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वर्ग-भेद के प्रखर आलोचक मुक्तिबोध की नजर से, वर्ण भेद कैसे ओझल हो गया

मुक्तिबोध वर्ग-चेतना संपन्न मार्क्सवादी कवि-आलोचक रहे हैं। उन्होंने वर्ग-भेद आधारित समाज और साहित्य की तीखी आलोचाना की है, लेकिन उनकी नजर से वर्ण-भेद पूरी तरह गायब है। कहीं-कहीं उसके पक्ष में भी खड़े दिखते हैं। मुक्तिबोध के आलोचनात्मक विवेक का विश्लेषण कर रहे हैं, बहुजन लेखक कंवल भारती :

मुक्तिबोध के आलोचना-कर्म का बहुजन नजरिए से मूल्यांकन

मेरे लिए गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ एक कवि के रूप में जितने जटिल हैं, उतने जटिल वह आलोचक के रूप में नहीं हैं। उनकी कविता में अभिव्यक्ति की जटिलता और दुरूहता सबसे अधिक है, इसलिए वह मेरे कभी पल्ले नहीं पड़ते। एक दफे यह बात मैंने निजी बातचीत में प्रणय कृष्ण से कही थी, तो उनका कहना था कि अगली बार जब बैठेंगे, तो यह दुरूहता खत्म हो जायेगी। उन्होंने सही कहा था, क्योंकि वह मुक्तिबोध को पढ़ाते हैं और उस पर अधिकार भी रखते हैं। पर, किसी के समझाने से समझा, तो क्या समझा?

मुक्तिबोध की आलोचना की मैंने तीन किताबें पढ़ी हैं, एक ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’, जो नामवर सिंह की ‘कविता के नए प्रतिमान’ पढ़ने के काफी समय बाद पढ़ी थी, दो, ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’, जिसे उन्होंने पाठ्यपुस्तक के रूप में लिखा था। इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘यह इतिहास की पुस्तक नहीं है’, और यह भी कि ‘यह ग्रन्थ मौलिक नहीं है। जहां से जो मिला, लिया।’ इसे हम उनका सम्पादन-कर्म मान सकते हैं; और, तीन, ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’, जो आज भी ‘कामायनी’ पर उनकी प्रगतिवादी आलोचना की श्रेष्ठ कृति मानी जाती है। अगर इतिहास की किताब को छोड़ दें, तो शेष दोनों उनके आलोचना-कर्म की बेजोड़ किताबें हैं। दुर्भाग्य से उन्हें लम्बा जीवन नहीं मिला, मात्र 47 वर्ष की अल्पायु में ही वह दुनिया से चले गए। अगर वह आज होते, तो अपने बहुत से विचारों का भी पुनर्परीक्षण अवश्य करते।

कामायनी: एक पुनर्विचार

मुक्तिबोध की आलोचनात्मक कृति कामायनी : एक पुनर्विचार

मैं अपनी बात ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ से शुरु करता हूं। इसके अन्तिम अध्याय में मुक्तिबोध एकदम स्वामी विवेकानन्द की शैली में घोषणा करते हैं- ‘आज संस्कृति का नेतृत्व उच्च वर्गों के हाथ में है- जिनमें उच्च मध्यवर्ग भी शामिल है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि यह परिस्थिति स्थाई रहे, अनिवार्यतः। यह बदल सकती है। और, जब बदलेगी, तब इतनी तेजी से बदलेगी कि होश फाख्ता हो जायेंगे।[1]’आगे उन्होंने मध्यकालीन निम्न जातीय सन्तों की पराजय पर टिप्पणी की है कि क्रान्ति को अन्ततः हारना ही पड़ता है, तथापि, वे उस जमाने के जल्दी आने की भविष्यवाणी भी करते हैं, जब क्रान्ति फिर से जीवित होगी। यथा-

