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नक्षत्र मालाकार : जिन्हें गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया गया

माली जाति में जन्मे नक्षत्र मालाकार  का नाम अंग्रेज़ों और देशी राज की फाइलों में ‘ए नोटोरियस कम्युनिस्ट’ ‘डकैत’ तथा ‘रॉबिनहुड’ के नाम से विख्यात है। आज़ादी के पहले उनका अधिकांश जीवन अंग्रेज़ों तथा आततायी सामंतों से खूनी भिडंत में बीता, तो आज़ाद भारत में भी 14 साल तक उन्होंने जेल की सज़ा काटी। बता रहे हैं अरूण नारायण :

चिरंतन विद्रोही : नक्षत्र मालाकार

नक्षत्र मालाकार (जन्म : 9 अक्टूबर, 1905 – निधन : 27 सितंबर, 1987)

जो पुल बनाएंगे

वे अनिवार्यतः

पीछे रह जाएंगे

सेनाएं हो जाएंगी पार

मारे जाएंगे रावण

जयी होंगे राम

जो निर्माता रहे

इतिहास में बंदर कहलाएंगे।’

                                     – अज्ञेय

भारतीय मिथकों के आदर्श मर्यादा पुरुषोतम (?) राम का कविता के मंच से किया गया यह पुनर्पाठ भले ही मिथकों को संबोधित हो, लेकिन यह पाठ हमारे आधुनिक इतिहास लेखन के पूरे नस्लीय, जातीय और लैंगिक आग्रह भरे विभेद को भी बड़ी सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम, उसके इतिहास लेखन और उसकी पूरी वैचारिकी पर इस तरह के पूर्वाग्रह की गहरी छाया आप देख सकते हैं। बिहार का दृष्टांत लें तो यह खाई स्पष्ट तौर पर आजादी  के आंदोलन के दौर के इतिहास लेखन से लेकर आज तक के लेखन में आपको पैबस्त नजर आएगी। इसकी जीवंत मिसाल नक्षत्र मालाकार हैं। बिहार में साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोध के वे सबसे बड़े प्रतीक रहे हैं। इतने बड़े प्रतीक कि अंग्रेजी शासन में 9 बार जेल गए और सामंती, महाजनी, प्रतिगामी शक्तियों के विरोध के कारण आजादी के बाद कांग्रेसी शासन में भी आजीवन कारावास की सजा पाई। लेकिन यह बिडम्बनापूर्ण सच है कि उन पर न तो कोई किताब है, न ढंग के कोई शोध ही।

एक दौर था जब 20वीं सदी के तीसरे दशक से छठे दशक तक उतर बिहार में बस नक्षत्र थे और उनकी तलाशी में पूर्णिया के गांवों-कस्बों के चप्पे-चप्पे की तलाशी लेती पुलिस। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए कटिहार में बी.एम.पी.बटालियन-7 की स्थापना की गई। बलूची सिपाहियों का दस्ता आया। सरकार ने पूरे उतर बिहार के सिनेमा हाॅल के रूपहले पर्दे पर उन्हें गिरफ्तार करवाने के इश्तेहार छपवाए। 25 हजार रुपए तक के इनाम की घोषणा की गई। लोग मार खा लेते, पुलिस की यातना सह लेते, लेकिन नक्षत्र की सुराग नहीं बतलाते। यह थी उनकी मास अपील। वहां के वह ‘राॅबिनहुड’ थे- रेणु के कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ के चरितर कर्मकार की तरह। उन्होंने दर्जनों लूट-पाट पुलिस और स्थानीय सामंतों के साथ की और उसका उपयोग मजलूम गरीब जनता के हित के लिए किया। पुलिस अफसर, मुखबिर, फसल की चोरी करने वाले लुटेरे और बलात्कारी सामंतों, महाजनों के नाक-कान काटे और उतर बिहार की जनता को अभयदान प्रदान किया।

