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अति पिछड़ा वर्ग को रोहिणी आयोग पर भरोसा नहीं, कर रहे कर्पूरी फार्मूला लागू करने की मांग

ओबीसी के उपवर्गीकरण के लिए केंद्र सरकार ने जस्टिस रोहिणी कमीशन का गठन किया है। उपवर्गीकरण का मकसद ओबीसी में शामिल अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ देना है। लेकिन अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लोगों को ही इस आयोग पर भरोसा नहीं है। फारवर्ड प्रेस की खबर :

हालांकि अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के उप-वर्गीकरण  के बारे में रोहिणी आयोग ने अभी अपनी रिपोर्ट सौंपी नहीं है। लेकिन अभी से ही उसकी आलोचना शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा के ओबीसी में शामिल सैनी और नाई समाज के लोगाें ने इस आयोग को असंवैधानिक करार दिया है और इसे भंग करने की मांग कर रहे हैं।

आयोग का लक्ष्य

अक्टूबर 2017 में केंद्र सरकार ने केंद्रीय सूची में शामिल ओबीसी श्रेणी की विभिन्न जातियों में आरक्षण का लाभ किस जाति के लोगों को कितना मिल रहा है इसकी जांच के लिए एक आयोग का गठन किया। इस आयोग को ओबीसी में उप-वर्गीकरण को लागू करने के “तरीके, आधार, नियमों और मानदंडों के बारे में सुझाव देने को भी कहा गया। वर्ष 1992 में इन्द्रा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद महाराष्ट्र, तमिलनाडु और बिहार सहित भारत के नौ राज्यों ने उप-वर्गीकरण का काम पूरा कर लिया है।

  • तीन बार बढ़ाया जा चुका है जस्टिस रोहिणी आयोग का कार्यकाल

  • ओबीसी को बांटने की राजनीति का लग रहा केंद्र पर आरोप

  • आयोग कर रहा 2011 में हुए अप्रकाशित जातिगत जनगणना के आंकड़ों का उपयोग

सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक और रोहिणी कमीशन के सदस्य जे. के. बजाज

इस आयोग की अध्यक्षता कर रही हैं दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी रोहिणी। आयोग के अन्य सदस्य हैं सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक जे.के. बजाज और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में संयुक्त सचिव जो कि इस आयोग के सचिव भी हैं। एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के निदेशक, रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त  इसके पदेन सदस्य हैं। जी. रोहिणी खुद भी ओबीसी श्रेणी की हैं और बजाज ने ‘हिन्द स्वराज’ और ‘अयोध्या एंड फ्यूचर इंडिया’ जैसी पुस्तकों का सम्पादन किया है।

वास्तविकता क्या है?

स्वतंत्र भारत में, अभी तक जाति-आधारित जनगणना सिर्फ एक ही बार 2011 में हुई है और इसके अंतिम परिणाम को अभी तक पूरी तरह से सार्वजनिक नहीं किया गया है।

वर्ष 1980 में मंडल आयोग ने 1931 की जाति-आधारित जनगणना के आधार पर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव किया। मंडल आयोग के सुझावों का आधार अंग्रेजों द्वारा आधी सदी पहले की गई जनगणना थी जब भारत में उनका शासन कायम था। इस आरक्षण को सरकारी नौकरियों में 1992 में और उच्च शिक्षा में 2006 में लागू किया गया। हालांकि पिछड़ी जातियों ने जो सदियों से उत्पीड़न झेला है उसको देखते हुए जो आरक्षण उन्हें दिया गया है वह ऊँट के मुंह में जीरे की तरह है और इस जीरे ने भी उन्हीं लोगों के मुंह का स्वाद बढ़ाया है जो अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं और वास्तव में इसका लाभ उठाने वाले इस वर्ग के भूस्वामी हैं।

केेंद्र सरकार द्वारा गठित जी. रोहिणी आयोग की अध्यक्ष जस्टिस जी. रोहिणी

रोहिणी आयोग को यह कार्य सौंपा गया है कि वह ओबीसी में उप-वर्गों की पहचान करे और उनके लिए उप-कोटे का निर्धारण करे ताकि शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में सिर्फ मुठ्ठी भर जातियों को ही प्रतिनिधित्व न मिले। आयोग अपनी रिपोर्ट का आधार राज्य द्वारा सौंपे गए आंकड़े और 2011 की जनगणना को बना रहा है।