‘किन्तु, अन्ततः, संस्कृति का नेतृत्व करने वाले पुराने विधाताओं से हारना ही पड़ता है। मेरा मतलब कबीर जैसे निर्गुणवादी सन्तों की श्रेणी से उस श्रेणी में आने वाले लोगों से है। समाज के भीतर निम्न जन-श्रेणियों का वह विद्रोह था, जिसने धार्मिक-सामाजिक धरातल पर स्वयं को प्रस्थापित किया। आगे चलकर, निर्गुणवाद के अनन्तर, सगुण भक्ति और पौराणिक धर्म की विजय हुई, तब संस्कृति के क्षेत्र में निम्न जातियों को, निम्न जन-श्रेणियों को पीछे हटना पड़ा। यह आवश्यक नहीं कि आगे चलकर ये निम्न जन-श्रेणियां चुपचाप बैठी रहें। शायद वह जमाना जल्दी ही आ रहा है, जब वे स्वयं संस्कृति का नेतृत्व करेंगी, और वर्तमान नेतृत्व अधःपतित होकर धराशायी हो जायेगा। इस बात से वे डरें, जो समाज के उत्पीड़क हैं, या उनके साथ हैं, हम नहीं, क्योंकि हम पददलित हैं, और अविनाश्य हैं- हम चाहे जहां उग आते हैं। गरीब, उत्पीड़ित, शोषित मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर मैं यह बात कह रहा हूं।[2]

किन्तु जिस सगुण और पौराणिक धर्म की विजय की बात मुक्तिबोध करते हैं, वह वस्तुतः ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रान्ति है। जब वह यह कहते हैं कि ‘सारी कामायनी में नई सभ्यताओं के उत्कर्ष’ और विज्ञान की उन्नति के लिए कोई सर्ग नहीं है[3] , तो असल में वह उसे प्रतिक्रान्ति की नजर से ही देख रहे थे। पर, वह इस बात को कहीं खुलकर नहीं कह सके, कि कामायनी के रचनाकार जयशंकर प्रसाद प्रतिक्रांति के कवि थे। हालांकि मुक्तिबोध सही कहते हैं कि प्रसाद जी समाज में ‘विघटन की प्रक्रिया को मूलतः वर्गभेद, वर्गसंघर्ष और अहंकार मानते हैं।[4]’  पर, जिसे वह विघटन की प्रक्रिया कहते हैं, वह असल में परिवर्तन की प्रक्रिया थी, जो बीसवीं सदी में पूरे देश में शुरु हो गई थी। प्रसाद जी इसी परिवर्तन के विरोधी थे।

कामायनी का प्रकाशन 1937 में हुआ था, सम्भवतः उसकी रचना उससे भी पहले हुई हो। उसके रचनाकार  1857 के गदर की असफलता को देख चुके थे, जो भारतीय समाज में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा, स्त्रियों और निम्न जातियों के पक्ष में किए गए सुधारों के विरुद्ध ब्राह्मणों और सामन्तों ने मिलकर किया था। वह यह भी देख रहे थे कि किस तरह ईसाईयत और इस्लाम निम्न जातियों में नया ज्ञानोदय पैदा कर रहे थे। वह डॉ. आंबेडकर और हिन्दी क्षेत्र में स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में चल रहे वर्णव्यवस्था विरोधी आन्दोलनों के भी साक्षी थे। यह सब उनके लिए चिन्तनीय था। इसलिए प्रसाद की कामायनी हिन्दू पुनरुत्थान की रचना है। मुक्तिबोध कामायनी की आलोचना में वर्गसंघर्ष का विरोध तो देखते थे, पर वर्णसंघर्ष का विरोध नहीं। शायद, समकालीन ब्राह्मणवादी समाजवादियों की तरह मुक्तिबोध की चिन्ता में भी वर्ण के सवाल नहीं थे। किन्तु, वह इस बात से जरूर आश्वस्त थे कि वह जमाना जल्दी आयेगा, जब नई संस्कृति का नेतृत्व निम्न वर्गों के हाथों में होगा। अवश्य ही आज वह जमाना आ गया है, लेकिन निम्न वर्गों के नहीं, निम्न जातियों के हाथों में आया है। आज राजनीति और समाज की नई संस्कृति का नेतृत्व निम्न जातियों के हाथों में है। पर, ये जातियां, यद्यपि, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद की विनाशक नहीं, रक्षक हैं, तथापि, यह जमाना वर्गसंघर्ष का नही, वर्णसंघर्ष का है। हालांकि, मुक्तिबोध की यह बात आज भी सही है कि सगुण और पौराणिक धर्म का पुराना नेतृत्व (अर्थात् प्रतिक्रान्ति) क्रान्ति को निगलने के लिए हमेशा सक्रिय रहा है, जो इस निम्न नेतृत्व पर लदे हुए ब्राह्मणवाद को देखकर अनुभव भी हो रहा है।