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सामाजिक गैर बराबरी को मिटाने के लिए अपने यहां कई तरह के आंदोलन हुए हैं। बुद्ध, फुले, आंबेडकर, पेरियार से लेकर नक्सलवाद तक में हम इसका विस्तार देख सकते हैं। नक्षत्र मालाकार इतिहास की इसी धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले अपनी तरह के विलक्षण समाज सुधारक थे। अपराधी की नाक-कान काटना-यह उनका दंड विधान था, जो सीधे-सीधे समाज से जुड़ता था। इसके पीछे उनकी धारणा रही होगी कि दंड पानेवाला समाज में निंदा और उपहास का पात्र बनने के लोक-लाज से अनैतिक काम करने से डरेगा, गरीबों के उत्पीड़न से बाज आएगा। सामाजिक बहिष्कार का इससे बड़ा दंड दूसरा नहीं हो सकता। नवजागरण पर काम करनेवालों के लिए नक्षत्र का यह प्रयोग एक रिसर्च का दिलचस्प विषय हो सकता है। अपनी अप्रकाशित डायरी में नक्षत्र ने उस दौर के जो अनुभव साझा किए हैं उसमें उनके जीवन संघर्ष का पूरा परिवेश अपनी पूरी रंगत के साथ उपस्थित है। यहां वे विस्तार से चिन्ह्ति करते हैं कि अंग्रेजी अफसरों और सामंतों का संयुक्त मोर्चा उन्हें और उनके साथियों को बदनाम करने के लिए किस तरह लूट-पाट और बलात्कार की घटना को अंजाम दे रहा था। नक्षत्र कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट तीनों पार्टियों में अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता रहे थे इसलिए ऐसी बदनामियों से भी बेदाग निकले।

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नक्षत्र मालाकार का जन्म तत्कालीन पूर्णिया जिले के समेली गांव में सन् 1905 ई. में एक गरीब माली परिवार में हुआ। आज वह स्थान कटिहार जिले की सीमा में है। समेली बिहार का अपनी तरह का अकेला वह विलक्षण गांव हैं, जहां 3 नामचीन शख्सियतें जन्मीं, तीनों ही अपने-अपने क्षेत्र के नामवर हुए। पहले हुए नक्षत्र मालाकार। अपने 82 साल के जीवन का हर लम्हा उन्होंने सामंती शक्तियों के विरुद्ध लोहा लेते बिताया। दूसरे हुए अनूपलाल मंडल जिन्हें बिहार का प्रेमचंद कहा गया। जिनके ‘मीमांसा’ उपन्यास पर 1940 के दशक में किशोर साहू ने ‘बहूरानी’ फिल्म बनाई। तीसरे हुए डाॅ. जयनारायण मंडल। जिन्होंने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना परचम लहराया, जातीय विषमता को टारगेट करती तल्ख कविताएं, व्यंग्य, कहानियां और नाटक लिखे। कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया, लेकिन जल्द ही वे मृत्यु को प्राप्त हुए। ये तीनों ही अपने समय, अपने क्षेत्र के नामचीन लोग थे।

लेकिन बिहार की नई पीढ़ी इन्हें नहीं जानती। इनके किए काम का कोई विधिवत संरक्षण नहीं किया गया। यह सब इसलिए नहीं हुआ कि ये तीनों ही बिहार के पिछड़े समुदाय माली, केवट जाति के थे। यह जबावदेही बिहार के अकादमिक जगत की थी कि वह इस तरह के आदर्श लोगों का लिखा, किया संजोता और उसका प्रकाशन करता। लेकिन बिहार के अकादमिक जगत में जिन जाति समूहों का कब्जा है उसके रहते यह सब संभव नहीं। इतिहास उनका लिखा जाता है जिन्होंने कुर्बानियां दीं, स्थापित व्यवस्था और सत्ता को चुनौती दी, लेकिन बिहार में अभी भी श्रीकृष्ण सिंह ही निर्माता के रूप में अकादमिक जगत की पुस्तकों के सिरमौर हैं। बिहार राज्य अभिलेखागार के प्रकाशनों पर नजर दौड़ाएं तो यह बात बखूबी समझी जा सकती है।

