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सवर्ण देवी-देवताओं की पूजा में जुट रहे दलित-बहुजन

हम जिस गांव की बात कर रहे हैं, वहां सवर्ण बस्ती भी है। लेकिन इस बार दशहरा के मौके पर उस बस्ती में दुर्गा की कोई प्रतिमा नहीं बिठायी गयी। पूरे गांव में केवल दो लोगों के यहां दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया। एक दीपचंद तो दूसरे रघुनाथ नामक व्यक्ति के नेतृत्व में कुर्मी बस्ती में। फारवर्ड प्रेस की खबर

जहां एक ओर आंबेडकरवाद द्विज परंपराओं को पूरी तरह खारिज करता है वहीं दूसरी ओर दलित-बहुजन बस्तियों में सवर्ण परंपराओं का अनुसरण किया जा रहा है। ऐसा ही एक नजारा बीते दशहरा के दौरान उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के फूलपुर तहसील के एक बस्ती बाबाूगंज पाली में देखने को मिली जहां दलित समुदाय के लोग रहते हैं। दीपचंद नामक एक व्यक्ति ने सवर्ण देवी दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की और इस पूरे आयोजन में हजारों रुपए फूंक डाले।

दलितों में सवर्ण देवी-देवताओं के प्रति अाकर्षण का ही परिणाम रहा कि इस मुहल्ले में दशहरा के मौके पर भारी भीड़ रही। चूंकि अधिकांश मजदूर हैं, इसलिए आरती वगैरह का आयोजन देर रात किया जाता था। दीपचंद स्वयं डेकोरेटर का काम करता है। पूरे आयोजन में कुल कितना खर्च हुआ और यह पैसा आया कहां से, इस सवाल पर दीपचंद गोलमटोल जवाब देते हुए कहते हैं, “डीजे का इंतजाम, पंडाल और प्रतिमा आदि में बीस हजार रुपए से अधिक का खर्च हो जाता है। इसमें से कुछ रुपए तो चढ़ावे में ही वापस आ जाते हैं और बाकी सब दुर्गा की कृपा से हो जाता है।”

दुर्गा पूजा के आयोजन में जुटीं दलित-बहुजन महिलाएं

दीपचंद भले ही दुर्गा पूजा के आयोजन में हजारों रुपए दिल खोलकर खर्च करता है, लेकिन उसकी अपनी माली हालत बहुत बुरी है। उसके बच्चे अर्थाभाव में सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं।

हम जिस गांव की बात कर रहे हैं, वहां सवर्ण बस्ती भी है। लेकिन इस बार दशहरा के मौके पर उस बस्ती में दुर्गा की कोई प्रतिमा नहीं बिठायी गयी। पूरे गांव में केवल दो लोगों के यहां दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया। एक दीपचंद तो दूसरे रघुनाथ नामक व्यक्ति के नेतृत्व में कुर्मी बस्ती में। गांव के बाहर वैश्य समुदाय के लोगों द्वारा दो स्थानों पर दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया। गांव में रामलीला आयोजन की परंपरा है। पिछले 40 वर्षों से यह आयोजन होता रहा है।

अब गांव में आर्केस्ट्रा व जगराता का दौर बढ़ गया है। ऐसा केवल उत्तर प्रदेश के फूलपुर जिले के इस गांव में ही नहीं हो रहा, बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस तरह का चलन बढ़ा है। यह परिवर्तन पिछले 4-5 वर्षों की देन है।

दलित-बहुजनों में बढ़ रहा द्विज परंपराओं के प्रति आकर्षण : बिहार के नालंदा जिले के इस्लामपुर में कलश यात्रा में शामिल महिलाएं। इनमें अधिकांश महिलाएं दलित-बहुजन समाज की रहीं (फोटो साभार : दैनिक जागरण

यह सिर्फ दुर्गा पूजा का ही मसला नहीं है। गांव में पिछले कई सालों में दलित समुदाय के लोगों द्वारा और भी कई ब्राह्मणवादी देवी देवताओं और रीतिरिवाजों को अपनाते देखा गया है। जैसे कि भारतीया (पासी) बस्ती के दो लड़कों के सेना में भर्ती होने के बाद उनके परिजनों ने विधिवत डीजे के साथ बंधवा के हनुमान और पंडिला महादेव को जोड़ा निशान चढ़ाया और भंडारे का आयोजन करवाया था। जिसमें उन्होंने लाखों रुपए खर्च किए थे। पहले इस तरह के रीति रिवाज सिर्फ सवर्णों के यहां ही देखे जाते थे।

बहरहाल, दलित-बहुजनों में द्विज परंपराओं के प्रति बढ़ता आकर्षण इस बात का संकेत देते हैं कि आज के दलित-बहुजन अपनी खुद की संस्कृति को त्याग द्विजों की उस संस्कृति के प्रति आसक्त होते जा रहा हैं जो सदियों से उनके शोषण का पर्याय रहा है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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