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पदोन्नति में एससी-एसटी को आरक्षण देने को सरकार बाध्य नहीं, पढ़ें पूरी बहस

वर्ष 2006 में एम नागराज मामले में पांच जजों की पीठ ने कहा कि राज्य पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है और एससी और एसटी पर क्रीमी लेयर  का सिद्धांत लागू नहीं होगा। पर इस मामले में बीते 23 अगस्त 2018 को हुई बहस के दौरान पीठ ने पूछा कि क्या क्रीमी लेयर का सिद्धांत एससी और एसटी पर भी लागू हो सकता है या नहीं। पढ़िए यह रपट :

कोर्ट ने फिर पूछा – क्रीमी लेयर का सिद्धांत एससी और एसटी पर भी लागू किया जा सकता है या नहीं?

सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को एम नागराज मामले में पुनर्विचार पर हो रही सुनवाई के दौरान पूछा कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत जो इस समय सिर्फ पिछड़ी जातियों पर लागू होता है, इसे अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) पर भी लागू किया जा सकता है या नहीं।

“फर्ज कीजिये कि एक जाति है जो 50 साल पहले पिछड़ी थी और अब इसमें एक ऐसा वर्ग है जो संपन्न वर्ग (क्रीमी लेयर) में आता है। कोर्ट ऐसा क्यों नहीं कह सकती है कि गैर-बराबरों को बराबरों की तरह मत समझिये… क्योंकि (आरक्षण देने का) पूरा विचार ही उन लोगों को मदद करना है जो इसके लायक हैं, उन लोगों को नहीं जो पहले ही दोनों पांवों पर खड़े हैं,” न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन ने कहा।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक़, नरीमन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय पीठ में शामिल हैं जो इस मामले की सुनवाई कर रही है। सुनवाई का मुद्दा यह है कि एम नागराज मामले में 2006 में पदोन्नति में आरक्षण पर जो फैसला आया था उस पर पुनर्विचार की जरूरत है कि नहीं। पीठ में शामिल अन्य लोग हैं न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, एसके कौल और इंदु मल्होत्रा।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

न्यायमूर्ति मिश्रा ने पूछा, “अगर आरक्षित श्रेणी का कोई व्यक्ति किसी राज्य में सचिव बन जाता है…तो क्या वरिष्ठता में पदोन्नति देने के लिए उसके परिवार को पिछड़ा माना जाएगा?”

“और वह भी निरंतरता में,” न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा।

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नागराज फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने वाले एक पक्ष के वकील दिनेश द्विवेदी ने पीठ से कहा कि यह एक  ‘भ्रांति’ है कि यह (आरक्षण) हमेशा के लिए है। संविधान में इस बात का प्रावधान किया गया है कि विधायिका इसको कैसे अंजाम दे सकती है जो आम लोगों के इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है।

“नागराज फैसले में संवैधानिक संशोधन की वैधता के निर्धारण के लिए गलत जांच का प्रयोग किया गया है। जिस जाँच का प्रयोग किया गया है वह बाध्यकारी जरूरत थी,” कुछ कर्मचारियों की पैरवी करते हुए उनके वकील इंदिरा जयसिंह ने यह बात कही।

अधिवक्ता राजीव धवन

जयसिंह ने कहा कि संविधान के किसी भी हिस्से में इसे जांच के रूप में शामिल नहीं किया गया है। उन्होंने कहा कि आरक्षण खुद ही एक बाध्यकारी कारण था और श्पिछड़ापन कोई  मानदंड नहीं है बल्कि यह है कि व्यक्ति किस जाति, जनजाति का है।श्

वकील का जवाब देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत राज्य को पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान करने का अधिकार है जो कि कुछ शर्तों से बंधा है। इसकी व्याख्या संविधान पीठ ने की।”

अधिवक्ता इंदिरा जय सिंह

जयसिंह ने कहा कि फैसले में “सकारात्मक कार्रवाई” जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है और यह आरक्षण जैसा नहीं है। सकारात्मक कार्रवाई अमरीकी परिकल्पना है और कोर्ट ने अपने सभी फैसलों में सकारात्मक कार्रवाई को आरक्षण समझ लिया है।

न्यायमूर्ति नरीमन ने पूछा कि क्या कोई राज्य यह कह सकता है कि यद्यपि उसकी कुल जनसंख्या में 18 प्रतिशत अनुसूचित जातियाँ हैं, वह प्रथम श्रेणी के पदों के लिए सिर्फ दो प्रतिशत सीट आरक्षित करता है।

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वकील ने इसका उत्तर ना में दिया और कहा कि निचले रैंक में अधिकांशतः एससी वर्ग के लोग हैं क्योंकि कोई अन्य इस काम को करने का इच्छुक नहीं होता। उन्होंने कहा कि यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के बार कक्ष में सभी कर्मचारी अनुसूचित जाति के हैं।

नागराज फैसले की इस बात पर कि पदोन्नति में आरक्षण प्राशासनिक क्षमता को अवश्य ही प्रभावित न करे, जयसिंह ने कहा कि कर्मचारियों की वार्षिक गोपनीयता की रिपोर्ट राज्य स्तर पर तैयार की जाती है और इसमें जिस एक कारक का ध्यान रखा जाता है वह है प्रशासनिक क्षमता। जो क्वालीफाई नहीं करते वो तो पदोन्नति के बारे में सोच तक नहीं सकते, इंदिरा जयसिंह ने कहा।  

जयसिंह ने कहा कि इस फैसले में पिछड़ेपन की परिकल्पना को लागू करने से यह बहिष्करण को और ज्यादा बढ़ाता है जबकि संविधान समावेशीकरण पर जोर देता है। महाराष्ट्र, त्रिपुरा और मध्य प्रदेश ने भी मांग की कि इस मामले को बड़ी पीठ को पुनर्विचार के लिए भेजा जाना चाहिए।

नागराज फैसले पर पुनर्विचार का विरोध करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि यह “सिद्धांतपूर्ण फैसला” था। उन्होंने कहा कि आज आरक्षण को अनिश्चित अवधि तक विस्तार देने में ख़तरा ज्यादा है” और उन्होंने आरक्षित श्रेणी में शामिल किये जाने को लेकर  हो रहे विभिन्न आंदोलनों की ओर ध्यान आकृष्ट किया।

वर्ष 2006 में पांच जजों की पीठ ने नागराज मामले में कहा कि राज्य पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। पर अगर कोई राज्य इस तरह का प्रावधान करना चाहता है तो उसको इस वर्ग के बारे में मात्रात्मक आंकड़े जुटाने होंगे जो कि उनके पिछड़ेपन को साबित करता है और यह भी कि इस वर्ग को सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।

इसके अलावा राज्य को यह भी सुनिश्चित करना था कि आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा से ऊपर न जाए या क्रीमी लेयर को प्रतिकूलतः प्रभावित न करे या इनको अनंत काल के लिए विस्तारित न करे। इस फैसले में कहा गया कि क्रीमी लेयर की परिकल्पना को एससी और एसटी के लिए सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण पर लागू नहीं किया जा सकता।

नागराज मामले में 77वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1995, संविधान संशोधन (81वां) अधिनियम, 2000, संविधान संशोधन (82वां) अधिनियम, 2000 और संविधान संशोधन (85वां) अधिनियम, 2001 की वैधता को परखा गया था।

इसके बाद नागराज मामले में आए फैसले के आलोक में कई उच्च न्यायालयों ने पदोन्नति में आरक्षण को निरस्त कर दिया जिसके बाद इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में लाया गया जिस पर अब संविधान की पांच सदस्यीय पीठ सुनवाई कर रही है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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