‘कामायनी’ में मुक्तिबोध की वर्गीय दृष्टि जबरदस्त है, जो उसमें उन्हें खुला खेल ब्राह्मणवादी देखने ही नहीं देती। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, वायवाद, अद्वैतवाद, रहस्यवाद और न जाने किन-किन वादों की चर्चा करके उसकी आलोचना को अपनी कविता की तरह ही बोझिल और दुरूह बना दिया है। इससे उसमें पांडित्य तो खूब भर गया है, पर भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में उसकी आलोचना नहीं हो पाई है। मिसाल के तौर पर, मुक्तिबोध लिखते हैं-

‘प्रसाद जी को इस बात का श्रेय देना ही होगा कि उन्हें अपने समाज की ह्रासावस्था में, जब उस समाज-रचना की स्थिति अगतिक हो उठती है, तब, वह धर्म का या रहस्यवाद का, अथवा किसी-न-किसी प्रकार के वायवीय आदर्शवाद का, पल्ला पकड़ता ही है। उसका प्रधान आकर्षण, वस्तुतः, धर्म या रहस्य के प्रति ही होता है। जिस पूंजीवाद ने अपने उत्थान-काल में धर्म के मजबूत पंजों से जनता के मन को छुटकारा दिलाया, वही पूंजीवाद आगे चलकर अपने चरमराते ढांचे को थामने के लिए, धर्म या किसी-न-किसी रहस्यवाद का सहारा लेता ही है।[5]

मुक्तिबोध

पूंजीवाद, हिन्दू वर्णव्यवस्था की बुनियाद में ही मौजूद है, इसलिए उसके चरमराने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वर्णव्यवस्था का अर्थ है ब्राह्मणवाद, और ब्राह्मणवाद हमेशा पूंजीवाद के साथ चलेगा, न सिर्फ चलेगा, बल्कि उसका विकास और विस्तार भी करेगा। भारत के आर्थिक विकास का नेहरू मिश्रित मॉडल यही तो है। मुक्तिबोध बार-बार रहस्यवाद की पुनरावृत्ति क्यों करते हैं? और यह आदर्शवाद क्या है, जिसका पल्ला प्रसाद जी ने पकड़ा है? क्या यह वर्णधर्म नहीं है, जिसे कहने का साहस, पता नहीं, मुक्तिबोध क्यों नहीं कर सके?  हालांकि वह इसके बहुत नजदीक पहुंचकर भी उसकी उपेक्षा करते हैं, जब कहते हैं-

‘श्रद्धा वर्गहीन समाज चाहती है, जिसमें एक व्यक्ति के हित दूसरे से न टकराएं, एक पक्ष के हित दूसरे से न भिड़ें, समाज के सब लोग एक दूसरे से घुल-मिलकर रहें। श्रद्धा का आदर्शवाद भावनापूर्ण है। श्रद्धा ऐसा समाज चाहती है, जिसमें भेदभाव न हो।[6]

क्या जातिव्यवस्था के रहते भेदभाव-रहित और वर्गहीन समाज बन सकता है? कोई भी इसका ‘हां’ में उत्तर नहीं दे सकता। किन्तु, मुक्तिबोध की वर्गीय चेतना इस यथार्थ को अनुभव नहीं कर रही थी। श्रद्धा के आदर्शवाद पर वह सिर्फ इतना कहते हैं-

‘किन्तु वर्ग-विषमताओं को नष्ट करने तथा शोषणमूलक सामाजिक विकारों को रोकने का उसके पास  कोई उपाय नहीं है। उपाय के नाम से जो भी है, वह है सामरस्य सिद्धान्त, जो अधिक-से-अधिक एक मनोवैज्ञानिक अवस्था का नाम है। उसके द्वारा समाज-रचना नहीं बदली जा सकती।[7]

