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कुनबा-पूंजीवाद : संगठित लूट का नव-ब्राह्मणवादी उद्यम

भारत दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है। यहां सार्वजनिक संसाधनों की संगठित लूट की गति भी शायद सबसे तेज है। नेताओं, उद्यमियों और अफसरशाहों का गिरोह है जो इस देश को जमकर लूट रहा है। बता रहे हैं, अशोक झा :

भ्रष्टाचार ब्राह्मणवाद का विस्तार है और कुनबापरस्ती ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जड़ है। कुनबा-पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) भी इसी का सगा है। यह कुछ चुनिन्दा लोगों का समूह है जिसके सदस्य एक समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक साथ एकजुट होते हैं। उनके सामने उनका लक्ष्य स्पष्ट होता है। यह कुनबा अपने चारों ओर एक ऐसा घेरा तैयार करता है जो अभेद्य होता है और घेरे के बाहर खड़े लोगों के लिए उनकी उनकी कोई भी गतिविधि दिखाई नहीं देती है।

ब्राह्मणवाद सामाजिक विभेद को बढ़ावा देता है पर इसका वास्तविक उद्देश्य आर्थिक फायदा हासिल करना होता है। सामाजिक विभेद इसका घिनौना मुखौटा है पर इस घृणित मुखौटे की आड़ में जो होता है, वह उससे भी घृणित होता है। पर इसकी भनक किसी को नहीं लगने नहीं दी जाती है। कुनबा-पूंजीवाद इसका आधुनिक विस्तार है। यह नव-ब्राह्मणवाद है। इसके दरवाजे उस सभी के लिए खुले होते हैं जो एक खास तरह की हैसियत के मालिक होते हैं – विशेषकर नेता और व्यवसायी। एक नेता का राजनीतिक रसूख किसी व्यवसायी का अकूत धन और इस धन के कारण उसकी व्यापक पहुँच एक साथ  मिलकर एक ऐसा अनुकूल वातावरण तैयार करता है जिसके संरक्षण में कुनबा-पूंजीवाद को पनपने का मौका मिलता है। यह कुनबा-पूंजीवाद आज देश के संसाधनों की लूट में सबसे आगे है। शासन किसी का हो, सरकार किसी की हो, कुनबा-पूंजीवाद हमेशा और हर समय में सक्रिय रहता है। हाँ, इसकी तीव्रता अलग-अलग शासन में अलग-अलग होती है। हर शासन में इस कुनबा-पूंजीवाद का कोई न कोई सिरमौर होता है। वर्तमान शासन के दौरान एक नहीं, कई लोग हैं जो इस हैसियत के अधिकारी हैं।

देश के संसाधनों और पूंजी की लूट के लिए नेताओं और पूंजीपतियों का गठजोड़

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस (19 सितंबर) में अपने आलेख में क्रिस्टोफ जेफ्रीलो ने इसी कुनबा-पूंजीवाद की विशालता और इसकी गंभीरता की ओर हमारा ध्यान खींचा है। उन्होने विशेषकर विजय माल्या और अडाणी की चर्चा की है। विजय माल्या भारत के सरकारी बैंकों का हजारों करोड़ डकारने के बाद इस समय लंदन में आराम फरमा रहा है। अडाणी भारत भी ही इन्हीं सरकारी बैंकों के पैसे से अपने कारोबार में चार या चालीस चाँद लगा रहा है।

कांग्रेस और भाजपा के सहयोग से राज्यसभा का सदस्य बनने वाले विजय माल्या

विजय माल्या का मामला तो बहुत ही अजीबोगरीब है। वह व्यक्ति इस देश की संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) का उस समय सदस्य था, जब वह बैंकों का पैसा लेकर देश से भागा। उसको संसद में पहुंचाने वाली पार्टी भाजपा ही है। पर पहले वह कांग्रेस की मदद से राज्यसभा पहुंचा। बाद में भाजपा और जनता दल (एस) ने उसे उच्च सदन का सदस्य बनने में मदद की। वह कांग्रेस का भी उतना ही प्रिय था, जितना भाजपा का। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि कुनबा-पूंजीवाद में पार्टियों के बीच की विभाजक रेखा असपष्ट हो जाती है, अर्थहीन हो जाती है। माल्या की जरूरत किसी समय कांग्रेस को भी थी और फिर भाजपा को भी उसकी जरूरत महसूस हुई। “पार्टी विद अ डिफ़्रेंस” का जुमला यहां अप्रासंगिक हो जाता है। जेफ्रीलो लिखते हैं, “गरीब लोगों को बदहाल सरकारी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए नेताओं के सहयोग की जरूरत होती है। नेताओं को भ्रष्ट उद्यमियों की जरूरत होती है ताकि वह गरीबों को धन के बल पर अपने पक्ष में कर सके और चुनाव लड़ने के लिए भारी राशि का इंतजाम भी हो सके। भ्रष्ट उद्यमियों को इन नेताओं की जरूरत होती है जो देश के बहुमूल्य संसाधनों को  कौड़ी के भाव उन्हें सुलभ करा सके”।

