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हर पांचवें दिन सीवर और सेप्टिक टैंक साफ करते हुए मरता है एक सफाईकर्मी

सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट बताती है कि हर पांचवें दिन एक सफाई कर्मचारी की काम के दौरान मौत हो रही है। यह नागरिक क्षेत्रों में किसी भी पेशे में होने वाली मौतों में सर्वाधिक है। प्रेमा नेगी की रिपोर्ट :

आप देखते होंगे कि अक्सर सोशल मीडिया पर दलित कार्यकर्ता और हाशिए के समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले सवाल उठाते हैं कि अगर सफाई कर्मचारियों की जाति दलित के बजाए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होती तो क्या काम की स्थितियां इतनी भयावह होतीं, क्या काम के दौरान ऐसी बेपरवाह मौतें होती रहतीं, क्या काम करने के साधन इतने पिछड़े जमाने के और भयावह होते व मौतों के आंकड़े छपते रहते और बेपरवाह सरकारें इसे एक बयान देने भर से अपना काम चला लेतीं?

यह सवाल अब गंभीर हो गया है, क्योंकि राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ‘एसीएसके’ ने एक भयावह रिपोर्ट जारी कर देश को बताया है कि 1 जनवरी 2017 से हर पांचवें दिन सेप्टिक टैंक और सीवर साफ करने वाले एक कर्मचारी की काम के दौरान मौत हो रही है। भारत में यह सर्वे आजादी के 68 वर्षों बाद पहली बार हुआ है, इससे पहले कोई संस्थागत और सिलसिलेवार सर्वे सीवर और सेप्टिक टैंक में घुसने के दौरान होने वाली मौतों को लेकर नहीं हुआ है। यह सर्वे अखबारों में छपी खबरों और राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए आंकड़ों पर आधारित है।

  • 1 जनवरी 2017 के बाद 123 सफाईकर्मियों की हुई है मौत

  • मरने वालों में अधिकांश दलित

  • बगैर किसी सुरक्षा के नालों और सेप्टिक टैंकों में सफाई करने को मजबूर

  • सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती हैं सरकारें

ध्यान रहे कि यह हर पांचवें दिन 1 सफाई कर्मचारी आंकड़ा सिर्फ सीवर और सेप्टिक टैंक में घुसने या काम के दौरान होने वाली मौतों का है। पिछले एक हफ्ते में राजधानी दिल्ली में 6 मौतें सीवर सफाई के दौरान हो चुकी हैं। 1 जनवरी 2017 से अब तक 123 मौतें हो चुकी हैं। ये मौतें हाथ से मैला की सफाई, सीवेज सफाई और सीवर सफाई के दौरान की हैं।

गंदे नालों में बगैर किसी सुरक्षा के जान हथेली पर लेकर उतरते हैं सफाईकर्मी

इस आंकड़े को पूरा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित राज्यों में से सिर्फ 13 राज्यों का ही आंकड़ा राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग को मिल पाया है। जाहिर है ये आंकड़े आधे से भी कम हैं। दुर्घटना से जुड़े ज्यादातर मामले हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और गुजरात के हैं। सरकार ने व्यवस्था दी है कि ऐसी मौतों में 10 लाख रुपए का मुआवजा मिलेगा, लेकिन आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि 123 मामलों में सिर्फ 70 में ही मृत सफाईकर्मियों के परिजनों मुआवजा मिल सका है।

सफाई कर्मचारियों की मुश्किलों को लेकर इसी वर्ष मार्च में दक्षिणी दिल्ली के कांग्रेस पार्षद अभिषेक दत्त ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। पार्षद अभिषेक दत्त की याचिका पर कोर्ट ने बाकी दोनों एमसीडी, एनडीएमसी, दिल्ली जल बोर्ड से उन कर्मचारियों की लिस्ट मांगी है, जिनकी मौत ऑन ड्यूटी हुई थी। उस मामले में आगे क्या हुआ, इसकी जानकारी नहीं मिल पाई, लेकिन साफ है कि सफाई कर्मचारी का काम करने वालों की जब देश की राजधानी में इतनी दयनीय हालत है तो देश के बाकि हिस्सों में कैसी होगी।

भारत में सैनिटेशन का काम जाति अाधारित : भाषा सिंह

इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार और सफाई कर्मचारियों के बीच काम कर चुकीं भाषा सिंह के मुताबिक ‘यह स्थिति बहुत भयावह है कि हर 5 दिन पर एक सफाईकर्मी की मौत हो रही है, मगर सरकार इस पर कुछ नहीं कर रही है। हमारी सरकार के पास यह आंकड़ा पूरे देशभर का है कि कितने शहर ओपन डिफेक्शन फ्री हो गए हैं, कितने टॉयलेट बन गए मगर यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं है कि कितने सफाईकर्मी मारे गए हैं। आखिर जो मारे जा रहे हैं वो भी भारतीय नागरिक ही हैं।’

यह भी पढ़ें : हाथों से मैला कब तक उठाएगा देश?