यहां मुक्तिबोध जातिव्यवस्था को एक सामाजिक विकार कहकर आगे बढ़ जाते हैं। जाहिर है कि वह जातिव्यवस्था से ‘पीड़ित’समाज से नहीं आते थे, अपितु वह ‘प्रतिष्ठित’समाज के सदस्य थे। इसलिए, वह हिन्दूधर्म की उस मूल आत्मा को, उस धार्मिक व्यवस्था को, जिसे हिन्दू कानून का दर्जा भी प्राप्त था, और जो निजी पूंजीवाद की सबसे बड़ी समर्थक है, सिर्फ एक सामाजिक विकार की नजर से देख रहे थे। अगर यह सिर्फ सामाजिक विकार है, तो जिस तरह से बहुत से सामाजिक विकार समय के साथ समाप्त हुए, जैसे समुद्र-यात्रा पाप थी, तो जातिव्यवस्था समाप्त क्यों नहीं हुई? अस्पृश्यता आज भी विद्यमान क्यों है? कामायनी के रचयिता प्रसादजी की बात समझ में आती है, वह बीसवीं सदी में ईसाईयत, इस्लाम और ब्रिटिश-सुधारों के प्रभाव से दलित-पिछड़ी जातियों के उत्थान से चिन्तित थे, और इसलिए चिन्तित थे, क्योंकि वे अपने पुश्तैनी पेशों का परित्याग करने लगे थे, जिन्हें हिन्दू वर्णव्यवस्था ने उनका वर्णकर्म निश्चित किया था। किन्तु मुक्तिबोध की परेशानी क्या थी? उनकी परेशानी यह थी कि वह अपने समय के ब्राह्मणवादी समाजवादियों की तरह वर्ण के सवालों को जातिवादी कहकर नकार रहे थे।

लेकिन इसके बावजूद, मुक्तिबोध यह स्वीकार करने का साहस करते हैं कि प्रसादजी की श्रद्धा जिस समाज की कल्पना करती है, वह सामरस्य-सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिक अवस्था है। आज के हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का सामाजिक समरसता का सिद्धान्त भी ऐसी ही मनोवैज्ञानिक अवस्था है, जिसकी मीठी गोली ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से पीड़ित वर्गों को सुलाने का काम करती है। इसलिए, मुक्तिबोध का तर्क सही है कि ‘सामरस्य के सिद्धान्त को तब व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है, जब समाज-रचना बदल दी जाए और पूंजीवादी सभ्यता पूर्णतः नष्ट हो।’ पर, उन्हें यह भी कहना चाहिए था कि ब्राह्मणवाद को मारे बिना, न समाज की रचना बदलेगी, और न पूंजीवादी सभ्यता नष्ट होगी।

नयी कविता का आत्मसंघर्ष 

मुक्तिबोध की आलोचनात्मक कृति नयी कविता का आत्मसंघर्ष

अब कामायनी को यहीं छोड़ता हूं, और मुक्तिबोध की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ‘नयी कविता का संघर्ष’ पर कुछ चर्चा करना चाहता हूं। इस पुस्तक में संकलित सभी निबन्ध सम्भवतः उनकी मृत्यु (1964) से पांच-दस साल पहले की अवधि के लिखे हो सकते हैं। उसी काल में हिन्दी कविता में नयी कविता का दौर शुरु हुआ था। हिन्दी कविता में यह सबसे बड़ा तमाशा था। इससे पहले, हिन्दी कविता में छायावाद, रहस्यवाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद के दिलचस्प तमाशे हो चुके थे। ये तमाशे इसलिए हुए, क्योंकि हिन्दी में जमीन से कोई कवि नहीं आया था। सब के सब ब्राह्मण और हिन्दुत्व की पृष्ठभूमि से आए थे। इसलिए, उनकी सारी अनुभूतियां धर्म के संस्कारों से निर्मित हुईं थीं। उनकी भाषा, शब्दावली, भावाभिव्यक्ति सब की सब धार्मिक थीं। वे प्रकृति, गंगा, पहाड़, बाग-बगीचे, आकाश, बादल, वर्षा, फूलों, वृक्षों और झरनों के प्रति संवेदनशील थे, और सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म की ओर भावों की अभिव्यक्ति को ही कविता कहते थे। मध्यकाल की भक्तिचेतना भी उनमें थी, जिसके कारण वे धर्म और देवताओं की स्तुति को भी कविता कहते थे। चूंकि, वे अपनी कविता के स्वयं पाठक थे और स्वयं ही आलोचक थे, इसलिए कोई उसमें छायावाद देखता था, कोई रहस्यवाद देखता था और कोई, जिसमें कुछ पश्चिम का मानवीय विचार था, प्रगतिवाद भी देखता था। जिस कवि ने भाषा के स्तर पर नए प्रयोग किए, वह प्रयोगवादी कहा जाने लगा। दिलचस्प है कि इस छायावाद, रहस्यवाद और प्रयोगवाद के केन्द्र में सब कुछ था, अगर नहीं था, तो वह मनुष्य नहीं था, जो शहर-शहर और गांव-गांव में ब्राह्मणों और हिन्दुओं के द्वारा सताया और मारा जा रहा था, जिसे पशु से भी बदतर समझा जाता था और जिसकी छाया भी अपवित्र थी। इस मनुष्य के प्रति दया का भाव प्रगतिवादी कविता में भी दिखाई नहीं देता, जो दीनहीन पर घड़ियाली आंसू बहाती थी।[8]  यहां मैं कहना चाहता हूं कि 19वीं और 20वीं सदी की हिन्दी कविता इन तमाम तमाशों के बावजूद 15वीं सदी के कबीर की कविता के मुकाबले भी पिछड़ी हुई थी।

