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विश्व आदिवासी दिवस : भारत में आरएसएस नाराज, बांग्लादेश में जश्न की तैयारी

9 अगस्त 1982 को संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर मूलनिवासियों का पहला सम्मेलन हुआ था। इसकी स्मृति में विश्व आदिवासी दिवस मनाने का आह्वान 1994 में किया गया। इस दिवस को खास तौर पर मनाया जाने भी लगा है। लेकिन भारत में आरएसएस को इससे एतराज है जबकि बांग्लादेश में जश्न की तैयारी है। कमल चंद्रवंशी की खबर :

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) मध्य प्रदेश सरकार के इस फैसले से सख्त नाराज है कि वह आदिवासियों के साथ राज्यभर में 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के सभा-समारोहों को समर्थन दे रही है और खुद भी उसमें शरीक होने जा रही है। राज्य सरकार जनजाति बहुल इलाकों के बीस से ज्यादा जिलों में आधिकारिक रूप से सरकारी छुट्टी का एलान कर चुकी है जबकि सरकारी अमले ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दो कार्यक्रमों को अंतिम रूप दे दिया है जिसमें वह संबोधित करेंगे। इसका सरकारी टीवी और निजी चैनलों, प्रसारणकर्ताओँ के माध्यम से पूरे राज्य में सीधा प्रसारण किया जाएगा। राज्य सरकार के जनजातीय कल्याण विभाग के अधिकारियों ने जनजातीय कल्याण दिवस के रूप में इस दिन के उत्सव का विरोध किया था और असहमति जताई थी।

आमने-सामने

बताते चलें कि जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) सहित तमाम अादिवासी संगठन 9 अगस्त को राज्य में व्यापक रूप में आदिवासी दिवस मना रहा है जिसके जवाब में राज्य सरकार ने अपनी तैयारियां की हैं। लेकिन उसने इस दिवस को आदिवासी दिवस के रूप में नहीं बल्कि स्वदेशी (देशज) दिवस की संज्ञा दी है।

मध्यप्रदेश के अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग का तर्क है कि अगर राज्य सरकार भी आदिवासी दिवस मनाती है तो यह संदेश जाएगा कि राज्य में सभी आदिवासी बाहर से आए हुए हैं। वैसे सरकार की इस पहल को चुनावी रणनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। सियासी गलियारे में कहा जा रहा है कि जल्द ही सिर पर चुनाव हैं, इसलिए शिवराज सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस मनाने का फैसला किया।

इस बारे में राज्य सरकार के एक प्रवक्ता ने फारवर्ड प्रेस से कहा कि यह सही है कि वर्तमान लोकसभा में ही एक निजी विधेयक के जरिए 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की बात कही गयी थी, लेकिन सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया था। इसी आधार पर ही आरएसएस के नेताओं ने इस दिन जश्न मनाने को लेकर सवाल उठाया है। सरकार और बीजेपी की मुश्किल ये है कि राज्य में 47 विधानसभा सीटें हैं जो आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। जबकि धार, झाबुआ और अलीराजपुर में जयस के तेवर को देखते हुए सरकार को बहुत तैयारी के साथ आदिवासी दिवस मनाने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

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‘हम हिंदू नहीं आदिवासी हैं’

लेकिन आरएसएस के विरोध के पीछे असली वजह संघ के प्रमुख नेताओं की वैचारिकी है। पिछले साल संघ के भोपाल में हुए हिंदू सम्मेलन को लेकर आदिवासी कार्यकर्ताओं ने आरएसएस मुखिया मोहन भागवत का पुतला फूंका था जिसके बाद भागवत ने कहा, ‘पुतला दहन से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन आदिवासी क्यों खुद को हिन्दू मानने तैयार नहीं और किस जतन से उन्हें खुद को यह कहने राजी किया जाए।’ दरअसल इस सम्मेलन को लेकर मोहन भागवत बैतूल भी गए थे लेकिन आदिवासी नहीं माने और भागवत के बड़ा झटका लगा क्योंकि उसका ‘आदिवासियों की घर वापसी अभियान’ विफल हो गया था।