सस्ते संसाधनों पर अधिकार करने के बाद ऐसे उद्यमियों को नकद की भी जरूरत होती है और नेता उसकी इस फिक्र को भी दूर कर देता है। सरकारी बैंक उसके लिए खोल दिये जाते हैं। माल्या के साथ यही हुआ। नेताओं की इस दरियादिली का ही नतीजा था कि 17 बैंकों ने उसके लिए अपने खजाने खोल दिये। वह 1.4 अरब डॉलर का ऋण लेने में सफल रहा और अब वह देश छोडकर लंदन भाग चुका है। उसको भारत लाने में भारत सरकार के पसीने छूट रहे हैं। अभी कुछ ही दिन पहले लंदन में उसने बताया कि देश छोडने से पहले उसने नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली से कहा था कि वह बैंकों के साथ अपने मामले को निपटाना चाहता है। पर उन्होने उसकी नहीं सुनी। अब इस बारे में बहुत सारी बातें कही जा रही हैं। मसलन, उसके देश से भागने की जानकारी सरकार को थी, पर उसने उसको रोकने का प्रयास नहीं किया गया। यह भी कि उसके खिलाफ इस तरह का नोटिस जारी किया गया था कि वह देश छोडकर नहीं जा सके, लेकिन सरकार में किसी के कहने पर इस नोटिस को बदल दिया गया और विजय माल्या बिना किसी परेशानी के लंदन पहुंच गया। इससे यह साबित होती है कि कुनबा-पूंजीवाद में न केवल देश को लूटने की अनुमति होती है बल्कि कानून के हाथ उस तक नहीं पहुंचे, इसकी भी पुख्ता व्यवस्था होती है।

जेफ्रीलो ने इस कुनबा-पूंजीवाद के दूसरे नायक अडाणी की भी चर्चा की है जिसका भाग्योदय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के साथ ही शुरू हो गया। उन्होने क्रेडिट सुइस की 2015 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि अडाणी की विभिन्न बैंकों की उधारी जो कि 2011 में 331 अरब रुपए थी, 2015 में यह बढ़कर 840 अरब रुपए हो गई।

प्रधानमंत्री के करीब उद्योगपति गौतम अडाणी

कुछ ऐसे व्यवसायी हैं जो सक्रिय नेता भी हैं। विजय माल्या और राजीव चन्द्रशेखर इसी श्रेणी में आते हैं। और इस तरह के उद्यमियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है, जो नेता भी हैं। जेफ्रीलो ने इस आलेख में असीमा सिन्हा की एक रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि व्यवसायी से सांसद बने लोगों की संख्या 1991 में 14 प्रतिशत थी जो 2014 में बढ़कर 26 प्रतिशत हो गई। भाजपा के 282 सांसदों में से 143 इस श्रेणी में आते हैं और यह रेकॉर्ड है। इसका फायदा गिनाते हुए वे लिखते हैं कि व्यवसायी के नेता बनकर चुनाव लड़ने का एक फायदा यह है कि उसके चुनाव पर कोई पैसा पार्टी को खर्च नहीं करना पड़ता है और बदले में राजनीतिक गलियारे तक उसकी पहुँच हो जाती है।

नेता बने इन  उद्यमियों के एहसासन तले दबी सरकार इन पर जी खोलकर सब कुछ न्योछावर करती है। मसलन यह सिर्फ उस व्यवसायी के चुनाव जीतकर संसद में पहुँचने तक सीमित नहीं रहता है। माल्या की विमानन कंपनी थी और उन्हें संसद की इस विभाग से जुड़ी समिति का सदस्य बनाए जाने पर किसी को आपत्ति नहीं हुई – न पक्ष को और न ही विपक्ष को। भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुंचे राजीव चन्द्रशेखर वित्त और रियल एस्टेट से जुड़ी संसद की समितियों के सदस्य हैं।

अगर उपरोक्त साँठ-गांठ से आप चिंतित नहीं हुए, तो जरा सोचिए कि उद्यमी से सांसद बने इन लोगों के लिए अफसरशाहों से अपने मनमाफिक नियमों को लागू कराना कितना आसान हो जाता है क्योंकि रिटायरमेंट के बाद इन अफसरशाहों को देने के लिए इनके पास बहुत कुछ होता है। ये सरकारी नौकरी से रिटायर हुए और किसी न किसी कंपनी से जुड़ जाते हैं। जेफ्रीलो लिखते हैं कि एक पूर्व वित्त सचिव माल्या के किंगफ़िशर एयरलाइन के बोर्ड में शामिल हो गया।  गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कार्पोरेशन से जुड़े एक नौकरशाह और गुजरात मेरीटाइम बोर्ड के पूर्व प्रमुख और एक पूर्व केन्द्रीय गृह सचिव को अडाणी समूह का नौकर बनने में कोई गुरेज नहीं हुआ। इसी तरह एक पूर्व विदेश सचिव ने टाटा समूह का हिस्सा बनाना पसंद किया।

यह एक भयानक स्थिति है। भ्रष्टाचार को नेताओं और उद्यमियों के गठजोड़ ने एक नया आयाम दिया है, इसको ये लोग नए तरह से परिभाषित कर रहे हैं। देश के संसाधनों की संगठित लूट हो रही है। जैसा कि जेफ्रीलो लिखते हैं, सिर्फ उद्यमी ही राजनीति में नहीं आ रहे हैं, राजनीतिबाज भी उद्यमी बन रहे है। इनके गठजोड़ से कुनबा-पूंजीवाद एक सांस्थानिक और संगठित रूप ले रहा है। एक ऐसी नई व्यवस्था बनाई जा रही है जिससे यह संगठित लूट आपको लूट नहीं लगेगी। वे पूछते हैं कि अगर किसी राजनीतिबाज-उद्यमी ने क्लीनिक, निजी स्कूल और निजी सुरक्षा एजेंसियों में निवेश कर रखा है, तो वह क्यों चाहेगा कि सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल और सरकार की पुलिस प्रभावी रूप से जीवित रहे। क्या यह बात सिहरन पैदा करने वाली नहीं है?

(कॉपी संपादन- सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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