इसके बाद नयी कविता का तमाशा शुरु हुआ। इसका अर्थ था कि हिन्दी कविता अपने पुराने आन्दोलनों से निकलकर नए वातावरण में आई थी, जिसके केन्द्र में, जाहिर है, नया मनुष्य था। पर, यह नया मनुष्य कौन था? कहां रहता था, क्या करता था, क्या खाता था और उसके सरोकार क्या थे? यह जानना दिलचस्प होगा। मुक्तिबोध के अनुसार यह वह मनुष्य था, जिसमें नए मूल्यों के लिए आग्रह था। ये मूल्य क्या हैं? मुक्तिबोध कहते हैं कि ‘नये मूल्यों का जन्म नयी परिस्थितियों की सार्वजनिकता से होता है।[9]’बात सही है, पर वे नयी परिस्थितियां क्या थीं? इस सम्बन्ध में वह कहते हैं-

‘भारत की पूरी ऐतिहासिक परिस्थिति ही ऐसी है कि गरीब वर्ग अधिकाधिक गरीब होते जा रहे हैं और धनी वर्ग अधिकाधिक श्रीमान। मध्यवर्ग की खाती-पीती शिष्ट श्रेणी और उसी वर्ग की गरीब श्रेणी के बीच भयानक खाई पड़ी हुई है, जो दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है। ये गरीब श्रेणी अब इस नतीजे पर पहुंच रही है कि उसका पूरा उद्धार सभी गरीब वर्गों की मुक्ति के साथ है, उससे अलग हटकर नहीं।[10]

नई कविता के दौर में जितने भी नए कवि हुए, जिनमें मुक्तिबोध भी एक थे, उनकी कविता के केन्द्र में यही आर्थिक रूप से कमजोर गरीब व्यक्ति था। यह सचमुच एक नई सोच थी, क्योंकि इसमें हिन्दुत्व की उस स्थापना से विद्रोह था, जिसके अनुसार अमीरी और गरीबी पूर्वजन्म का कर्मफल या भाग्य का खेल है। अगर गरीब की पक्षधरता की यह अवधारणा पाश्चात्य दर्शन से नहीं निकली थी, तो अनूठी कही जायेगी। पर थी नहीं, क्योंकि इस पर कम्युनिस्ट आन्दोलन की वर्गचेतना का प्रभाव था। वर्गचेतना की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह जातिचेतना की उपेक्षा करती है, जिसमें भारत जीता है। इसलिए भारत में वर्गचेतना के दर्शन को सफलता नहीं मिली। नई कविता के रचनाकार और पैरोकार भी कभी जातिविहीन नहीं हुए। वे दोहरा जीवन जीते थे- कविता में नए मनुष्य का और समाज में जाति-चेतना से ग्रस्त मनुष्य का।

मुक्तिबोध स्वयं भी यह स्वीकार करते हैं कि ‘गरीब श्रेणी के परिवारों में भी, सामन्ती प्रभाव, व्यक्ति-स्वातन्त्र्यवादी नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी को अपने अजगर-पाश में बांधने वाली एक-सी दुःस्थितियां होने के कारण, नए मूल्यों का संघर्ष पेचीदा हो जाता है।’लेकिन वे यह कहीं स्वीकार नहीं करते हैं कि इस नए-पुराने का संघर्ष जातीय संस्कारों के कारण पेचीदा होता है।[11] वह जाति के समाजशास्त्र को समझना नहीं चाहते थे, इसलिए व्यक्ति के संघर्ष में जाति की भूमिका को स्वीकार भी नहीं करते थे। उनकी यह स्थापना देखें-

