थे, ये नाम इन जातियों की गरिमाहीन स्थिति को सामने लाते थे। श्री नारायण गुरू ने इस स्थिति को बदल दिया।

पुलैया और अन्य दलित समुदाय निर्मम गुलामी और दासता के शिकार थे। स्थापित कानून और जाति व्यवस्था द्वारा उनके जमीन के मालिकाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालांकि गुलामी का खात्मा कर दिया गया, लेकिन उसी का एक रूप कृषि  से जुड़े बंधुआ मजदूर के रूप में जारी रहा। देश के अन्य हिस्सों की तरह केरल में दलितों का बड़ा हिस्सा कृषि मजदूर है। फिर भी अय्यंकाली का ऐतिहासिक हड़ताल कृषि मजदूरों की ज्यादा मजदूरी के लिए नहीं था, उसकी जगह ट्रावंनकोर के महाराजा द्वारा पारित इस राजकीय आदेश के लागू करने के लिए था, जिसके तहत  ‘अछूत’ समुदाय के बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिले की अनुमति प्रदान की गई थी, लेकिन ‘उच्च जातियों’ के विरोध के चलते इसे ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया। अय्यंकाली के नेतृत्व में कृषि मजदूरों की यह हड़ताल ‘अछूतों’ के बच्चों का स्कूलों में दाखिले को सुनिश्चित कराने के लिए थी, जिसके संदर्भ में पहले ही राजकीय आदेश जारी हो चुका था। इस राजकीय आदेश को  लोकतांत्रिक भारत में वैधानिक आदेश से प्रतिस्थापित किया गया। राजकीय आदेश और व्यवहार में उसे लागू करने के बीच के अन्तर की तरह ही वैधानिक कानूनों और नीतियों तथा उन्हें व्यवहार में लागू करने के बीच अन्तर लोकतांत्रिक भारत में भी बना रहा, विशेषकर दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित वर्गों के मामले में। इस आंदोलन के परिणामों का अनुभव मैने स्कूल के दिनों में किया था। स्कूल और कॉलेज स्तर पर हमारे कुछ ऐसे सहपाठी थे, जो इन समुदायों के थे। ऐसे सहपाठियों के साथ संबंध एक अन्य कारण था, जिसने मेरे लिए ‘छुआछूत’ और जाति आधारित भेदभाव को स्वीकार करना असंभव बना दिया।

एक अन्य घटना जिसने मुझे प्रभावित किया था, वह घटना थी, 1936 में उस समय महाराजा चितरा बलरामा वर्मा द्वारा मंदिर प्रवेश की घोषणा। इस घोषणा के माध्यम से महाराजा ने ‘निम्न’ जातियों  या अवर्णों के ट्रावंकोर की रियासत के हिंदू मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध को समाप्त कर दिया। इसके पीछे एक दिलचस्प सामाजिक पृष्ठभूमि भी रही है। 1933 में यहां पर श्री के. सुकुमारन के नेतृत्व में इरावा समुदाय का एक सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का विषय था, ‘जो धर्म आपके आत्म-गौरव के लिए एक अपमान हो, उस धर्म को हमें जरूर बदल देना चाहिए’। इस सम्मेलन और इसके विषय ने  राजशाही और उसके सलाहकारों को भीतर से हिला दिया। मंदिर में प्रवेश की घोषणा इस सम्मेलन में अभिव्यक्त की गई भावनाओं पर एक प्रबुद्ध प्रतिक्रिया थी। इस घोषणा ने ट्रावंकोर रियासत में स्थित सार्वजनिक मंदिरों में अवर्ण समुदाय या ‘निम्न’ जातियों के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया। इस घोषणा का महात्मा गांधी और आंबेडकर ने गर्मजोशी से स्वागत किया। इस घोषणा की मूल बातों को विभिन्न भाषाओं में लकड़ी के बोर्ड पर लिखकर मुख्य रूप से मंदिरों के प्रवेश द्वार पर लिख दिया गया। इन बोर्डों पर लिखा था, ‘केवल उन्हीं लोगों को की प्रवेश की इजाजत है, जो जन्म या पेशे से हिंदू हैं’। हालांकि इसे नकारात्मक रूप से अभिव्यक्त किया गया था, लेकिन इसका सकारात्मक अर्थ यह था कि कोई भी व्यक्ति जो जन्म से या अपने विश्वासों के आधार पर हिंदू है, वह सार्वजनिक मंदिरों में प्रवेश  के लिए स्वतंत्र है।

