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सर्वे ने डीबीटी की खोली पोल, झारखंड सरकार ने खड़े किये हाथ

गरीब आदमी को पैसा चाहिए या अनाज? झारखंड सरकार ने पिछले ही साल रांची के नगड़ी प्रखंड में गरीब आदिवासियों को अनाज के बदले पैसा देने की योजना प्रारंभ की। एक साल के अंदर ही उसे अपना फैसला वापस लेना पड़ा। ऐसा क्यों हुआ? फारवर्ड प्रेस की एक खबर :

झारखंड की राजधानी रांची के नगड़ी प्रखंड में सरकार ने जन वितरण प्रणाली को लेकर एक अहम योजना की शुरुआत की थी। लेकिन एक साल में ही सरकारी इंतजाम लालफीताशाही की शिकार हो गयी और सरकार ने हाथ खड़े कर दिये। अब राज्य सरकार ने नगड़ी प्रखंड में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी योजना को स्थगित करने की घोषणा कर दी है।

डीबीटी का विरोध करते झारखंड के आदिवासी

गौरतलब है कि आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में लोगों को रियायती दर पर खाद्यान्न सुनिश्चित कराने को लेकर इस योजना की शुरुआत की गयी थी। इसके तहत डिजिटल तरीके से खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजना थी। यह निर्धारित किया गया था कि पॉस मशीन लाभार्थी के अंगूठे का निशान पहचानेगा और यह प्रमाणित होने के बाद कि अमुक लाभार्थी ही असली में हकदार है, खाद्यान्न का उठाव कर सकेगा।

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सरकार की इस योजना का विरोध राज्य के कई स्वयं सेवी संगठनों द्वारा किया जा रहा था। उनका तर्क यह था कि डिजिटल मशीन लाभार्थियों को सुविधा कम जटिलता अधिक पैदा करेगी। खासकर वृद्ध लाभार्थियों के अंगूठे के निशान को मशीन नहीं पढ़ सकेगी। इस कारण वे खाद्यान्न के लाभ से वंचित कर दिये जायेंगे।

दिखावे का अंत : इसी वर्ष 20 मई को डीबीटी से जुड़े एक कार्यक्रम के दौरान आदिवासी महिला को 1,106 रुपए का चेक देते झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास

राज्य में कथित तौर पर भूखमरी से हुई मौतों की वजह भी डीबीटी को ही बताया गया। विपक्ष का आरोप है कि जनवितरण प्रणाली की दुकानों से अनाज लेने वाले लोग गरीब तबके से हैं। ज्यादातर लोग बहुत पढ़े लिखे भी नहीं हैं। ऐसे में कभी अंगूठे का निशान नहीं मिलता, तो कभी बैंकों में लिखा-पढ़ी का चक्कर। ज्यादातर लोग पहले की तरह सीधे पैसे देकर अनाज लेने के पक्ष में दिखे।

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दरअसल सरकार की इस योजना की कलई तब खुली जब अक्टूबर 2017 में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की अगुवाई में नगड़ी में सर्वे की शुरुआत की। इसमें नब्बे फीसदी से अधिक लोगों ने कहा कि वे डीबीटी योजना को वापस लिए जाने के पक्ष में हैं। कई लोगों ने शिकायत की कि डीबीटी के तहत मिलने वाले पैसे नके खाते में जमा नहीं हो रहे। कई परिवारों ने आरोप लगाया था कि उन्हें बैंक से राशि निकलवाने के लिए चार-चार बार बैंक जाना पड़ता है। इस सर्वेक्षण में कुल 13 टीमों ने भाग लिया और 13 ग्राम पंचायतों में सोशल ऑडिट किया। इस दौरान कुल 12 हजार 126 लाभार्थियों से डीबीटी को लेकर उनका अनुभव जाना गया। सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 96.9 प्रतिशत लाभार्थियों ने डीबीटी योजना को खारिज किया और कहा कि इससे अच्छी पहले वाली योजना थी। जबकि केवल 2.4 फीसदी लोगों ने डीबीटी योजना को बेहतर बताया।

आदिवासी महिलाओं के साथ अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज

कई लोगों ने कहा कि उन्हे बैंक में लाइन लगाकर पैसे निकालने में भारी परेशानी होती है। सर्वे में शामिल अधिकांश ग्रामीणों ने आरोप लगाया था कि पिछले चार महीने में डीबीटी की चार किश्तों में केवल दो ही किश्त मिल पाये हैं। ज्यादातर ग्रामीणों को डीबीटी राशि लाने के लिए साढ़े चार किलोमीटर की दूरी तय करने पड़ते हैं और इस दौरान उन्हें 15 घंटे का वक्त लगता है। उनका ज्यादातर वक्त प्रज्ञा केंद्र, राशन दुकानों और बैंकों में भटकना पड़ता है। कई ग्रामीणों का आरोप है कि कि डीबीटी का पैसा आया है कि नहीं और अगर आया तो किस खाते में है।

बहरहाल इसी सर्वेक्षण के आलोक में बीते 7 अगस्त को झारखंड के खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले विभाग के द्वारा रांची के उपायुक्त विनय कुमार राय को पत्र भेजकर आदेश दिया गया है कि वह नगड़ी प्रखंड में डीबीटी योजना को बंद करें। साथ ही यह भी गया है कि पूर्व की तरह लाभार्थियों को एक रुपए प्रति किलोग्राम की दर से खाद्यान्न वितरण कराया जाय।

(कॉपी एडिटर : विशद)


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