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‘भीख का कटोरा’ अनजाने में बोले जावड़ेकर लेकिन सच बोल गए

विश्वविद्यालयों का अकादमिक तंत्र घुटन में है, गंभीर पत्रिकाएं और जर्नल्स वहां से बाहर कर दिए गए हैं, तमाम उच्च शिक्षण संस्थान आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। विश्वविद्यालयों की माली हालत ठनठन गोपाल है, वैज्ञानिक रिसर्च के लिए पैसा नहीं मिल रहा है। जाहिर है, वह भीख के लिए कटोरा नहीं उठाएंगे तो करेंगे क्या? फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :

ग्रांट आपके पल्ले से दी गई मेहरबानी नहीं, जनता का पैसा है

सरकार का बनाया शिक्षा का अधिकार कानून ताक पर है। शिक्षा माफिया के प्राइवेट खिलाड़ी सरकार के पास जब चाहे तब आ-जा सकते हैं, उनके लिए हर समय दरवाजे खुले हैं, स्वागत कक्ष तैयार हैं लेकिन देश के दलित, गरीब, वंचित समुदायों के लिए बने उच्च शिक्षा के मंदिर जर्जर हाल पर रोएं तो उनको नीचा दिखाया जाए?

वास्तव में, ऐसे समय में जब देश के अकामिशियन यूजीसी की कार्रवाई और कार्यशैली पर सवाल उठा रहे हैं और उनकी प्रतिक्रियाओं का दौर लगातार जारी है, तभी मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के मुखारबिंद से ऐसी सच्चाई निकल गई जो भले ‘गलती’ से और ‘अनजाने’ में प्रकट हुई लेकिन वह उच्च शिक्षा की दरिद्रता और माहौल पर सबसे मौजूं है। प्रकाश जावड़ेकर ने पुणे स्थित फर्गूसन कालेज में कार्यक्रम में रविवार 14 सितंबर 2018 को कहा कि उच्च शिक्षण संस्थान और स्कूल सरकारी मदद के लिए भीख का कटोरा लेकर सरकार के पास आ जाते हैं। उनको ऐसा नहीं करना चाहिए बल्कि पूर्व छात्रों से मदद लेनी चाहिए।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यूजीसी द्वारा दिये जाने वाले ग्रांट को बताया भीख

‘भीख का कटोरा’ लेकर आना, हिंदी में मुहावरा है जिसकी अभिव्यंजना शक्ति की विडंबना यह है कि ये गरीबी पर ताने कसने के लिए इस्तेमाल होता है। वैसे, इसका खुद में इसका एक अर्थ विडंबना भी है। और मज़ेदार बात कि मराठी मानुष इस व्यंग्य को हिंदी पट्टी के लोगों से ज्यादा अच्छी  तरह जानते हैं। लेकिन प्रकाश जी को शायद यह बताने की भी जरूरत है कि जब भी हम ऐसा कहते हैं तो बिना कोई नाटकीय भावभंगिमा दिखाए रौब ही गालिब करते हैं, धौंस दिखाते होते हैं जिसके पीछे मंशा सामने वाले को नीचा दिखाने की होती है। जाहिर तौर पर यह धौंस ‘सरकार’ की है, वैयक्तिक तौर पर तो जावड़ेकर की शख्सियत बहुत सौम्य है, यह हम जानते हैं? वह जो भी कहते हैं, उसे लोग सुनते और मानते हैं, जाहिर है जब सत्ता नाम की निरंकुशता सिर चढ़कर बोलने लगे तो वह साख कम धौंस ज्यादा लगती है, होती भी है।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

बहरहाल ‘धौंस’ या ‘रौब’ तो उन्होंने वापस नहीं ली लेकिन कहा है कि भाषण से ‘भीख का कटोरा’ अंश को वह वापस लेना चाहते हैं। उन्होंने कहा मीडिया ने गलत दिखाया, उनसे ‘अनजाने में’ इन शब्दों का इस्तेमाल हो गया था। जावड़ेकर ने कहा कि ‘दरअसल ये किसी भी संस्थान के पूर्व छात्र होते हैं जो अपने शिक्षण संस्थान को अपनी हासिल योग्यता से काफी कुछ (पैसा, अन्य मदद से) वापस लौटाते हैं लेकिन कुछ संस्थान ऐसे हैं जो मदद की मांग करते हुए कटोरा लेकर सरकार के पास आते रहते हैं।’ जावड़ेकर ने कहा, ‘सरकार बड़े पैमाने पर शिक्षा में निवेश कर रही है और पिछले चार सालों में बजटीय प्रावधानों में सत्तर फीसदी की वृद्धि हुई। उसी के साथ पूर्व छात्रों को भी स्कूलों और कॉलेजों के विकास में योगदान करने की जरूरत है। जावड़ेकर ने कहा कि दुनियाभर में यही रीत चली आ रही है। मेरा मतलब यह नहीं था कि सरकार मदद नहीं करेगी। आशय यह था कि सरकारी मदद के अलावा पूर्व छात्रों को भी स्कूलों की मदद के लिए आगे आना चाहिए।’

