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देवकी नन्दन ठाकुर यह तुम्हारे मुंह में किसकी जुबान है?

एससी-एसटी एक्ट को लेकर केंद्र सरकार को सीधी चुनौती देने वाले ब्राह्मण संत देवकी नन्दन ठाकुर ने आरक्षण पर भी सवाल उठाया है। साथ ही उन्होंने समाज में द्विजों के वर्चस्व को जायज ठहराने की कोशिश भी की। उन्हें भारतीय सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई से रूबरू करा रहे हैं कंवल भारती :

‘चन्दन बिष व्यापे नहीं लिपटत रहत भुजंग’ यानी वह पेड़, जिस पर सांपों के लिपटे रहने से भी उनका विष उस पर कोई प्रभाव नहीं डालता है, वह चन्दन है। ठीक उसी तरह वह प्राणी, जिस पर समाज-सुधार, लोकतंत्र और संविधान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, वह हिन्दू संत है, फिर वह चाहे ब्राह्मण हो या ठाकुर, वह अपने आप को सबसे श्रेष्ठ और सबसे उच्च मानकर चलता है, कानून से भी ऊपर। ऐसे ही ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर हैं, जिन पर देश के लोकतंत्र और संविधान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ऐसे ही हिन्दू संतों के लिए छह सौ साल पहले कबीर साहेब कह गए हैं—

अति पुनीत ऊँचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई।

इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हँसी आवे मोहि भाई।।

ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर, जो शायद ठाकुर-भक्ति में अपने को ठाकुर कहते हैं, अंधे भक्तों की सभा में हाथ और शरीर को नृत्य-मुद्रा में हिलाते-डुलाते हैं, तो हास्यास्पद हो जाते हैं। हास्यास्पद वह अपने प्रवचनों में परलोक और ब्राह्मण-सेवा की कपोलकल्पित कहानियां सुनाते समय भी होते हैं, और तब भी, जब सामने बैठी भक्त महिलाओं को तालियाँ बजाने और झूमाने के लिए अचानक गाने लग जाते हैं। कुछ महीने पहले मैंने यूट्यूब पर एक वीडियो देखा था, जिसमें एक लड़की ने अपने सवालों से ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर को कटघरे में खड़ा कर दिया था। ब्राह्मण संत से जब जवाब देते नहीं बना, तो उन्होंने उस लड़की को दबाव में ले लिया, और उसी तरह डरा कर चुप करा दिया, जिस तरह कभी याज्ञवल्क्य ने गार्गी को चुप करा दिया था। संभव है कि वह पूरा ड्रामा सुनियोजित भी हो, क्योंकि भक्तों की भीड़ में किसी लड़की का ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर पर सवाल खड़े करना बहुत जोखिम का काम है।

