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कोर्ट की फटकार के बाद एमफिल, पीएचडी के दाखिले में ओबीसी, दलितों और आदिवासियों की अड़चनें खत्म

सरकार और संवैधानिक संस्थाओं पर जुमलों से शासन करने का आरोप नया नहीं है। ‘सबका साथ सबका विकास’ की तर्ज पर यूजीसी ने उच्च शिक्षा में हिमायत की और ‘सबके लिए समान योग्यता’ पैमाने से मापजोख करनी चाही। कोर्ट ने उसे फटकारा कि ऐसे में तो एससी, एसटी, ओबीसी और कमजोर तबकों के छात्र ही इस प्रणाली से छिटक जाएंगे। फारवर्ड प्रेस की खबर

एक बार फिर यूजीसी को अदालत की फटकार लगी है। इस फटकार की वजह यह रही कि उसके एक नियम के कारण एमफिल और पीएचडी करने की इच्छा रखने वाले दलित-बहुजन छात्रों का हित प्रभावित हो रहा था। उसने उच्च शिक्षा में यह व्यवस्था बनाई थी कि वही स्कॉलर्स एमफिल-पीएचडी कर पाएंगे जिनको साक्षात्कार में उनके प्रदर्शन (वाइवा बेस पर्फोरमेंस) के आधार पर सटीक पाया जाएगा। दिल्ली हाईकोर्ट एक झटके में समझ गया कि यह संविधान की बुनियादी धारणा को तोड़ने वाला नियम है। कोर्ट ने बिना देर किए वाइवा आधारित प्रवेश परीक्षा को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कहा और हिदायत दी कि आरक्षित तबके को उचित रियायत दी जाए जैसा संविधान कहता है। साथ ही कि कहा कि पिछले दिनों इस आधार जैसी स्वीकृतियां और संस्तुतियां हुई हैं, उनको भी ठीक किया जाए।

कोर्ट की फटकार के बाद निरूत्तर हुआ यूजीसी

कोर्ट ने कहा कि आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के साथ-साथ शारीरिक तौर पर अक्षम उम्मीदवारों के लिए लिखित परीक्षा में न्यूनतम योग्यता अंकों में रियायत ना देने का यूजीसी का फैसला ‘बिना दिमाग लगाए लिया गया।’ हालांकि, कोर्ट ने नियम में एमफिल और पीएचडी पाठ्यक्रमों में पर्यवेक्षक और शोधकर्ता का अनुपात को सही कहा है। हाईकोर्ट ने यूजीसी और जेएनयू को निर्देश दिया है कि वे संबंधित नियम को लागू करने के चलते पिछले दो शैक्षणिक सत्रों में जो सीटें खाली रह गई हैं,उनको भरने के लिए छूट देने पर विचार करें।

जेएनयू, नई दिल्ली में विरोध प्रदर्शन करते छात्र

दिल्ली हाईकोर्ट में यह मामला जस्टिस रविंद्र भट्ट और जस्टिस ए.के. चावला की पीठ ने सुना। याचिका गौरव भारद्वाज ने दायर की थी। अदालत में जहां जेएनयू की ओर से मोनिका अरोड़ा,  हर्ष आहूजा, कुशल कुमार और विभा त्रिपाठी ने दलीलें रखीं तो यूजीसी की ओर से वरिष्ठ वकील जेपी सेन के साथ मनोज आर. सिन्हा, मनीषा मेहता, वैशाली तनवार और मृग्न शेखर थे।

गौरतलब है कि यूजीसी रेगुलेशन 2016 में आरक्षित वर्ग को कोई भी रियायत नहीं दी गई है। इस पर अदालत ने कहा है कि यह रेगुलेशन सीधे-सीधे आरक्षित वर्ग की अवहेलना करता है। अदालत ने जेएनयू प्रशासन और यूजीसी को कहा है कि पिछले दो अकादमिक वर्षों से अब तक जितनी सीटें भरी गई हैं उनमें आरक्षित वर्ग को रियायत दें। अदालत ने जेएनयू प्रशासन को कहा है कि प्रशासन इस बात को सुनिश्चित करे कि किसी भी अकादमिक वर्ष में कोई भी एमफिल और पीएचडी की सीटें खाली ना रहे।