नक्षत्र के जन्म के अब तक चार वर्ष सामने आए हैं। कहीं 1903, कहीं, 1905, कहीं 1909 तो कहीं 1910। उनके जन्म को लेकर इस तरह की मतभिन्नता स्वयं उनके घर परिवार में भी है। निचले पायदान में जन्मीं जातियों में कुंडली बनाने का विधान नहीं होने और अशिक्षा के कारण भी लोगों को उनके जन्मदिन याद नहीं रहते थे। नक्षत्र की भी वास्तविक जन्म तिथि अनुमान पर ही तय की गई होगी। उनके घर बरारी में उनकी ही पहल पर स्थापित ‘भगवती महाविद्यालय’ के रजिस्टर में उनका जन्म 9 अक्टूबर, 1905 दर्ज है। यह प्रमाण स्वयं नक्षत्र जी ने ही काॅलेज को उपलब्ध करवाया था। लोग बतलाते हैं कि 27 सितंबर, 1987 को उनकी मौत हुई। उस समय वे 82 वर्ष के थे। इस दृष्टि से भी 1905 का वर्ष ही उनके जन्म का वास्तविक वर्ष प्रमाणित होता है। उनके परिजन इसके पक्ष में एक और सबूत वासुदेव प्रसाद मंडल का पेश करते हैं, जिनकी जन्म तिथि 1903 है। नक्षत्र उनसे 2 साल छोटे थे। दोनों घनिष्ठ थे, लंबे अरसे तक एक साथ काम किया। रुपौली थाना के दारोगा को खौलती कराह में डालने में नक्षत्र के साथ यही वासुदेव मंडल शामिल थे। बाद के दिनों में वह जनता पार्टी की सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री बने।

किशोरावस्था में ही नमक सत्याग्रह में लिया भाग और काटी 6 महीने की सजा

नक्षत्र के पिता लब्बू माली अत्यंत गरीब गृहस्थ थे। उनकी दो शादियां हुई। पहली पत्नी सरस्वती से दो पुत्र- जगदेव और द्वारिका का जन्म हुआ। पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरी पत्नी लक्ष्मी देवी से दो पुत्र-बौद्ध नारायण और नक्षत्र एवं तीन पुत्री- तेतरी देवी, सत्यभामा एवं विद्योतमा का जन्म हुआ। उन्होंने अपने पैतृक गांव समेली से पलायन कर बरारी को अपना ठिकाना बनाया और वहीं घर बना लिया। यह स्थान भी कटिहार जिला में ही है, लेकिन समेली की अपेक्षा ज्यादा उन्नत और गांव से अलग एक ब्लाॅक का दर्जा रखनेवाला। यहां उन्होंने अपने पुश्तैनी धंधे को अपने परिवार के पोषण का जरिया बनाया। उनका परिवार मौर, पटमौरी बनाता, मंदिरों में फूल माला पहुंचाता, मांगलिक अवसरों पर लोगों के घर काम करता और थोड़ी बहुत फूल की खेती भी। इसी सीमित और छोटे रोजगार में उनका परिवार पला-बढ़ा। अपने बड़े भाई बौद्ध नारायण मालाकार की प्रेरणा से नक्षत्र मालाकार ने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया। अंग्रेजों ने इसे रोकने के लिए उतरी बिहार में कई जगह नाकेबंदी की, लेकिन सत्याग्रही नहीं माने। इसी में प्रमुख रूप से भागीदार होने के कारण इन्हें गिरफ्तार किया गया। अपने 42 साथियों के साथ इन्हें 6 माह की सजा हुई और आरा जेल भेज दिया गया। वहां का जेलर कैदियों को ढंग का खाना नहीं देता था और उनके साथ दुर्व्यवहार करता था। इन्होंने वहां अनशन किया और उसकी मोनोपोली को खत्म किया।