  • दलितों-पिछड़ों से है आरएसएस को खतरा

  • मुस्लिम शासकों के काल में गढ़ा गया महाउपनिषद

  • एससी-एसटी खत्म हुआ तो दलितों को इज्जत से जीने नहीं देंगे सवर्ण

ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर की शुमार उन संतों में होती है, जो आरएसएस के रामराज्य को साकार करने के लिए प्रवचन देते हैं। इसलिए वह अपने भक्तों को यह याद दिलाना नहीं भूलते कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में रामराज्य आ रहा है। वह यह भी बताना नहीं भूलते कि देशद्रोही उनके राष्ट्रवाद अर्थात रामराज्य में अवरोध पैदा कर रहे हैं। लेकिन ये देशद्रोही कौन लोग हैं, जो राष्ट्रवाद को नापसंद करते हैं? इसका खुलासा आरएसएस के नेता करते हैं कि वे जातिवादी और वामपंथी लोग हैं, जो राष्ट्रवाद का विरोध करते हैं। भारतीय वामपंथ का नेतृत्व ब्राह्मण करते हैं, जिनसे आरएसएस को ज्यादा खतरा नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि उनकी ‘घर-वापसी’ कराई जा सकती है, इसलिए वह उनको थोड़ा डरा-धमाका कर रखता है। आरएसएस को अगर खतरा है, तो वह दलित-पिछड़ों से है। इनमें पिछड़ों को वह साध चुका है, क्योंकि उनके बीच हिंदुत्व के खिलाफ कोई आन्दोलन  सक्रिय नहीं है। सक्रिय सिर्फ दलित आन्दोलन है, जो हिंदुत्व के खिलाफ निरंतर तीव्र होता जा रहा है। इसलिए आरएसएस, भाजपा और हिन्दुओं का दलितों के आरक्षण और अत्याचार-निरोधक अधिनियम के खिलाफ आक्रोश आकस्मिक नहीं है। ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर के मुंह में यही जुबान है। उसकी बदजुबान बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है, जरा गौर कीजिये—हम दो महीने का समय सरकार को दे रहे हैं कि वह दलित एक्ट पर संशोधन वापिस ले ले, वरना अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहे। ध्यान रहे कि यह धमकी सरकार के लिए नहीं है, बल्कि दलितों के लिए है। बिल्ली के भाग्य से हाथ आया छींका कौन छोड़ना चाहेगा। ब्राह्मणों के हाथों में अचानक आई सत्ता क्या वे गंवाना चाहेंगे? कदाचित नहीं। ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर समेत कोई भी हिन्दुत्ववादी सपने में भी नहीं सोचेगा कि भाजपा का राज खत्म हो और कांग्रेस या सपा-बसपा की सरकार आए। इसलिए इस ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर ने दो महीने बाद सबक सिखाने की धमकी दलितों को दी है। आने वाले चुनावों तक आरएसएस और भाजपा का यह दलित-विरोधी ड्रामा कई चरणों में पूरा होगा। अभी तो सिर्फ दो चरण पूरे हुए हैं, पहले चरण में सुप्रीम कोर्ट ने दलित एक्ट में अभियुक्त की तुरंत गिरफ्तारी की व्यवस्था को खत्म किया था। दूसरे चरण में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध संसद द्वारा किए संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करवाई गई। तीसरे चरण में दलित एक्ट के विरुद्ध भारत बंद का आयोजन किया गया, जिसकी सीधी मांग थी कि सवर्णों को दलितों पर जुल्म करने की छूट दी जाए। इसी तीसरे चरण में ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर की धमकी आती है, जो अपने भक्तों को खुलेआम दलितों के खिलाफ हिंसक होने को कह रहा है। कानूनी तौर पर इस तरह धमकाना धारा 251ए और 295 के तहत संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है, और सरकार को धमकी देना तो और भी संगीन जुर्म है, पर यह हिन्दू हिंसा हिंसा न भवति और हिन्दू धमकी धमकी न भवति का मामला है; पुलिस कैसे संज्ञान ले सकती है?

ब्राह्मण संत देवकी नन्दन ठाकुर

सोशल मीडिया पर अपना विरोध देखते हुए ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर ने ‘एमपी तक’ चैनल पर एक और बड़ा झूठ बोला, यह झूठ, जो आरएसएस और भाजपा के नेता भी बोलते रहते हैं, वह ‘बसुधैव कुटुंबकुम’ का राग अलापना है। उन्होंने चैनल पर बोला, कि वह ‘बसुधैव कुटुंबकुम’ में विश्वास करते हैं, जिसका उपदेश महाभारत और भगवद्गीता में दिया गया है। यह झूठ इसलिए है कि महाभारत और भगवद्गीता में कहीं भी ‘बसुधैव कुटुंबकम’ शब्द नहीं आया है। जब हिन्दू धर्म में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के लिए स्थान ही नही है, तो वह पूरी पृथ्वी को एक परिवार कैसे मान सकता है? वर्ण और जाति के भेद पर खड़ा हिन्दू धर्म जब हिन्दुओं को ही एक परिवार नहीं मानता, तो वह पूरी बसुधा पर बसे तमाम नस्लों और धर्मों के लोगों को एक परिवार मानने का झूठ क्यों बोल रहा है? ‘बसुधैव कुटुंबकम’ किसी धर्मग्रंथ में नहीं आता है—न मनुस्मृति में, न वेदों में, न पुराणों में, न रामायण में, न रामचरितमानस में, न गीता में। फिर देवकीनन्दन ठाकुर उर्फ़ शर्मा को यह शब्द कहां मिल गया? फेसबुक पर मेरी पोस्ट पर कुछ मित्रों ने ‘बसुधैव कुटुंबकम’ के लिए गूगल सर्च करके यह जानकारी दी कि यह शब्द किसी ‘महाउपनिषद’ में आया है। मैं बताना चाहूँगा कि यह उपनिषद विष्णु की सर्वोच्च सत्ता और वैष्णव धर्म को सर्वोच्च धर्म स्थापित करने के लिए मुस्लिम काल में गढ़ा गया था। इसी काल में ‘अल्लाहोपनिषद’ भी लिखा गया था। ध्यान रहे कि उपनिषद ब्राह्मणों का नहीं, क्षत्रियों का रचनाकर्म है। दरअसल ‘बसुधैव कुटुंबकम’ का पहली बार प्रयोग पंचतंत्र की एक कहानी में हुआ था, जिसमें एक कौआ कहता है, कि हमारा क्या है, हमारे लिए तो पूरी बसुधा ही एक परिवार है। महाउपनिषद में यह शब्द वहीं से आया है, जो लोक में रच-बस गया था।