इन शुरूआती अनुभवों ने न केवल मुझे छुआछूत और जाति के खिलाफ खड़ा किया, बल्कि मुझे इस बारे में और अधिक पढ़ने एवं अध्ययन करने और सामाजिक परिघटनाओं  का और अधिक निरीक्षण करने लायक बनाया । मैंने अपने विश्वासों को व्यवहार में उतारना भी शुरू कर दिया। इसका एक उदाहरण यह है कि मैंने विभिन्न समुदायों के अपने मित्रों को अपने घर खाने के लिए बुलाया। इन मित्रों में दलित समुदाय के मित्र भी शामिल थे। मेरे पिता को इससे कोई परेशानी नहीं हुई। अपनी मां के प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने  मेरे प्रति अपने प्रेम और लगाव के चलते अपने परंपरागत विधि-निषेधों पर नियंत्रण किया और मेरे अनुरोध और समझाने-बुझाने पर किचन के सटे भोजनकक्ष में मेरे इन मित्रों को भोजन परोसा।

‘छुआछूत’  का विरोध जल्दी ही पूरी जाति व्यवस्था के विरोध में बदल गया।  जाति व्यवस्था के विरोध की दिशा में इस प्रगति का प्रमाण एक घटना के रूप में सामने आया। हुआ यह कि मैं अपने से कुछ वर्ष बड़े एक मित्र के साथ तिरूअनन्तपुरम के पदनाभमस्वामी मंदिर गया था, मंदिर के पुजारी के पुजारी ने प्रसाद (प्रसादम) मेरे मित्र के हाथ में रखने देने की जगह, उसका प्रसाद उसे उठाने के लिए अहाते में फेंका, जबकि वह मुझे और अन्य लोगों की तरह हाथ में दिया। ऐसा उसने इसलिए किया, क्योंकि हाथ प्रसाद पाने की योग्यता का सूचक जनेऊ उसने नहीं पहना था। जब मैने इस भेद-भाव को देखा, तो मैने पुजारी से प्रसाद लेना बंद कर दिया।

जल्दी ही मैं श्रीनारायण गुरू के इस प्रबोधन के साथ अपने को जोड़ लिया,  “जाति की चर्चा मत करो, जाति मत पूछो, जाति के बारे में मत सोचो”। अपनी व्यक्तिगत मान्यता और प्रतिबद्धता के स्तर पर मैं स्वयं को जाति व्यवस्था से अलग कर लिया।  मैं जाति का ध्यान केवल सामाजिक संदर्भों में सामाजिक न्याय और अन्ततोगत्वा जाति के उच्छेद के लिए रखता। इस सबका उद्देश्य उस आधार का विनाश करना था, जो एक व्यापक जनता के शोषण और वंचना की लौह संरचना के रूप में विद्यमान है। साथ ही इसका उद्देश्य अभिजात्य वर्गों के एकाधिकार को तोड़ना भी था। मैंने जानबूझकर ऐसा इसलिए किया ताकि प्रत्येक अवसर का इस्तेमाल अतार्किक नियमों और जाति के पाबंदियों को तोड़ने के लिए कर करूं। मेरी जाति के संदर्भ में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न व्यक्तियों की जिज्ञासाओं और पूछताछ का मेरे द्वारा एक ही जवाब हमेशा दिया गया, ‘मेरी कोई जाति नहीं है, मैं जाति से मुक्त हो चुका हूं’।

(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : सिद्धार्थ, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

वासंती देवी

वासंती देवी वरिष्ठ शिक्षाविद और कार्यकर्ता हैं. वे तमिलनाडु राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष और मनोनमेनियम सुन्दरनार विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रह चुकी हैं। वे महिला अधिकारों के लिए अपनी लम्बी लड़ाई के लिए जानी जातीं हैं। उन्होंने विदुथालाई चिरुथैल्गल काची (वीसीके) पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन 2016 का विधानसभा चुनाव जे. जयललिता के विरुद्ध लड़ा था

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