आदिवासी संगठनों का कहना था कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं इसलिए उन्हें सम्मेलन में न जाने के लिए समझाया गया। बैतूल पूरी तरह आदिवासी बहुल है। ऐसा ही आहवान झारखंड की राजधानी रांची में किया गया था। जयस के मुताबिक उनके रीति-रिवाज और संस्कृति हिन्दू समाज से भिन्न हैं। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं।

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बताते चलें कि इससे पहले रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में आदिवासियों की आस्था पर आरएसएस द्वारा चोट की गयी थी जब सरना धर्म को अलग धर्म मानने से इनकार कर दिया गया था। आदिवासी कहते हैं: हम मूर्ति पूजा नहीं करते। प्रकृति के उपासक हैं। ऐसे में हम हिंदू कैसे हो सकते हैं। ऐसे में आरएसएस का बयान बेतुका है। आज़ादी के पहले जब हमें मान्यता थी तो अब क्या दिक्कत है। केंद्र और झारखंड में बैठी भाजपा सरकार हमारी संस्कृति और धर्म को भ्रष्ट करना चाहती है। हम इसका विरोध करेंगे।” आदिवासी महासभा, आदिवासी जनपरिषद, आदिवासी छात्रसंघ, आदिवासी सेंगेल अभियान और झारखंड दिशोम पार्टी का आरएसएस से तीखा विरोध है।

मोदी नहीं बीच में

बीबीसी पर प्रकाशित एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव कहते हैं, ‘आदिवासी और दलित आरएसएस के हिंदुत्व के खांचे में फिट नहीं हो पाते जो पलट कर पूछते हैं कि अगर हम भी हिंदू हैं तो अछूत और हेय कैसे हुए?’ बहरहाल, कहा जाता है कि पिछले चार साल से जब मोदी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए, वह जो करते हैं मन की करते हैं। लगभग 27 बरस पहले लिखी गई वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले की किताब “दी ब्रदरहुड इन सैफ्रन” की गिनती आज भी संघ पर हुए बेहतरीन शोध कार्यों में होती है। वाल्टर ऐंडरसन 2003 तक अमेरिकी विदेश विभाग से जुड़े रहे, वो दिल्ली में अमरीकी दूतावास वाशिंगटन के जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया प्रोग्राम के निदेशक रहे।

बीबीसी के एक साक्षात्कारकर्ता से उन्होंने कहा, ‘मेरा आकलन ये है कि मोदी अपने मन की करते हैं जबकि आरएसएस एक सामूहिक नेतृत्व में विश्वास रखता है। तो उनको लेकर गुजरात आरएसएस में ही नहीं नागपुर मुख्यालय में भी आशंकाएं हैं। संघ में मेरे एक जानकार ने मुझे बताया कि उनकी समझ से ये (2014 का चुनाव) पहली बार है जब कार्यकर्ताओं ने शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डाला कि इस चुनाव में वो मोदी का साथ दें और उन्हें अपनी दिशा बदलने के लिए बाध्य किया। आरएसएस से जुड़े बीजेपी के एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे बताया कि मीडिया में भले ही ये सोच हो कि संघ मोदी पर हावी होगा। हक़ीकत इससे बिल्कुल उल्टी है।’

भाजपा क्यों कर रही बचने का प्रयास?

सवाल उठता है कि क्या आरएसएस की सोच मौजूदा सरकार की सोच से अलग और शिरोधार्य है। क्या पार्टी की सियासी मजबूरी के बावजूद आरएसएस आदिवासियों के विरोध में खड़ा हो गया है? इस बारे में हमने कई बीजेपी नेताओं के विचार टटोले। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के प्रमुख नेता तीरथ सिंह से फारवर्ड प्रेस से बात की तो उनकी सफाई थी, हमने आदिवासियों की शिक्षा, उनके सामाजिक स्तर को उठाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए हैं।

