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प्रोन्नति में आरक्षण मामले पर सुप्रीम कोर्ट में घनघोर बहस  

अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने का मुद्दा वर्ष 2006 में एम नागराज मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण उलझ गया है। इतना कि अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इसकी समीक्षा के लिए संविधान पीठ का गठन किया जिसने अब इसकी सुनवाई शुरू कर दी है    

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने शुक्रवार से एम नागराज बनाम भारत संघ मामले की समीक्षा संबंधी सुनवाई शुरू कर दी। पांच सदस्यीय इस पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा कर रहे हैं और इसमें न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, आरएफ नरीमन, एसके कौल और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। पीठ के समक्ष मुद्दा यह है कि 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एम नागराज बनाम भारत संघ के मामले में जो निर्णय दिए थे, क्या उस पर पुनर्विचार की जरूरत है।

दीपक मिश्रा

3 अगस्त, 2018 की सुनवाई में भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ हजारों साल से भेदभाव और असमानता झेल रही हैं। वे आज भी पिछड़े हुए हैं और उन्हें सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण की जरूरत है।

पीठ के समक्ष अपनी दलील में सरकार का पक्ष करते हुए वेणुगोपाल ने कहा कि अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण की बात की गई है और इसके तहत राज्यों को अधिकार दिया गया है कि वे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान कर सकते हैं।

नागराज मामले में अपने फैसले में 2006 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने प्रोन्नति में आरक्षण देने से साफ़ मना कर दिया था पर कहा था कि राज्य इसके लिए प्रावधान कर सकते हैं लेकिन ऐसा करने से पहले उनको इस समूह के बारे में मात्रात्मक आंकड़े जुटाने होंगे ताकि यह साबित किया जा सके कि यह समूह पिछड़ा है और सरकारी रोज़गार में उसका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। राज्य को यह भी बताना होगा कि अगर वह इस तरह का आरक्षण देता है तो इसका प्राशासनिक सक्षमता पर क्या असर पड़ेगा।

केके वेणुगोपाल

वेणुगोपाल की दलील थी कि 2006 का फैसला लागू करने योग्य नहीं है क्योंकि राज्यों को इसके लिए जो काम सौंपा गया है वह काफी कठिन है। पीठ ने अटॉर्नी जनरल से कहा कि बिना मात्रात्मक आंकड़े का वे कैसे किसी समूह के पिछड़ेपन के बारे में निर्णय करेंगे। कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यों ने अभी तक ऐसे समूहों के बारे में इस तरह के आंकड़े क्यों नहीं जुटाए हैं।

अटॉर्नी जनरल का कहना था कि यह आंकड़ा जुटाना मुश्किल इसलिए है क्योंकि इसकी स्थिति बदलती रहती है, लोग मरते हैं, रिटायर होते हैं, उनका तबादला होता है और इनकी वजह से इनमें बदलाव आता रहता है। न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने पूछा कि क्या प्रवेश के स्तर पर ही कोई रोस्टर है या पदोन्नति के लिए भी है। वेणुगोपाल ने कहा, “रोस्टर है और इसी वजह से यह मात्रात्मक डाटा की जरूरत भी पूरी कर देता है। हमें हर मामले में डाटा प्राप्त करने की जरूरत नहीं है।”

मुख्य न्यायाधीश ने दीपक मिश्रा ने कहा कि संविधान का तकाजा है कि राज्य यह साबित करे कि किसी विशेष समूह को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला हुआ है।

पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करने वालों की ओर से दलील पेश करने वाले वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा कि अनुच्छेद 16(4) के तहत किसी भी तरह के आरक्षण के लिए पिछड़ेपन को पहला शर्त माना गया है। इसके तहत राज्यों को किसी भी समूह के लिए आरक्षण देने का अधिकार है जिसको वह पिछड़ा समझता है और अगर उसको राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।उन्होंने कहा कि यह पूर्व शर्त कायम है और अगर राज्य किसी समूह को आरक्षण देता है तो उसको इसका आधार बताना होगा।

धवन ने कहा कि क्रीमी लेयर के सिद्धांत को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर भी लागू किया जाना चाहिए। इस समय यह सिर्फ ओबीसी पर ही लागू होता है।

इसे भी पढ़ें : क्रीमी लेयर का फांस

एम नागराज फैसले के बाद अब इस समय सरकारी नौकरियों में पदोन्नति प्राप्त करने में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू नहीं होता। 2006 के इस फैसले के बाद जिन-जिन राज्यों ने सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान किया, हाईकोर्टों ने उसे निरस्त कर दिया जिसके बाद इन मामलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई। और अब इसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है।


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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