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प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना : बीमा कंपनियों की चांदी, किसान हो रहे हैं परेशान  

किसानों के लिए शुरू की गयी नयी बीमा योजना को सिर्फ विफल बताना इसमें हुई धोखाधड़ी पर पर्दा डालना है। इस योजना का लाभ पहुंचाने लक्ष्य जितने किसानों तक रखा गया था उसे पूरा नहीं किया गया, दावों को निपटाया नहीं गया, और मुख्य बात यह कि किसानों के बीमा के नाम पर करदाताओं की गाढ़ी कमायी के पैसे पहले से 4 सौ प्रतिशत अधिक खर्च किये गये हैं। लोकेश कुमार की रिपोर्ट :

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) 2016 के खरीफ सीजन से शुरू किया गया।  यह योजना किसानों को असामयिक और खराब मौसम की वजह से फसल के बरबाद होने से किसानों को बचाने के लिए शुरू की गयी थी।  इस योजना ने राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना की जगह ली और इसमें संशोधन किया। इस नयी योजना में मौसम-आधारित फसल बीमा योजना (डब्ल्यूबीसीआईएस) को नये रूप में लागू किया गया है।

पीएमएफबीवाई में पहले की तुलना में किसानों के अनुकूल प्रावधान किये गये हैं। इस योजना को इस तरह से तैयार किया गया है कि किसानों पर प्रीमियम के बोझ को काफी कम किया जा सके और इसको ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचाया जा सके। किसानों को खरीफ (ग्रीष्मकालीन) फसल के लिए कुल प्रीमियम का मात्र 2 प्रतिशत, रबी (जाड़े) की फसल के लिए 1.5 प्रतिशत और बागवानी फसल के लिए 5 प्रतिशत प्रीमियम देना होता है।  प्रीमियम की शेष राशि केंद्र और राज्य सरकार वहन करती है। भारत में किसान न केवल हमें खाद्य सुरक्षा और पोषण उपलब्ध कराते हैं, बल्कि वे मुद्रास्फीति से जूझने में भी मदद करते हैं। सरकार लोगों से यह कहकर कर वसूलती है कि इसका एक हिस्सा किसानों की बेहतरी पर खर्च किया जाएगा। अत: किसानों की भलाई के लिए चलाये गये इस कार्यक्रम की जांच करना जरूरी है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का यह विज्ञापन। यह योजना अपना वादा पूरा करने में विफल रहा है

सरकार का लक्ष्य फसल के तहत कुल खेती के क्षेत्र को 2017-18 में बढ़ाकर 40 प्रतिशत और 2018-19 में इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत करना था। इस योजना का यह भी लक्ष्य था कि बीमित किसानों की संख्या बढ़ायी जाए। इस योजना के तहत तकनीकों का प्रयोग करते हुए किसानों के दावों को शीघ्र निपटाने की बात कही गयी है। सरकार ने यह भी कहा कि वह विभिन्न उत्पादों को मापने के लिए बेहतर तरीके अपनाए जाने की बात सुनिश्चित करेगी और जब भी जरूरत होगी, मुआवजे की राशि का आकलन और इसके परिणामों को ऑनलाइन भेजने का काम स्वतः होगा। पहली नजर में, इस योजना के पीछे अच्छी मंशा काम कर रही है, ऐसा लगता है। हालांकि, किसी योजना का आकलन आश्वासनों के आधार पर नहीं हो सकता बल्कि उस योजना के डिजाइन, उसको लागू करने के तरीके और योजना के परिणामों पर होता है। आइए देखते हैं कि विभिन्न मोर्चों पर पीएमएफबीवाई योजना ने क्या हासिल किया है :

इस योजना के तहत आए क्षेत्रफल

इस योजना को जब शुरू किया गया था तो सकल फसल क्षेत्र का सिर्फ 24 प्रतिशत क्षेत्र ही फसल बीमा के तहत था। हालांकि, जैसे-जैसे इस योजना की अवधि समाप्त होने को आ रही है, ऐसा लग रहा है कि निर्धारित 50 फीसदी क्षेत्रफल को वर्ष 2018-19 तक इस योजना के तहत लाने का लक्ष्य पूरा होना मुश्किल है। तथ्य यह है कि सरकारी आंकड़ा यह दिखा रहा है कि वास्तव में फसल बीमा के तहत आने वाले फसल क्षेत्र में कमी आयी है।  

उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि फसल बीमा के तहत आने वाला क्षेत्र जो कि 2014-15 में 45.9 मिलियन हेक्टेयर था, बढ़कर 2015-16 में 53.7 मिलियन हेक्टेयर हो गया। पर यह आंकड़ा पीएमएफबीवाई के लागू होने के पहले का है। जब इस योजना को लागू किया गया तो इस क्षेत्रफल में आई बढ़ोतरी काफी कम रही। 2016-17 में यह थोड़ा बढ़कर 57.2 मिलियन हेक्टेयर हो गया पर 2017-18 में यह घटकर 47.5 मिलियन हेक्टेयर हो गया। सरकार ने यह माना है कि इस योजना को लागू किये जाने के बाद से इसके तहत आने वाले फसल क्षेत्र में कमी आयी है और यह 2016-17 में 29 प्रतिशत से घटकर 2017-18 में 25 प्रतिशत हो गया है।

सरकार ने दो साल में ही पीएमएफबीवाई के तहत तीन गुनी ज्यादा राशि खर्च की है जबकि इसके पहले जो योजना चल रही थी उसके तहत तीन वर्ष में इतनी राशि खर्च नहीं की गयी थी। लेकिन इतना खर्च करने के बाद भी बीमा कवरेज में – वास्तविक फसल क्षेत्र और फसल क्षेत्र के प्रतिशत में मामूली वृद्धि हुई है। और निर्धारित लक्ष्य हासिल नहीं हुआ वह अलग से।

बीमित किसानों की संख्या

इस योजना के लाभार्थी किसानों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई है – 2015-16 में यह 48.55 मिलियन था जो 2017-18 में थोड़ा बढ़कर 48.76 मिलियन हो गया। इन दोनों वर्षों के बीच 2016-17 में इसकी संख्या बढ़कर 57.25 मिलियन हो गई थी। पर बढ़ती निराशा और तनाव के कारण किसान इस योजना से बाहर आने लगे। इस योजना के कार्यान्वयन संबंधी दिशानिर्देश में कहा गया है, “अधिसूचित फसलों के लिए मौसमी कृषि कार्य के लिए किसी वित्तीय संस्थान से ऋण लेने वाले सभी किसानों का आवश्यक रूप से बीमा किया जाएगा।” इसलिए इस योजना के तहत बीमित होने वाले बड़ी संख्या में ऐसे किसान हैं, जो इस बाध्यता के कारण इस योजना में शामिल हुए। पीएमएफबीवाई ऋण लेने वाले किसानों के लिए महज एक योजना बनकर रह गयी है। जुलाई 2017 में सेंटर फॉर साइन्स एंड एनवायरनमेंट की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि इस योजना में बिना ऋण लेने वाले किसानों का प्रतिशत खरीफ फसल के लिए पाँच प्रतिशत से भी कम है। पिछली फसल बीमा योजना की तरह, पीएमएफबीवाई भी बटाईदार और काश्तकार किसान को इस योजना का लाभ पहुंचाने में विफल रही है।

यह योजना अपनी चमक खो रही है। इस योजना के कार्यान्वयन और इसकी डिजाइन के मुद्दे, जैसे कि ग्राम पंचायत को एक इकाई मानने की वजह से किसान इस योजना से बिदक रहे हैं। किसानों को बताए बिना उनके खाते से इस योजना का जो प्रीमियम काट लिया जाता है वह भी किसानों को इस योजना से दूर रखने का एक कारण है। दावों का निपटान शीघ्र नहीं होने, दावे अस्वीकार किए जाने और आंशिक मुआवजा दिये जाने के कारण किसानों में गुस्सा है।

योजना के तहत कवरेज के लिए इकाई की समस्या

पीएमएफबीवाई कवरेज के लिए इकाई ग्राम पंचायत को चुना गया है। इसी वजह से इस योजना की सबसे ज्यादा आलोचना हुई है। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि कृषि बीमा को इस तरह डिजाइन किया जाना चाहिए की उसमें किसानों को इकाई बनाया जाए न कि किसानों के समूह या गाँव को। इसका कारण यह है कि हर ग्राम पंचायत का नमूना साइज इतना बड़ा नहीं होता कि वह फसल की बरबादी की विशालता और उसकी विविधता को पकड़ सके। एक ग्राम पंचायत में अमूमन आठ से दस गाँव होते हैं। फसल की अप्रत्याशित बर्बादी होने की स्थिति में जरूरी नहीं है कि संपूर्ण पंचायत को यह प्रभावित करे और इस बारे में लिया गया कोई नमूना जरूरी नहीं है कि कुछ गांवों में हुए फसल के नुकसान का प्रतिनिधित्व करे ही। उस स्थिति में, अगर नमूना ऐसे खेतों से लिये जाते हैं जिसमें फसल को कोई नुकसान नहीं हुआ है तो पूरे ग्राम पंचायत को आपदा-मुक्त घोषित कर दिया जाता है। इसलिए इस पंचायत से कोई भी किसान बीमा का दावा नहीं कर सकता। इस तरह यह योजना किसानों की समस्याओं को दूर करने में विफल रही है।