यूजीसी के फैसले से 657 छात्र हो गये थे वंचित

कोर्ट ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रशासन और यूजीसी के रवैये पर गहरी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यूजीसी के रेगुलेशन 2016 को लागू करने में जानबूझकर या फिर ठीक से लागू न किए जाने के चलते अच्छी खासी तादाद  (657) में छात्रों को वंचित कर दिया गया। कोर्ट ने कहा कि जेएनयू रेगुलेशन को अपने हिसाब से यूजीसी के नियम का मूल्यांकन करने और लागू करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है।

दिल्ली हाईकोर्ट

2016 की अधिसूचना 5.4 के अनुसार एमफिल या पीएचडी पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए दो चरण की प्रक्रिया तय की गई थी जिसमें पहले उम्मीदवार को लिखित परीक्षा (कम से कम 50% अंक) प्राप्त करना होते थे और फिर इसके बाद वाइवा यानी इंटरव्यू होने चाहिए थे। लेकिन अब उम्मीदवार को पूरी तरह से वाइवा के आधार पर सफल घोषित कर दिया गया। लिखित परीक्षा के अंकों को किसी भी तरह का वेटेज नहीं दिया गया। इंटरव्यू बोर्ड या चयन बोर्ड उम्मीदवार के ज्ञान, उनकी योग्यता, संवाद करने की क्षमता, पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन आदि का कोई आकलन नहीं किया।

वाइवा के आधार पर प्रवेश पूर्वाग्रह से प्रेरित

न्यायालय ने पाया कि सिर्फ वाइवा यानी इंटरव्यू में उम्मीदवार के प्रदर्शन को पूरा वेटेज दिया गया। यानी छात्र के भविष्य और उनका दाखिला सिर्फ इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों के आकलन पर निर्भर हो गया। कोर्ट ने कहा कि विवेकाधिकार,जहां भी मुमकिन है, उसे कम किया जाना चाहिए खासकर अकादमिक संस्थानों में प्रवेश की जब बात हो। स्कालर्स अपने क्षेत्र में प्रतिभावान होते हैं, में कोई संदेह नहीं हैं हालांकि उनको भी बुनियादी आधारों से बाहर जाने की छूट नहीं मिल जाती है।

कोर्ट  ने यह भी कहा कि  “प्रवेश के लिए जिस पैटर्न और प्रक्रिया को अपनाया गया जहां साक्षात्कार प्रक्रिया में 100 फीसद पूरा वेटेज दिया गया है, वहां पूर्वाग्रह की संभावना और एससी/ एसटी और अन्य आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना भी सुस्पष्ट और वास्तविक दिखता है।”

जेएनयू शिक्षक संघ ने किया फैसले का स्वागत

जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय शिक्षक संघ ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया और कहा कि एमफिल/पीएचडी दाखिलों में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को फौरन लागू किया जाए। साथ ही शिक्षक संघ ने ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा को लेकर विरोध भी दर्ज किया है। शिक्षकों ने कहा लिखित परीक्षा में आरक्षित श्रेणी एससी एसटी और ओबीसी के उम्मीदवारों और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को मिनिमम क्वालिफाइंग मार्क्स में छूट देनी शुरू की जानी चाहिए।

सोनाझरिया मिंज, अध्यक्ष, जेएनयू शिक्षक संघ

संघ की अध्यक्ष सोनाझरिया मिंज ने कहा, “अदालत ने शिक्षक संघ की उस बात पर मुहर लगा दी है जिसमें शिक्षक संघ ने कहा था कि रेगुलेशन को लागू किए जाने से पहले विशेषज्ञ समिति इसे देख ले कि कहीं रेगुलेशन से आरक्षित तबके के हित प्रभावित तो नहीं हो रहे हैं। मिंज ने कहा कि जेएनयू शिक्षक संघ अदालत के फैसले के साथ है।”

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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