मुंबई स्थित 32 वर्षीय सुधीर राजभर जब एक छोटे बच्चे थे तब से ही उन्होंने चमार शब्द को अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध चर्मकार समुदाय के सदस्यों के लिये एक कलंकनुमा शब्द के तौर इस्तेमाल होते हुए सुना। उन्होंने इसे ज़िन्दगी के तरीके के रूप में स्वीकार करना सीख लिया। उनके पास कोई विकल्प नहीं था। हालांकि सुधीर स्वयं अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं। अपने बचपन की यादों को साझा करते हुए वे बताते हैं कि तब वे जातिवाद के बारे में इतना ही जान सके कि, यह सामाजिक ढांचे और आम बोलचाल की रग-रग में भरा हुआ है। हालांकि आज एक कलाकार के रूप में उन्होंने अपनी राह ढूंढ ली है और चमार शब्द को नयी परिभाषा देने का प्रयास कर रहे हैं।
अपने बूते बना रहे अपनी राह
अपनी कला को अपनी अभिव्यक्ति बनाकर उन्होंने अपने नये डिज़ाइन ब्रांड “चमार” को लॉन्च किया, जिसका उद्देश्य इस शब्द को फिर से परिभाषित करना है। उनके मुताबिक लोग समझते नहीं हैं कि चमार शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो चमड़े के साथ काम करते हैं।
हालांकि बड़े शहरों में इस तरह भेदभाव नहीं है, पर गांवों में, आज भी लोग इस शब्द को एक कलंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। आठ महीने पहले चमार स्टूडियो लॉन्च करने वाले राजभर कहते हैंकि यह बहुत निराशाजनक है। राजभर चमार ब्रांड के तहत बेल्ट, बैग, गुलेल आदि जैसी चीज़ें बेचते हैं। वर्तमान में वह पांच चर्मकारों के साथ मिलकर काम करते हैं।
वह डिजाइनिंग और काटने का काम करते हैं, तो उनके सहयोगी चर्मकार सिलाई के काम में मदद करते हैं। राजभर ने जानबूझकर उत्पादों के पारंपरिक नामों को बरकरार रखा है जैसे पट्टा खासा, बटुआ, झोला, कार्यालय, बनिया, बस्ता, बोरा, चमार, थैला आदि। उत्पादों की कीमत 1,500 रुपये से 6,000 रुपये के बीच है। आधा मुनाफा वह अपने साथ काम करने वाले चर्मकार साथियों को देते हैं।
राजभर का जन्म और उनकी परवरिश मुंबई के कांदिवली झोपड़पट्टी में हुई थी। उनके माता-पिता उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले से मुंबई आ गये थे। पिता को डाक विभाग में नौकरी मिलने के बाद उनका परिवार सांताक्रुज़ स्थित सरकारी क्वार्टर में शिफ्ट हो गया। उनकी पत्नी मनीषा भारद्वाज राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में संरक्षक के रूप में काम करती हैं।
राजभर का झुकाव हमेशा से रचनात्मक की ओर था। इसलिए बीएल रुइया हाई स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने भारतीय कला संस्थान और वसई विकासिनी कॉलेज ऑफ आर्ट्स में दाख़िला लिया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने चिंतन उपाध्याय और नवजोत अल्ताफ जैसे कई स्थापित कलाकारों के साथ सहायक के तौर पर काम किया।
2016 में उन्हें अपना पहला ब्रेक मिला, जब उन्हें काला घोड़ा फेस्टिवल के अवसर पर जहांगीर आर्ट गैलरी में आयोजित प्रोजेक्ट आर्ट प्रैक्टिस नामक एक ग्रुप शो का हिस्सा बनकर अपना काम दिखाने का मौक़ा मिला।
राजभर बताते हैं कि मेरे काम का नाम बॉम्बे ब्लैक शो रखा गया था, जिसमें मैंने काले रंग के ‘थैलों’ का फ्रेम और अक्षरों जैसी चीज़ों के साथ इस्तेमाल करके, उन लोगों को दिखाया जिन्होंने घरों की तोड़फोड़ के अभियान के दौरान अपना आशियाना खो दिया था।
कैसे हुई शुरुआत?