बीमा कंपनियों की चांदी

कुल 18 बीमा कंपनियाँ पीएमएफबीवाई के तहत हैं जिनमें से छह कंपनियाँ सरकारी हैं। इस योजना से निजी कंपनियों को लाभ हुआ है जिनके लिए मुनाफा सबसे बड़ी चीज है पर यह किसानों के लिए अभिशाप बन गया है।

सरकार ने 2015-16 में किसानों से 5,490 करोड़ रुपये प्रीमियम वसूला था जो कि 2016-17 में बढ़कर 22,550 करोड़ रुपये हो गया और 2017-18 में यह और बढ़कर 24,350 करोड़ रुपये हो गया। अकेले खरीफ फसल में ही वर्ष 2015-16 के दौरान 16,600 करोड़ रुपये प्रीमियम के रूप में वसूले गये थे जो कि 2016-17 में  बढ़कर 19,510 करोड़ रुपये हो गया या प्रति किसान 41 हजार रुपये से बढ़कर 57 हजार हो गया। ऐसा समय भी आया जब इस योजना के अंतर्गत फसल क्षेत्र में कमी आने लगी। यह भी सही है कि दो लगातार खरीफ सीजन में किसानों के दावे 10,505 करोड़ रुपये से बढ़कर 15,900 करोड़ रुपये हो गये। हालांकि, 16 जुलाई 2018 तक निपटाये गये दावे का मूल्य 10,284 करोड़ रुपये या 98 प्रतिशत से घटकर 9629 करोड़ रुपये या 61 प्रतिशत पर आ गया।

स्पष्टतः, इस योजना का वास्तविक लाभ बीमा कंपनियों को मिल रहा है। करदाताओं के पैसे जिससे किसानों का भला होना चाहिए था, बीमा कंपनियों की जेब में जा रहे हैं। यह कुनबा-पूंजीवाद का जीता-जागता उदाहरण है, जहां उद्यमियों और राजनीतिक वर्ग के बीच घठजोड़ से जमा किये गये जनता के पैसे पर व्यवसाय फलता-फूलता है। संविधान के अनुच्छेद 39(ग) के अनुसार, “आर्थिक व्यवस्था इस तरह से चलेगी कि धन चंद लोगों के हाथों में जमा न हों…।” इस मामले में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को सरकार ने भुला दिया है।

भुगतान में देरी

समय पर अपना दावा पेश करने के बाद भी किसानों को देरी से भुगतान किया गया है। कई बार किसानों को तो बीमा कंपनियों के प्रतिनिधियों से मिलने तक नहीं दिया जाता है। बीमा कंपनियाँ आश्वासन पर आश्वासन देती हैं पर नतीजा कुछ नहीं होता है।

सरकार ने किसानों को उनके दावे के भुगतान में होने वाली देरी को दूर करने की कोशिश की है। हाल में उसने पीएमएफबीवाई के तहत ताजा दिशानिर्देश जारी किया जिसमें यह प्रावधान किया है कि अगर बीमा कंपनियाँ किसानों को उनके दावे के भुगतान में दो महीने से ज्यादा की देरी करती हैं तो उन्हें किसानों को उनकी राशि पर 12 प्रतिशत का ब्याज देना होगा। पर अगर सरकार बीमा कंपनियों को भुगतान में देरी करती हैं तो उन्हें इसके लिए मांग पत्र जमा करने के दिन से तीन महीने से ज्यादा की देरी के बाद उनकी राशि पर 12 प्रतिशत का ब्याज मिलेगा।

स्थिति बदलेगी इस बारे में कृषि-नीति विशेषज्ञ बहुत ज्यादा आशावादी नहीं हैं। उनका कहना है कि सरकार को इस योजना को पूरी तरह बंद कर देना चाहिए।

सरकार ने पीएमएफबीवाई पर दो सालों में पुरानी योजना की तुलना में 400 प्रतिशत ज्यादा खर्च किया। इस योजना की विफलता सर्वविदित है। इसका लक्ष्य था किसानों को वित्तीय मदद पहुंचाना, उनको होने वाली आय में स्थायित्व लाना, किसानी जारी रखने में उनकी मदद करना, नवाचार, कृषि क्षेत्र को ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित करना, पर इसमें से कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है।

(अंग्रेजी से अनुवाद : अशोक झा, कॉपी-संपादन : राजन)


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लोकेश कुमार

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