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तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण पर रोक से सुप्रीम कोर्ट ने किया इंकार, संविधान पीठ करेगी अंतिम फैसला

आरक्षण एक हथियार है सामाजिक गैर-बराबरी से उबरने का। हाशिये पर मौजूद लोगों को सबल बनाने लिए लिए यह न केवल जरूरी है बल्कि इसको और बढ़ाए जाने की जरूरत है। तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराना इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पढ़िए यह रपट :

तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने फिर लगाई मुहर

सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ी जातियों को 69 प्रतिशत आरक्षण देने वाले तमिलनाडु के क़ानून में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है। कोर्ट द्वारा 27 अगस्त, 2018 को  दिया गया यह फैसला बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस क़ानून पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वालों का तर्क था कि मंडल मामले में आए फैसले में आरक्षण की ऊपरी सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की गई है। तमिलनाडू में भी आरक्षण इस सीमा को पार नहीं किया जा सकता।

जस्टिस अरुण मिश्र और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि संविधान पीठ आरक्षण को लेकर मामले की सुनवाई कर रही है। नवंबर में इसकी सुनवाई संभव है। जबतक यह फैसला नहीं हो जाता है तबतक तामिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण को रोका नहीं जा सकता है।


क्या है आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान

गौरतलब है कि संविधान के 93वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 15 में एक उप-धारा 5 जोड़ी गई थी,  जिसके तहत राज्यों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े किसी भी वर्ग लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार दिया गया है। राज्यों को, सरकारी और निजी दोनों ही तरह के शैक्षिक संस्थानों में – भले ही उन्हें राज्य की ओर से वित्तीय मदद मिलती है नहीं, विशेष आरक्षण प्रावधान के तहत प्रवेश का अधिकार दिया गया है। इन संस्थानों में संविधान के अनुच्छेद 30 के उपनियम (1) के तहत अल्पसंख्यक माने जाने वाले संस्थान शामिल नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

इस तरह 93वें संविधान संशोधन द्वारा राज्यों को यह अधिकार दिया गया कि वे अगर उचित समझें तो अपने राज्यों में आवश्यकतानुसार आरक्षण की सीमा उन वर्गों के लिए बढ़ा सकते हैं, जिन्हें वे आरक्षण देना जरूरी समझते हैं।

तमिलनाडु और कुछ अन्य राज्य इसी प्रावधान के तहत अपने यहाँ पिछड़े और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों को आरक्षण में विशेष प्रावधान किया है और यह केंद्र सरकार के 50 प्रतिशत की आरक्षण की सीमा से अधिक  हैं।

क्या थी याचिका

यह याचिका  संचना और अखिल अन्नपूर्णी ने दायर की थी। याचिका में तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (राज्य के शैक्षिक संस्थानों एवं सरकारी पदों पर नियुक्तियों में आरक्षण) अधिनियम, 1993 को स्थगित करने की मांग की गई थी। उन्होंने इस क़ानून को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि 69 प्रतिशत आरक्षण देने का यह प्रावधान केंद्र द्वारा आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत रखने के फैसले का उल्लंघन करता है।

जस्टिस अरूण मिश्र

याचिकाकर्ता के वकील ने के. एम. विजयन और सिवबाला मुरुगन का यह भी कहना था कि आरक्षण के कारण प्रवेश से वंचित रहे छात्रों को राहत देने के लिए अतिरिक्त सीट का प्रावधान किया जाए, जैसा कि ऐसा पहले कई बार किया गया है। पर न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ  ने ऐसा करने से मना कर दिया।

जस्टिस इंदिरा बैनर्जी

पीठ ने 1994 के क़ानून की वैधता की चुनौती के प्रश्न पर कहा कि इस पर नवंबर में सुप्रीम कोर्ट की संविधान सुनवाई करने वाली है और इसका निर्णय तभी होगा।

बताते चलें कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2006 में केंद्र द्वारा 27 प्रतिशत आरक्षण देने के क़ानून के खिलाफ दायर याचिका पर अप्रैल 2008 में सुनवाई करते हुए इस क़ानून को संविधान सम्मत माना था। अपने फैसले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन ने कहा था, “93वां संशोधन अधिनियम संविधान की मौलिक संरचना से छेड़छाड़ नहीं करता क्योंकि यह राज्य और राज्य द्वारा सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थानों से संबंधित है। संविधान का अनुच्छेद 14(5)और 15(5) संवैधानिक रूप से वैध हैं और परस्पर विरोधी नहीं हैं।”

सेवानिवृत न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन

मुख्य न्यायाधीश ने यह  कहा था कि, “ आरक्षण गुणवत्ता को संरक्षित रखने और उसको बढ़ावा देने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कई तरह के माध्यमों में एक माध्यम है ताकि समाज के पिछड़े समूहों को नागरिक जीवन की प्रथम पंक्ति में लाया जा सके। यह राज्य का कर्तव्य भी है कि वह सकारात्मक कदम उठाते हुए असमानता की बाधाओं को दूर करे और विभिन्न समुदायों को आजादी का स्वाद चखने दे और उनको संविधान प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठाने दे।”

बहरहाल, हमारे देश में हर जगह सामाजिक रूप से पीड़ित लोगों के हाशियाकरण की तीव्रता अलग अलग है। ऐसा भी है कि एक राज्य में जो जातीय समूह पिछड़े वर्ग में है वह दूसरे राज्य में अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग में है। ऐसे में राज्यों को 93वें संविधान संशोधन से यह उचित ही अधिकार दिया गया है कि वे इस बारे में अपनी आवश्यकतानुसार निर्णय लें।

यह भी पढ़ें : विश्वविद्यालयों में आरक्षण : न छीनने की घोषणा और न देने की मंशा

इस संबंध में आगामी फैसलों को करते हुए माननीय न्यायालय को ध्यान रखना चाहिए कि आरक्षण सामाजिक सशक्तीकरण का एक बहुत ही प्रभावी माध्यम है और यह वह एकमात्र ताकत है, जो राज्य की ओर से भारत के वंचित तबकों को उपलब्ध करवाई गई है। अन्यथा, इस ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य द्वारा उपलब्ध करवाई जाने वाली प्राय: सभी सुविधाएं विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक वर्गों पर पूंजीपतियों के लिए हैं।

(कॉपी-संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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