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नक्षत्र को दूसरी बार जेल की सजा तब हुई जब वे विदेशी कपड़ों के बहिष्कार अभियान में कटिहार में काम कर रहे थे। वे विदेशी कपड़ों की दुकान के आगे सो जाते, ग्राहकों को दुकान पर नहीं आने का कारण बतलाते। इनकी इस गतिविधि से त्रस्त दुकानदार ने थाने को सूचित किया तो नक्षत्र 6 माह के लिए गिरफ्तार कर गुलजारबाग पटना कैम्प जेल भेजे गए। एक बार पुनः शराब पिकेटिंग के अपराध में इन्हें 6 माह की सजा मुकर्रर की गई। सजा की अवधि पूरी हुई तो घर नहीं लौटकर सीधे टीकापट्टी आश्रम आए और यहीं रहकर एक सच्चे गांधीवादी कांग्रेसी कार्यकर्ता के रंग में रंग गए। उन दिनों बिहार में गांधी के रचनात्मक कामों और जन सेवा के प्रशिक्षण के कई केंद्र खुले। मुजफ्फरपुर में नक्षत्र ने बाजाप्ता 1 महीने की चर्खा ट्रेनिंग ली। 3 महीने तक मोतिहारी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और तांत बनाने में अव्वल आए।

कांग्रेस से मोहभंग

अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने के लिए कोशी अंचल में कांग्रेस के नेतृत्व में जो आंदोलन चले उसकी बागडोर वहां के सामंती, वर्चस्ववादी समूह के हाथ में थी। अंग्रेजी साम्राज्य के विरोध के पीछे उनके अपने हित काम कर रहे थे। उन्हें यकीन था कि अंग्रेजी सल्तनत के खात्मे के बाद जो नई सत्ता संरचना खड़ी होगी उसकी बागडोर उनके हाथ में होगी। इसीलिए आप देखेंगे कि कोशी अंचल में गांधीवाद का प्रभाव तो सघन था, लेकिन इसकी कमान जिन लोगों के हाथ में थी, वे वहां की स्थानीय जनता को बेतरह पीस रहे थे। उनकी बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं थीं। उनके इसी प्रतिगामी चरित्र ने नक्षत्र को उनसे अलग रास्ते जाने की परिस्थितियां पैदा कीं। वहां नमक सत्याग्रह का मुख्य केंद्र टीकापट्टी था, जहां से नक्षत्र की सक्रिय भागीदारी होती है। वैद्यनाथ चौधरी उस इलाके में बड़े कद्दावर नेता थे।

पूर्णिया में कांग्रेस के संस्थापकों में थे वह। नक्षत्र ने एक दिन उनके ही छोटे भाई अम्बिका चौधरी का बर्बर उत्पीड़न एक निरीह बुढ़िया पर होते देखा। बुढ़िया की बकरी उनकी फसल में चली गई थी। इसके लिए बकरी से चौगुनी रकम का अर्थदंड उस पर लगाया गया। नक्षत्र ने इस मामले में हस्तक्षेप किया, तब अर्थदंड थोड़ा कम किया गया, लेकिन उसे माफी नहीं मिली। उन्होंने सीधे वैद्यनाथ चौधरी से जब इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहा तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस घटना के तत्क्षण बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हुआ और 1936 में उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली।