सफाईकर्मियों और मैला प्रथा पर ‘अदृश्य भारत’ किताब लिख चुकी भाषा कहती हैं, ‘भारत में सेनिटेशन का काम जाति पर आधारित है, तो जाहिर तौर पर मरने वाले भी दलित ही होते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि जो लोग मरते हैं उन्हें पता भी नहीं होता कि उन्हें किस काम के लिए उतारा जा रहा है। सफाईकर्मियों के लिए बने कोई भी कानून लागू नहीं हैं। 2014 का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला है, जो सफाई कर्मचारी आंदोलन ने जनहित यायिका दाखिल की थी 2003 में उस पर आया था। 11 साल बाद आए इस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि किसी भी इंसान को इमरजेंसी की कंडीशन में भी सीवर या सैप्टिक में न उतारा जा सकता। 1993 से लेकर अभी तक की तारीख में कोई भी मौत होती है हरेक मौत में परिजनों को 10 लाख रुपए दिए जाने चाहिए, मगर यह उसी मामले में इंप्लीमेंट होता है जब हंगामा मचता है। बावजूद इसके सेनिटेशन के लिए क्या डेडलाइन तय हो इसकी कहीं कोई घोषणा नहीं है। मोदी सरकार में स्थिति और भयावह हुई है, पहले की सरकारों में सफाईकर्मियों के पुनर्वास के लिए स्पेशल बजट 5 हजार करोड़ से भी ज्यादा का बजट रखा था, जो आज की तारीख में 5 करोड़ हो गया है, पिछले साल तो वह सिर्फ 1 करोड़ था, दूसरी तरफ शौचालय बनाने के काम में लाखों करोड़ रुपए का बजट पास होता है।’

  • पांच वर्षों में केवल दिल्ली में अबतक 877 सफाई कर्मियों की ऑन ड्यूटी मौत

  • आंकड़े अधूरे, पूरे देश में स्थिति भयावह : बेजवाडा विल्सन

  • 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को लगायी थी फटकार

मार्च 2018 तक पिछले 5 सालों में सिर्फ दिल्ली के साउथ एमसीडी में 877 सफाई कर्मचारियों की मौत ऑन ड्यूटी हो चुकी थी। कांग्रेस पार्षद अभिषेक दत्त का कहना है कि ‘सफाई कर्मचारियों का स्वास्थ को लेकर किसी तरह सावधानी बरतना सरकार और एजेंसियों की न तो प्रैक्टिस में है और उनको इसकी चिंता और जिम्मेदारी महसूस होती है। मेडिक्लेम, स्वास्थ्य बीमा जैसी बातें सफाई कर्मचारियों के लिए शहर में हो रहे बेमतलब के प्रचार से कुछ अधिक नहीं साबित होती हैं, क्योंकि सरकार की एजेंसियों में काम करने लगता ही नहीं कि सफाई कर्मचारियों का भी कोई स्वास्थ्य होता है। वह काम और काम की प्रकृति से उभरे जातीय पूर्वाग्रह से भरे रहते हैं।’

पिछले दिनों डीएलएफ के कैपिटल ग्रीन सोसायटी में 5 सफाईकर्मियों की मौत पर भी काफी हो—हंगामा मचा। दिल्ली सरकार ने घोषणा की कि यह मामला एमसीडी के तहत यानी केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन हम परिजनों को मुआवजा दे रहे हैं।

आंकड़े अधूरे, पूरे देश में स्थिति अधिक भयावह : बेजवाडा विल्सन

सफाईकर्मियों के लिए काम कर रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित बेजवाड़ा विल्सन कहते हैं, ‘हर 5 दिन पर एक सफाईकर्मी की मौत का आंकड़ा तो सिर्फ कुछ ही राज्यों के आधार पर दिया गया है, मगर स्थिति इससे कहीं ज्यादा भयावह है। देशभर का सर्वे किया जाए तो प्रतिदिन लगभग 2 से 3 सफाईकर्मी सीवर सफाई या सेप्टिक टैंक साफ करते हुए अपनी जान गंवाते हैं।’

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

प्रेमा नेगी

प्रेमा नेगी 'जनज्वार' की संपादक हैं। उनकी विभिन्न रिर्पोट्स व साहित्यकारों व अकादमिशयनों के उनके द्वारा लिए गये साक्षात्कार चर्चित रहे हैं

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