‘पच्चीस वर्ष की आयु होने के बाद, जब नई आशा और नए उत्साह की रचनात्मक आवश्यकता होती है, तब वह वृद्ध हो जाता है। आजीविका का संघर्ष उसे पछाड़ देता है। स्नेह की भूख उसे दबा देती है। ज्ञान की पिपासा जाग्रत होते हुए भी, उसके साधन उसके पास नहीं होते। इसलिए उसके स्थाई भाव क्षोभ, घृणा, अविश्वास, तिरस्कार रहते हैं और साथ ही, स्नेह-सम्बन्धों के निर्वाह का अनुरोध, अपने व्यक्तिगत संघर्ष को सामाजिक संघर्ष में बदलने की लालसा, और तत्सम्बन्धी जिज्ञासा पैदा हो जाती है। वह भावुक से अब बौद्धिक हो जाता है।[12]

मुक्तिबोध जिन परिस्थितियों में युवकों के बौद्धिक हो जाने की बात कह रहे हैं, वह हास्यास्पद है। इस तरह हताश युवक अगर बौद्धिक होने लगते, तो न जाने कितनी क्रान्तियां देश में हो चुकी होतीं। हताश युवक आत्महत्या को अंजाम देते हैं, या जीविका चलाने के लिए अपने स्तर से कमतर अथवा कम वेतन का जो भी काम मिलता है, कर लेते हैं। मुक्तिबोध ने एक आम नौजवान के संघर्ष को चित्रित किया है। पर एक आम दलित युवक का संघर्ष क्या होता है, इसका अनुभव उन्हें नहीं था। इसलिए उनकी दृष्टि में जाति के भेदभाव से ग्रस्त समाज में एक दलित लड़का स्कूल से लेकर कॉलेज तक एक अदद सम्मान पाने के लिए और नौकरी के लिए संघर्ष करने तक कितनी अपमानजनक स्थितियों से गुजरता है और कितनी यातनाएं झेलता है, इसकी कोई अनुभूति उनको नहीं थी। फिर वह किस नए मनुष्य की बात कर रहे थे। क्या नए कवि का नया मनुष्य देश की अछूत आबादी के प्रति संवेदनशील था?

मुक्तिबोध वस्तुतः अपनी अवधारणा में ही स्पष्ट नहीं थे। वह एक जगह कहते हैं, ‘नई कला, नई कविता, स्वयं एक अन्तर्राष्ट्रीय वस्तु हो गई है। किन्तु, अपनी भूमि और अपने देश की मिट्टी में रंगकर ही विश्वात्मक हुआ जा सकता है, नहीं तो नहीं।[13]’कौन सी भूमि- वेदों की, पुराणों की, शंकर की, कबीर की या तुलसी की? और क्या वर्णव्यवस्था की मिट्टी में रंगकर? जब अपनी भूमि और अपने देश की मिट्टी में रंगकर समतावादी नहीं हुआ जा सकता, तो विश्वात्मक कैसे हुआ जा सकता है? वह अपने एक अन्य लेख ‘हिन्दी काव्य की नई धारा’में, जो ‘तारसप्तक’और ‘दूसरा तारसप्तक’के दौर में छायावाद से मुक्त हो रही थी, सही कहते हैं कि-

‘जब तक हम आज के युग के पीड़ित मनुष्य की सम्पूर्ण आत्मसत्ता का चित्रण नहीं करते, उसके वास्तविक सुख-दुख, उसके संघर्षों और आदर्शों का अंकन नहीं करते, उसके अनिवार्य भवितव्य और कर्तव्य का मार्ग प्रशस्त नहीं करते, तब तक नई कविता का कार्य अधूरा है। हम नहीं करेंगे तो कोई और आकर करेगा। ऐसी ऐतिहासिक अनिवार्यताएं किसी के लिए रुकतीं नहीं।[14]

हिन्दी कविता के इस अधूरेपन को दलित कवियों ने पूरा किया। और, कहना न होगा, हिन्दी में दलित कविता ही सही मायने में नई कविता की भूमिका में थी। किन्तु, नई कविता के सारे ही पैरोकारों और प्रतिष्ठित कवियों ने दलित कविता का विरोध किया। कारण, दलित कविता ने उनकी कविता को बेमानी कर दिया था, और उसके नए मनुष्य को बेनकाब कर दिया था। यह दलित कविता अस्सी के दशक की नहीं थी, बल्कि वह नई कविता के दौर में ही लिखी जा रही थी।