जावड़ेकर ने कहा कि पूरे विश्व में, शैक्षणिक संस्थानों को कौन चलाता है? पूर्व छात्र चलाते हैं। विश्वभर में विश्वविद्यालय कौन चलाते हैं? पूर्व छात्र जो अपने-अपने क्षेत्र में सफल रहे और फिर उन्होंने अपने संस्थान को बहुत कुछ वापस दिया। ज्ञान की यही परंपरा रही है। मुझे बताया गया है कि यहां के पूर्व छात्र स्कूल के लिए जितना कर सकते हैं उतना करते हैं…। मदद तो आपके घर में पड़ी हुई है। आपके जो पूर्व छात्र हैं उनकी भी जिम्मेदारी बनती है।

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सवाल ये उठता है कि प्रकाश जावड़ेकर आखिरकार कहना क्या चाहते हैं? क्या सरकार का काम उस टंडेल की तरह है जो सड़क पर भरी दुपहरी में मजदूरों से काम कराता है, हर वक्त काम करते देखना चाहता है और जब उससे मजदूर पैसे मांगे या मदद की गुहार करे तो वह ठेकेदार के पास जाने का रास्ता बता देता है। ध्यान रहे कि यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन और सरकार की ओर से जो भी अनुदान स्कूल व कालेजों को दिया जाता है, वह आम जनता की ओर से दिए गए कर का हिस्सा है। वह सरकार की कोई ‘मेहरबानी’ (या अब वापस लिए गए भीख के कटोरे पर) या किसी नंगे पर फेंके गए आपके पल्ले के पैसे नहीं हैं।

आंकड़े बताते हैं कि असल में उच्च शिक्षा में यूजीसी ने जिस हाल में शीर्ष संस्थानों को छोड़ दिया है, उसी का नतीजा है कि उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले हमारे भारतीय छात्रों का अनुपात दुनिया में सिर्फ़ 11 फ़ीसदी रह गया है। यानी सबसे कम। अमेरिका में ये अनुपात 83 फ़ीसद है। यह अनुपात अगर 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो देश की उच्च शिक्षा में दुगनी धनराशि रखनी होगी। ध्यान रहे यह उत्तरोत्तर कम हुआ है। नैसकॉम और मैकिन्से के अध्ययन से बात करें तो वह बताता है कि मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग की डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसद कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसद शिक्षकों की कमी है। पैसा मिलता नहीं है, शिक्षकों का टोटा अलग से।

अनुसंधान में हुई बुरी गत

दो दशक पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहां की शिक्षा का स्तर किस तरह का है। वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा ही है। अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत अमेरिका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है। इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है। हमारे देश में भी यह कोशिश कितनी हुई।

पुणे, महाराष्ट्र का फर्गूसन कालेज जहां फिसल गयी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की जुबान

लेकिन हकीकत, जैसा हाल में नीलांजन मुखोपाध्याय ने भी कहा हमारे देश में शोध के लिए पैसा नहीं है, बल्कि दिया नहीं जा रहा है। अभावग्रस्त हमारी लक्ष्यहीन शिक्षा व्यवस्थागत लाचारी और बेमानी की तस्दीक करती है। निजी शिक्षा और सरकारी शिक्षा सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी के प्रमाण है। सरकार ने शिक्षा के हालात से आंख बंद कर दिए हैं। ऐसे मुंह मोड़ लेने से शिक्षा के बुनियादी सवाल हल नहीं होंगे। इन सवालों का सामना करना होगा और सामाजिक दृष्टि से इनका न्याय संगत समाधान देना ही होगा। देश में शिक्षा अधिकार और समानता को लेकर तमाम गैर-सरकारी संस्थाएं अपनी आवाज बुलंद किए हुए हैं। सामाजिक मोर्चे पर सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि आने वाले दिनों में शिक्षा कॉरपोरेट पूंजी और उसके वैश्र्विक बाजार की लूट का जरिया ना बने, इसका ध्यान रखना होगा। लेकिन हम इस लूट के लिए दरवाजे नहीं खोल चुके हैं?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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