  • हिन्दूधर्म के मूल में ही वर्ण-विभाजन और जाति-विभाजन

  • हर कालखंड में विभाजित रहा भारतीय समाज

‘एमपी तक’ चैनल पर ही ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर बोल रहा है कि आप गाँव में जाइए, सब मिलजुल कर रहते हैं, कोई भेदभाव नहीं है। इन महाशय को यह ही नहीं मालूम कि गाँव हो या नगर, दलित और सवर्ण दो अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में अजनबियों की तरह रहते हैं। दोनों के बीच गहरी सामाजिक दूरियां हैं, और ये दूरियां दलित और सवर्ण के बीच ही नहीं हैं, बल्कि द्विजों और पिछड़ों तथा पिछड़ों और दलितों के बीच भी हैं। सवर्णों में दलितों के लिए प्रेम नहीं, नफरत भरी हुई है, और यह नफरत यहाँ तक है कि गाँव में किसी दलित का घोड़ी पर चढ़कर निकलना भी उन्हें उनकी आन के खिलाफ लगता है, और वे उस पर हमलावर हो जाते हैं। आज देश में दलित एक्ट है, तो दलित की यह दुर्दशा है, और अगर दलित एक्ट खत्म हो गया, जिसे सारे हिन्दू खत्म करना चाहते हैं, तो मुझे नहीं लगता कि गांवों में सवर्णों की नफरत दलितों को इज्जत से जीने देगी।

इसी चैनल पर ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर ने दलित एक्ट को देश को बाँटने वाला कहा है। असल में जब ये देश की बात करते हैं, तो इनका आशय हिन्दू समाज से होता है। अत: यह महाशय कहना चाहते हैं कि दलित एक्ट हिन्दू समाज को बाँट रहा है। इनसे कोई पूछे कि दलित एक्ट तो 1955 में बना था, क्या उससे पहले हिन्दू समाज या देश बंटा हुआ नहीं था? क्या मुस्लिम काल में हिन्दू समाज बंटा हुआ नहीं था? क्या ब्रिटिश काल में हिन्दू समाज बंटा हुआ नहीं था? क्या रामायण काल या महाभारत काल में हिन्दू समाज बंटा हुआ नहीं था? क्या गुप्त काल में, जिसे हिन्दू इतिहासकार ‘स्वर्ण युग’ कहते हैं, हिन्दू समाज बंटा हुआ नहीं था? हिन्दुओं के ज्ञात इतिहास का वह कौन सा कालखंड है, जिसमें हिन्दू समाज बंटा हुआ नहीं था? जब हिन्दूधर्म के मूल में ही वर्ण-विभाजन और जाति-विभाजन है, तो हिन्दू समाज क्यों न बंटा हुआ होगा? अगर हिन्दू समाज में समानता और भाईचारे का भाव होता, तो क्या दलित एक्ट की जरूरत पड़ती?

ब्राह्मण संत देवकीनन्दन शर्मा उर्फ़ ठाकुर ने, सुना है, दलितों को मन्दिरों में प्रवेश करने से रोकने का फरमान भी सुनाया है। मैं उनके इस फरमान का स्वागत करता हूँ, और चाहता हूँ कि वह अपने इस फरमान का पालन पूरे देश के हिन्दू मन्दिरों में कराएँ, बलपूर्वक कराएँ, क्योंकि हम भी नहीं चाहते कि दलित उन देवताओं के मन्दिरों में प्रवेश करें, जो उनके पूर्वजों के हत्यारे रहे हैं और जो सिर्फ ब्राह्मणों के देवता हैं।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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