पिछड़ी जातियों की भावना

यह पूछे जाने पर कि नाई और सैनी इस आयोग का विरोध क्यों कर रहे हैं,  भारतीय सामाजिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आर.के. सैनी ने कहा, “सर्वप्रथम, इस आयोग ने कोई जमीनी सर्वेक्षण या जनगणना नहीं की है; वे राज्यों द्वारा सौंपे गए आंकड़ों को अपनी रिपोर्ट का आधार बना रहे हैं। एक नया सर्वेक्षण किया जाना जरूरी है। उदाहरण के लिए, सैन या नाई जाति के एक भी प्रथम श्रेणी के अधिकारी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में हमारी जाति का एक भी आईएएस अधिकारी नहीं है जिसकी सीधी नियुक्ति हुई हो। राजस्थान में एक आईएएस और एक आईपीस अधिकारी है, हरियाणा में एक आईएएस अधिकारी है पर वह भी सीधे आईएएस में नियुक्त नहीं हुआ – वह पदोन्नति से वहाँ पहुंचा है।”

  • कर्पूरी फार्मूले में शामिल था अति पिछड़ा के लिए 12 फीसदी आरक्षण

  • गरीब सवर्णों के लिए भी था 3 फीसदी आरक्षण का प्रावधान

इस स्थिति में फिर 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ किसको मिला है? उन्होंने कहा, “कृषि क्षेत्र से जो भी जातियां जुड़ी हुई हैं, उन्हें ही इसका लाभ मिला है। यादवों, कुर्मियों, मिओ और गुर्जरों ने इसका लाभ उठाया है और हम पीछे छूट गए हैं। हरियाणा में 18 ओबीसी विधायक हैं और इनमें से यादवों, कुर्मियों, गुर्जरों और मिओ जातियों के 15 सदस्य हैं। इन जातियों के 3 सांसद भी हैं। इन जातियों को अगर मिला दिया जाए तो हरियाणा की कुल जनसंख्या में ये 7 प्रतिशत हैं। कुल जनसंख्या में शेष पिछड़ी जातियों का प्रतिशत 36 है और ऐसी 67 जातियां राज्य में हैं। 90 में से इनके विधायकों की संख्या 3 है और इनके कोई सांसद नहीं हैं जो संसद में उनका प्रतिनिधित्व करे।

क्या इस समस्या को दूर करने का कोई रास्ता है? उनका कहना है, “पूर्ण रूप से पिछड़ी जातियों का एक नया सर्वेक्षण होना चाहिए।” मजबूत जातियों (यादव, कुर्मी और इसी तरह की अन्य को) अवश्य ही अलग श्रेणी में रखा जाना चाहिए जबकि स्पष्ट रूप से पिछड़ी जातियों को अलग श्रेणी में”।

वे इस बात की भी मांग कर रहे हैं कि कर्पूरी ठाकुर फ़ॉर्मूले को लागू किया जाना चाहिए। मतलब यह की 26 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए जिसमें 20 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए, 3 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य श्रेणी के लिए और 3 प्रतिशत महिलाओं के लिए भले ही वह किसी भी जाति, वर्ग और श्रेणी की हो। पिछड़ी जातियों के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण में से 12 प्रतिशत आरक्षण सर्वाधिक पिछड़ी जातियों के लिए रखी जाए और शेष 8 प्रतिशत अन्य बची हुई जातियों के लिए।

तीसरी बार हुआ रोहिणी आयोग का कार्यकाल विस्तार

चूंकि इस आयोग का गठन 2017 में हुआ, रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए तीन बार समय बढ़ाने की मांग की। दिसंबर 2017 में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आयोग का कार्यकाल 12 सप्ताह, यानी 2 अप्रैल 2018 तक के लिए बढ़ा दिया। फिर मार्च 2018 में इस आयोग का समय दूसरी बार बढ़ाकर 20 जून 2018 तक कर दिया गया। अब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसको एक और विस्तार देते हुए उसे अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए 20 नवंबर 2018 तक का समय दिया है।

(अनुवाद : अशोक झा, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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