जेपी ने नक्षत्र माली को कहा नक्षत्र मालाकार

सोनपुर में आयोजित ‘समर स्कूल आॅफ पाॅलिटिक्स’ में शामिल हुए। रेणु की मानें तो ‘एक डेढ़ महीने का वह शिक्षण-शिविर अपने ढंग का अकेला था।’ जयप्रकाश नारायण इसके प्रिसिंपल थे और मीनू मसानी, नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्धन, सहजानंद सरस्वती और अशोक मेहता जैसे लोगों ने क्लास लिए थे। एक महीने तक चले इस कार्यक्रम में मिडिल से एम.ए तक के छात्रों का प्रवेश लिया गया। नक्षत्र साक्षर भर थे इसलिए यहां उनका प्रवेश निषेध कर दिया गया। इसकी खबर जयप्रकाश को हुई तो वे नक्षत्र से मिले। बहुत प्रभावित हुए और उनका नाम नक्षत्र माली की जगह मालाकार कर दिया।

एक दिन नक्षत्र ने देखा कि शिविर में कार्यकर्ताओं के लिए अलग, नेताओं के लिए अलग भोजन बन रहे हैं। समाजवादी पार्टी के इस दोहरे चरित्र पर वह भड़क उठे। उन्होंने जेपी से इस दोहरी व्यवस्था का तत्क्षण कारण पूछा। जेपी ने कहा कि यहां नेताओं के लिए अलग और कार्यकर्ताओं के लिए अलग भोजन की व्यवस्था है। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा- ‘अइसन दोरंगी नीति से समाजवाद न अतौ जयप्रकाश जी’ और धीरे-धीरे उनका समाजवाद से भी मोहभंग होता गया। हालांकि उस शिविर के बाद उन्हें अपने इलाके में मिल मजदूरों को संगठित करने का दायित्व दिया गया। उन्होंने कटिहार जूट मिल के कर्मचारियों को संगठित किया। मिल मजदूर यूनियन की एक बड़ी सभा अपने बड़े भाई बौद्ध नारायण के साथ मिलकर आयोजित की। इस कारण दोनों को जेल में डाल दिया गया।

सशस्त्र आंदोलन का भी किया नेतृत्व

समेली और टीकापट्टी में उनके हथियार बनाने के कारखाने थे। ऐसा माना जाता है कि नेपाली क्रांति और बंगाल के स्वदेशी आंदोलन से भी उनके गहरे ताल्लुकात रहे। संभव है इन क्रांतिकारियों के साथ गुप्त तरीके से हथियारों के लेन-देन भी उनके होते रहे हों। नेपाल में लोहिया और जेपी के साथ विराट नगर के पास दीवानगंज में क्रांतिकारियों का आजाद दस्ता बना और सशस्त्र क्रांति का निर्णय लिया। उन्हें कुछ हथियार ग्वालियर से भी आते थे। इस तरह के उनके क्रांतिकारी कार्यों में आसपास के हर गांवों में उनके प्रमुख सहयोगी थे। जिनकी मदद से वे गुरिल्ला अंदाज में अपने दुश्मनों से मुठभेड़ करते और अपने अभियान को निरंतर आगे बढ़ाते रहे। 1942 की क्रांति आरंभ हुई तो शीघ्र ही बिहार भी उसके सघन प्रभाव में रंग गया। कटिहार में इस आंदोलन का गहरा असर था। रूपौली थाने को क्रांतिकारियों ने उड़ा दिया जिसमें नक्षत्र सहित 36 क्रांतिकारी नामजद हुए। इस आंदोलन में 6 लोगों की जानें गईं। रूपौली कांड के कई सरकारी गवाह बने। अगर उन्हें रोका नहीं जाता तो उनमें से कइयों को फांसी होती। नक्षत्र ने एक-एक गवाह को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाया जो नहीं माने उन्हें मौत की नींद सुला दी।