भारत : इतिहास और संस्कृति

मुक्तिबोध की किताब भारत : इतिहास और संस्कृति

अब थोड़ी चर्चा मुक्तिबोध के ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’पर। जैसा कि मैंने शुरु में कहा, वह अपनी इस किताब को मौलिक नहीं कहते हैं; पर यह दिलचस्प है कि साहित्य का विद्यार्थी इतिहास लेखन में प्रवेश करता है और विवेकहीन हो जाता है। आम तौर से हिन्दी के साहित्यकार इतिहास से अनभिज्ञ होते हैं, और इतिहासकार हिन्दी के साहित्य से, परिणामतः, तथ्यात्मक ही नहीं, वस्तुगत त्रुटियों का होना स्वाभाविक है। हिन्दी के बहुत सारे साहित्यकारों ने इतिहास के विवेक के बिना इतिहास लिखा है, और भारी ऐतिहासिक गलतियां की हैं। ऐसी गलतियां इतिहासकारों से साहित्य में बहुत कम हुई हैं। उदाहरण के लिए कबीर की यह साखी लीजिए-

मीठा खांण मधुकरी, भांति-भांति को नाज।
दावा किस ही का नहीं, बिन बिलाइत बढ़ राज।। [15]

इस साखी में ‘बिलाइत’ शब्द का अर्थ सभी साहित्यकारों ने गलत किया है। बाबू श्यामसुन्दर दास ने ‘कबीर ग्रन्थावली’की प्रस्तावना में लिखा है- ‘ईसाई धर्म का उनके (कबीर के) समय तक देश में प्रवेश नहीं हुआ था, पर बिलाइत का नाम उनकी एक साखी में एक स्थान पर अवश्य आया है- ‘बिन बिलाइत बढ़ राज।’ यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि बिलाइत से उनका यूरोप के किसी देश से अभिप्राय था अथवा केवल विदेश से।[16]

यह ऐतिहासिक गलती इसलिए हुई, क्योंकि श्यामसुन्दर दास इतिहास से अनभिज्ञ थे। यदि उन्होंने इतिहास का अध्ययन किया होता, तो उन्हें बिलाइत शब्द का अर्थ मध्यकालीन इतिहास में मिल जाता। इतिहासकार प्रोफेसर ओमप्रकाश गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘कबीर और समकालीन इतिहास’ में इस साखी का सही अर्थ किया है। वह लिखते हैं कि ‘बिलाइत’ फारसी के ‘विलायत’ शब्द का लोकभाषा में प्रचलित रूप है, जिसका मतलब सूफी साधकों का निश्चित प्रान्त अथवा प्रभाव-क्षेत्र है। इस प्रकार, उनके अनुसार, कबीर अपनी साखी में यह कह रहे हैं कि भिखारी किसी एक प्रान्त तक सीमित नहीं रहते, बल्कि सम्पूर्ण देश में घूम-घूम कर भिक्षा मांगते हैं।[17]