राजभर अपने ब्रांड के बनने की एक दिलचस्प कहानी सुनाते हैं। पिछले साल उन्होंने मुंबई में ‘टेक द सिटी प्रोजेक्ट’ में भाग लिया था। वह बताते हैं कि मैंने कुछ ऐसा पेश करने का फैसला किया जो मेरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हो
उन्होंने एक कपड़े के बैग को शोकेस किया जिसमें विभिन्न लिपियों में ‘चमार’ शब्द लिखा गया था। वे बताते हैं कि मैं यह शब्द लोगों के बीच लाना चाहता था और उन्हें बताना चाहता था कि यह सिर्फ एक पेशा है। मैं लगभग 40 थैले ले गया था और सभी बिक गए थे। उस समय उनकी बहादुरी भरे काम की तारीफ के लिए उनके पास कोई नहीं था।
राजभर ने काम की रफ्तार जारी रखने के लिए शोध करने का फैसला किया। उन्हें उस वक़्त बहुत निराशा हुई जब उन्होंने महसूस किया कि गोमांस पर प्रतिबंध के चलते उनके समुदाय की और दुर्दशा हो गई है, क्योंकि गाय की खाल उनके उत्पादों के लिए मुख्य कच्ची सामग्री है। तब राजभर और उनकी टीम ने रिसाईकल रबड़ और टायर शीट की तरफ रुख किया। भविष्य में वह केरल से कुछ बायोडिग्रेडेबल कच्चा माल खरीदने की भी योजना बना रहे हैं।
अब आगे की राह
अभी उनके पास वास्तविक कला स्टूडियो नहीं है, इसलिए वो www.chamarstudio.com के ज़रिए ऑनलाइन ही अपना सामान बेच रहे हैं। साथ ही उनके काम के कुछ नमूने मुंबई में ली मिल स्टोर में भी देखे जा सकते हैं। वह अक्सर डिजाइन और काम पर चर्चा करने के लिए उन सभी चर्मकारों से मिलते रहते हैं जिनके साथ वो काम करते हैं। वह कांदिवली में एक आर्ट स्टूडियो बनाने की योजना बना रहे हैं, जहां उनकी टीम के सदस्य उनको मिले ऑर्डर्स पर काम करने के लिए एक साथ बैठ सकेंगे।
राजभर कहते हैं कि स्टूडियो में एक कोना आज के वक़्त के डिज़ाइन और कला से संबंधित किताबों को समर्पित होगा। राजभर आगे कहते हैं कि मैं चमारों को डिजाइनिंग और कटिंग भी सिखाने की योजना बना रहा हूं। मैं सिलाई करना नहीं सीखूंगा क्योंकि इससे उनकी कमाई खत्म हो जाएगी।
वह अपनी कला को रेलवे स्टेशनों पर बैठकर जूते चमकाने वालों, और दूसरे दबे हुए परेशान लोगों तक पहुंचाने की योजना बना रहे हैं। राजभर बताते हैं कि जो लोग उनके डिजाइन खरीदते हैं वे ‘चमार’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर उत्सुक रहते हैं।
उन्हें उन लोगों की जिज्ञासा बढ़ाकर बहुत ज़्यादा ख़ुशी होती है। उन्होंने आगे कहा कि मैं चाहता हूं कि ‘चमार स्टूडियो के साथ, लोग चमार शब्द को अच्छी चीज़ से जोड़कर देखें। वे मानते हैं कि इस समुदाय को इस शब्द के स्वामित्व और इसके सही इस्तेमाल की ज़िम्मेदारी के लिये आगे आना होगा और वह ऐसा करने के लिए तैयार हैं।
(अंग्रेजी से अनुवाद – असद शैख़, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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