1947 के आसपास उस इलाके में अकाल की भयावह छाया मंडराने लगी। आम लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए। सूदखोरों और व्यापारियों ने अपने बड़े-बड़े बखारों में अनाज छिपा दिया था ताकि महंगी होने पर वे मनमानी कीमतों में बेच सकें। जनता तड़प रही थी और बगल के ढोलबज्जा के ठेके में अनाज सड़ रहा था। नक्षत्र ने पहले दरख्वास्त की। इसपर वे नहीं माने तो अपनी भूखी पीड़ित जनता के साथ उनके अन्न गोदाम को लूट लिया। ढोलबज्जा की इस लूट की घटना ने आसपास के जमींदारों को दशहत में ला दिया। इसके बाद कई जमींदारों की कामत पर हमला बोलकर जमा पड़े अनाजों को गरीबों में वितरित किया जाने लगा। इस घटना के बाद नक्षत्र सैकड़ों फर्जी मुकदमें में नामजद किए गए। रेणु जी ने इस घटना को लक्षित करते हुए लिखा कि ‘उसने पार्टी के लोगों से कहा कि आइए और लोगों को अनाज दिलवाइए। ‘हमलोग प्रस्ताव पास करते थे, कुछ करते नहीं थे। वह आदमी बैठा रहनेवाला नहीं था। उसने बखार खुलवाकर अनाज बंटवाना शुरू कर दिया।’ – (रेणु रचनावली खंड: 4, पेज: 414)

आजाद भारत में भी नहीं झुके नक्षत्र

देश आजाद हुआ तो बहुतों में खुशी की लहर थी कि अब सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। कुछ लोग ऐसे थे जो इस झूठी आजादी के छद्म को समझ रहे थे। खुद आंबेडकर ने संविधान को पेश करते हुए सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी को चिन्हित किया था। मालाकार की संगठनात्मक ताकत का अहसास कांग्रेस को था इसीलिए उन्हें उनकी ओर से बराबर यह प्रलोभन दिया जाता रहा कि वे कांग्रेस में रहकर काम करें उनकी आर्थिक दिक्कतें हल कर ली जाएंगी। लेकिन उन्होंने सदा इसकी अनदेखी की। जब पूरा घर-परिवार असुरक्षा में जिया, मां, पिता, बड़े भाई और बच्चे इलाज के अभाव में मर गए तब तो वे झुके नहीं, अब क्या खाक झुकते। उनका जनता की मुक्ति में विश्वास इतना प्रबल, इतना पक्का था कि उन्होंने खुद को खतरों की धार पर रखते हुए जनता के हितों से कभी समझौता नहीं किया। बिहार में ऐसी कोई जेल न होगी, जहां उन्होंने अपनी सजा की अवधि न काटी हो।

30 अगस्त, 1952 को उन्हें कदवा के चांदपुर गांव में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। फर्जी मुकदमे में उन्हें आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर हुई। 14 साल की जेल सजा काटने के बाद जब वे दिसंबर, 1966 में बाहर आए तो जनता ने उनका तहे दिल से स्वागत किया। वे मार्क्सवादी पार्टी में शामिल हो गए। इसी पार्टी के टिकट पर 1985 में फारबिसगंज से चुनाव लड़े। कांग्रेसी सरजू सिंह से उनकी सीधी टक्कर थी। अंततः धनबल, जनबल पर भारी पड़ा और वे पराजित हो गए। पूर्णिया जिला माकपा की किसान शाखा के अध्यक्ष एवं कटिहार जिला स्वतंत्रता सेनानी के  अध्यक्ष पद पर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी। ‘अब नहर तोड़ेगे कटिहार के किसान’ नामक आंदोलन की अगुआई की।