ठीक इसी तरह की गलतियां मुक्तिबोध ने ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ (1962) में की हैं, जिनके कारण मध्यप्रदेश सरकार ने उनकी किताब पर पाबन्दी लगाई, उनके खिलाफ कोर्ट में वाद दायर हुआ और कोर्ट ने भी किताब को आपत्तिजनक पाया। उन्होंने इतिहासकार सुनीति कुमार चटर्जी, के. एम. पणिक्कर, राधाकुमुद मुकर्जी, बी. जी. गोखले और बी. एन. लूनिया आदि की किताबों से नकल की थी, पर नकल के साथ जो अकल लगानी होती है, वह उन्होंने नहीं लगाई। कारण, वह सिर्फ साहित्य के विद्यार्थी थे। इसलिए उन्होंने उन इतिहासकारों की किताबों से नकल करके रक्त-मिश्रण, ब्रात्य, वणसंकर आदि पर जो लिखा, उनकी अवैज्ञानिक प्रकृति पर एक बार भी नहीं सोचा कि क्या जातियों का निर्माण व्यभिचार से होता है, जिसका मनु ने भी राग अलापा है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि मुक्तिबोध अपनी सफाई में भी इस अवैज्ञानिक सोच का समर्थन कर रहे थे। उन्होंने मध्यप्रदेश के राज्यपाल को लिखे पत्र में लिखा था-  ‘मैंने रक्त-सम्मिश्रण, ब्रात्य, वर्णसंकर इत्यादि शब्द उन इतिहासशास्त्रियों से ग्रहण किए हैं, जिन्होंने अनेक स्थानों पर निःशंक भाव से उनका उपयोग किया है।[18] मनुस्मृति तक में भी इन शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिससे यह सिद्ध होता है कि वे अनैतिक तथा अभद्र भावों का उत्तेजन नहीं करते थे, वरन् पारिभाषिक अर्थ रखने लगे थे। इसी पारिभाषिक अर्थ में भारत के आधुनिक इतिहासकारों ने उनका उपयोग किया है।’ वर्णसंकर शब्दावली स्वयं में अभद्र शब्दावली है, जिसका अर्थ लोकभाषा में ‘हरामी’ होता है। ब्राह्मणों ने अपने से इतर जातियों को वर्णसंकर कहकर उनको अपमानित करने का काम किया है। हैरानी होती है कि मुक्तिबोध ने इस मिथक पर विश्वास कर लिया कि हारे हुए सैन्धव जन शूद्र कहलाते थे, और उन्हीं शूद्रों की पुत्रियों से पवित्र ब्राह्मणों ने अवैध सम्बन्ध स्थापित किए और वर्णसंकर जातियों का उद्भव हुआ, जो ब्रात्य कहलाए। और, उन्हीं ब्रात्यों की परम्परा में महावीर हुए।[19]’यह कैसा महिमामण्डन है कि दूसरों की पुत्रियों के साथ अवैध सम्बन्ध स्थापित करने वाले ब्राह्मणों को वह ‘पवित्र’ कह रहे थे? बजाए इसके कि उनके मस्तिष्क में यह विचार आता, कि ब्राह्मणों ने जिन जातियों को वर्णसंकर कहा है, वे देश की सभ्य जनजातियां थीं, वह राज्यपाल को यह बता रहे थे कि ‘वर्णसंकरता एक वास्तविक सामाजिक भूवंश शास्त्रीय तथ्य है, वह भी एक मनुष्य-सत्य है। विश्वामित्र-पुत्र शुनःशेष, जो अनार्य दास राजा शम्बर की प्रेमवती कन्या उग्रा के गर्भ से उत्पन्न हुआ, आर्य कृषि होने पर भी इस बात को कैसे भूल सकता था कि उसकी कृष्ण वर्णीय माता उग्रा ने- दास कन्या उग्रा ने परकोटे से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास, जिन्होंने वैदिक संहिताएं बनाईं, क्या इस बात को भूल जायेंगे कि उनकी माता सत्यवती मत्स्यगंधा एक कृष्ण वर्णीय अनार्य केवट कन्या थी।[20]’माना कि वर्णसंकर एक सत्य है, पर वह जाति-उद्भव का नियम नहीं है। यदि मुक्तिबोध ने जातियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया होता, तो मिथकों पर आत्ममुग्ध होकर, इस कदर उनके मकड़जाल में न फॅंसते, और रक्त-मिश्रण और वर्णसंकर के अन्तर को समझकर इतिहास का भी पुनर्पाठ कर रहे होते।

(कॉपी-संपादन : इमामुद्दीन/सिद्धार्थ)

[1] कामायनी: एक पुनर्विचार, 2010, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 160।

[2] वही।

[3] वही, पृष्ठ 176।

[4] वही।

[5] वही, पृष्ठ 143।

[6] वही, पृष्ठ 144।

[7] वही।

[8] हिन्दी में गांधीवादी कविता में, जो राजनीतिक थी, और गांधीजी के हरिजन आन्दोलन की समर्थक थी, अछूत के प्रति थोड़ा दयाभाव दिखाई देता है।

[9] नई कविता का संघर्ष, नयी कविता: एक दायित्व, 2009, पृष्ठ 109।

[10] वही, पृष्ठ 110।

[11] वही।

[12] वही, पृष्ठ 111-12।

[13] वही, नई कविता और आधुनिक भावबोध, पृष्ठ 122।

[14] वही, हिन्दी काव्य की नई धारा, पृष्ठ 133।

[15] कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दर दास, 2041 विक्रमी, ‘बेसास को अंग’, पृष्ठ 46।

[16] वही, प्रस्तावना, पृष्ठ 39।

[17] कबीर और समकालीन इतिहास, 2011, पृष्ठ 18।

[18] भारत: इतिहास और संस्कृति, पृष्ठ 258।

[19] वही, पृष्ठ 237।

[20] वही, पृष्ठ 259।


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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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