बांग्लादेश का आदिवासी समाज

इसे लेकर हमने बीजेपी के एसटी मोर्चा के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद रामविचार नेताम से उनकी राय जानी। वह एमपी-छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी नेताओं में शुमार किए जाते हैं। उनके कार्यालय सहयोगी (जो असल में पीए हैं) से हमने पूछा कि आदिवासियों को लेकर आरएसएस के विरोध के पीछे क्या प्रमुख वजह है, कोई एक कारण बता दें, वह बोले मैं उनका एक कर्मचारी मात्र हूं। जैसे ही हाउस (संसद) से आते हैं मैं बात कराता हूं। दो बार के फोन के बाद भी रामविचार नेताम अपने कार्यालय और अपने फोन से कोई जवाब नहीं दे सके। और तो और दिल्ली, यूपी में मीडिया में सहज उपलब्ध श्याम जाजू ने कहा कि मैं इस समय ड्राइव कर रहा हूं। ‘क्या मेरा नाम और मेरे सवालों को सुनते हुए क्या आप ड्राइव नहीं कर रहे थे कि अब…’ इतनी बात सुनकर श्याम जाजू ने फोन रख दिया। जाहिर है बीजेपी, आरएसएस की इस लाइन से कन्नी काट रहे हैं।

बांग्लादेश है संजीदा

उधर, ढाका विश्वविद्यालय में बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों ने अपने जनजातीय समुदाय के लोगों की भाषा, संस्कृति और साहित्य के संरक्षण की जबर्दस्त हिमायत की है। विश्वविद्यालय में हुए एक जलसे में कहा गया कि प्राचीन संस्कृति के प्रतिनिधि इस समाज को बचाने की सख्त जरूरत है और इसके लिए यूएनओ के घोषित किए गए आदिवासी दिवस की समर्थन देने में सबको खड़े होने की जरूरत है। आदिवासी दिवस मनाने की तैयारियों को लेकर हुए इस कार्यक्रम को ‘आदिवासी कल्याण ओ उन्नावयन’ संस्था ने आयोजित किया।

ढाका में आदिवासी समुदाय की लड़ाई के लिए मार्च करते लोग

ढाका विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर और समाज विज्ञानी प्रोफेसर डॉक्टर मोहम्मद समद ने कहा कि जनजातीय अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी भाषाओंकी हिफाजत के लिए कठोर मेहनत करने की जरूरत है। उन्होंने स्वदेशी भाषाओं, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार को सुनिश्चित करने के लिए  समितिके गठन और सामुदायिक रेडियो की स्थापना की आवश्यकता पर भी जोर दिया। अंग्रेजी भाषा के विद्वान प्रोफेसर डॉक्टर काज़ल कृष्ण बनर्जी ने स्वदेशीभाषाओं को मुख्यधारा में शामिल करने जरूरत पर जोर दिया। बांग्लादेश के कवि अनिसुर रहमान ने कार्यक्रम में कहा कि जनजातीय इलाकों के अल्पसंख्यक समुदायों में सरकार के ही आंकड़े के मुताबिक 30 जातियां शामिल हैं। इन सबकी संस्कृति हमारी विरासत है। 2010 के एक प्रमुख शोध के हवाले से रहमान ने आरोप लगाया कि सरकार ने कुल 75 जनजातियों में 45 को छोड़ दिया और उनको, उनकी पहचान से ही वंचित कर दिया गया है।

‘आदिवासी कल्याण ओ उन्नावयन संघ’ के महिला मामलों की सचिव राखी मृंग ने कहा, “देश की सांस्कृतिक और साहित्यिक समृद्धि के लिए भाषाओं को संरक्षण प्रदान करने और उनको संरक्षित करने की जरूरत है।” जलसे में अन्य के अलावा शैक्षणिक प्रबंधन में राष्ट्रीय अकादमी के प्रोफेसर महमूदुल अमीन और बांग्लादेश हाजोंग छात्र संगठन के नेता आशीष हाजोंग जनजातीय समुदाय की संस्कृति और विरासत की सराहना की। आदिवासियों के नेता खेन मोंगमोंग इस कार्यक्रम में मौजूद रहे जिन्होंने 9 अगस्त को सभी समुदायों से जनजातियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की अपील की।

(कॉप एडिटर : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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