भूमि संघर्ष के रहे अगुआ

समाज में पददलित लोगों का हितपोषण उनका चिरकालिक लक्ष्य था। इसी आबादी की मान-मर्यादा के लिए उन्हें आजीवन संघर्ष करते रहे। पूर्णिया में उनके ही प्रयासों से सिपाही और ततमा टोला बसाए गए। रूपौली गांव में मोल बाबू जमींदार द्वारा दान दी गई 14 बीघा जमीन दलित समूह (पासवान) में वितरित हुआ। बखरी और समेली के बीच दरभंगा महाराज की 300 एकड़ जमीन परती पड़ी थी। इसमें 10 गांव की मवेशी चरते थे। कुछ जमींदारों ने उसकी बंदोबस्ती चुपके से अपने नाम करवा ली और उसमें खरी फसल बो दी गई। नक्षत्र ने अपनी 300 गरीब मजदूर सेना के साथ फसल में मवेशी घुसा दी और अंततः वह जमीन पूर्व की भांति लोगों के उपयोग में आने लगी। लोग-बाग बतलाते हैं कि रूस से उन्हें चिट्ठी आई थी। वहां की सरकार उन्हें सम्मानित करना चाहती थी, लेकिन पूर्णरूप से शिक्षित नहीं होने के कारण वे वहां नहीं जा सके। उन्होंने जनता से 90 एकड़ जमीन इकट्ठा की और अपने गांव बरारी में भगवती मंदिर महाविद्यालय की स्थापना की। महाविद्यालय के नाम रजिस्ट्री के केवला में अध्यक्ष के रूप में उन्हीं का नाम है। अंतिम समय में नक्षत्र ने एक और दुर्लभ काम किए। यह लोक जीवन से जुड़ा अपनी तरह का अनूठा काम था जो उन्होंने लोगों की संगठित श्रम शक्ति से पूरा किया। पूर्णिया नगर से 7 किलोमीटर दक्षिण हरदा गांव के निकट हजारों एकड़ में फैला हुआ था भुवना झील। नक्षत्र ने अंग्रेजी हुकूमत के समय से ही यह दरख्वास्त की थी कि इस झील से एक नहर निकालकर कटिहार के निकट कारी कोशी में मिला दी जाए तो हजारों एकड़ जमीन पानी से बाहर आ जाएगी। सेमापुर एवं कटिहार के बीच प्रसिद्ध यह भुवना झील पौन मील चैड़ी और 18 मील लंबी झील थी। उन्होंने कांग्रेसी सरकार से भी अपील की लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकाला तो गरीब किसान और मजदूरों को एकजुट कर 1 मई, 1967 को कुदाल डलिया लेकर भुवना झील की खुदाई में हाथ लगा दिया। इस पर बड़े जमींदारों ने उन पर मुकदमा चलाया।

जिला पदाधिकारी, आरक्षी अधीक्षक पुलिस बल के साथ झील की खुदाई रोकने आए किंतु किसान मजदूरों की संगठित चट्टानी एकता का वे बाल बांका नहीं कर पाए। जल्द ही भुवना झील से नहर कटिहार के निकट कारी कोशी में मिला दी गई। जल स्रोत वेग के साथ कारी कोशी के साथ मिलकर भवानीपुर गांव के निकट गंगा नदी में मिल गया। इससे जो जमीन बाहर निकली मालाकार जी ने उन्हें किसान मजदूरों के बीच बांट दी। वह नहर नदी के रूप में आज भी वहां के लोकमानस में मालाकार नदी के रूप में जानी जाती है।

बहरहाल, 27 सितंबर, 1987 को अपने घर पर ही किडनी फेल हो जाने के कारण इलाज के अभाव में उनकी मौत हो गई। अपने दौर के इतने बड़े लिविंग लिजेंड का पूरा घर परिवार समाज की सेवा में इसी तरह अपने को होम करता हुआ एक साधारण गरीब की तरह इलाज के अभाव में मरा। जातिवादी अकादमिक बिरादरी इतिहास में उनकी एक दूसरी मौत का जश्न मना रहा है उनकी आपराधिक उपेक्षा करके। लेकिन जन-जन का नायक – हमारा चिरंतन विद्रोही कभी नहीं मरता! वह इतिहास के रंगमंच पर एक बार फिर अवतरित हो रहा है- आकाश में हमेशा चमकते ध्रुव नक्षत्र की तरह!

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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