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जानें, दिल्ली के इस स्लम बस्ती से कैसे सुलगी दलित साहित्य आंदोलन की चिंगारी

जैसे सत्तर के शुरुआती दशक में मुंबई के स्लम धारावी की कोख से मराठी दलित साहित्य एवं दलित पैंथर्स आंदोलन का जन्म हुआ वैसे ही दिल्ली के सबसे बड़े स्लम शाहदरा ने दलित साहित्य आंदोलन को पाला-पोसा है। डॉ. कुसुम वियोगी का लेख :

हिंदी दलित साहित्य आंदोलन के लिहाज से मुम्बई का ‘धारावी’ है पूर्वी दिल्ली का शाहदरा

गए दिनों जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. हेमलता माहेश्वर अपने शोधकर्ता छात्र के साथ मेरे घर आई थीं। तब उनके साथ दलित साहित्य आंदोलन के इतिहास पर बातों-बातों में एक गंभीर चर्चा हुई। पहली पीढी के रचनाकारों के संघर्ष को सुन/जानकर वो इतनी अचंभित हुईं कि यकायक उनके मुख से निकल पड़ा कि पूर्वी दिल्ली का शाहदरा क्षेत्र तो दलित साहित्य के विकास, प्रचार और प्रसार के लिहाज से जैसे मुम्बई ‘धारावी’ है। उसी दिन दैनिक जागरण में छपी खबर के जरिए यह भी जानने को मिला कि विश्व विख्यात मुक्केबाज माइक टायसन ने कहा कि वे झुग्गियों से आते हैं: स्टार टायसन ने यह भी कहा कि उनकी इच्छा ताजमहल व मुंबई की ‘धारावी’ को देखने की  है। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों रजनीकांत की फिल्म ‘काला’ देखी तो झोपड़पट्टी से उठी ज्वालामुखी को काले, लाल रंग में फटते देखा और देखते ही देखते समता व स्वतंत्रता की विजय चाहत से पूरा ‘धारावी’ जनसमूह धरती आसमान सहित नीला-नीला दिखने लगा !

मराठी दलित साहित्य मुंबई की झोपड़पट्टी से ही उभरा थाI दलित पैंथर के कारण ही दलित साहित्य अपनी अस्मिताओं के प्रखर सवालों को केंद्र मे रख आंदोलनात्मक स्वरुप ले सका और सत्तर के दशक की शुरुआत में परम्परावादी साहित्य के सामने गंभीर चुनौती खडी कर दी। यहां यह बताना मैं जरूरी समझता हूँ कि यथोक्त प्रकरण ने ही इस लेख को लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया है। यह भी कि मुंबई का ‘धारावी’ क्षेत्र एशिया का सबसे बडा झोपड़पट्टी का स्लम एरिया था जहां से शोषण के खिलाफ मोर्चा लगा आवाज उठाने वालो में विश्व विख्यात लोककवि/ शायर अन्नाभाऊ साठे, बाबूराव बाबुल, अर्जुन डांगले, पदमश्री दया पंवार प्रमुख कवि/लेखक रहे हैं, जिन्होनें दलित पैंथर की नींव रखी। बाद में  मुंबई, नागपुर, नासिक, औरंगाबाद आदि केन्द्र इनके कार्यक्षेत्र बने जिनके बीच एक प्रमुख कवि नामदेव ढसाल का नाम दलित पैंथर आंदोलन के बीच से उभरा। यह वह दौर था जब दलित साहित्य ने व्यवस्था के विरूद्ध परम्परावादी साहित्यकारों को खुली चुनौती दी और लोकशाही में अपने बुनियादी हकूक के सवालों को गंभीरता से उठाया था।

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इसी प्रकार हिन्दी पट्टी में पूर्वी दिल्ली का शाहदरा क्षेत्र दलित साहित्य आंदोलन का केन्द्र ही नहीं रहा बल्कि भारत की राजनीतिक राजधानी को नाना प्रकार से प्रभावित करता रहा है। जहां से रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, भारतीय बौध्द महासभा और समता सैनिक दल आदि द्वारा समय-समय पर जनांदोलन मोर्चा आज भी लगते रहते हैं! शाहदरा से इस क्षेत्र की सबसे अधिक भागीदारी हमेशा से रही है।

सही मायने में पूर्वी दिल्ली का शाहदरा क्षेत्र उत्तर भारत में हिंदी दलित साहित्य आंदोलन के लिहाज से मुम्बई  का यह ‘धारावी” केंद्र ही कहा जा सकता है। आज यहां एक ‘ साहित्यकार चौक’ भी है जहां दैनिक रुप से क्षेत्रीय साहित्यकारों की बैठकी होती हैं।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

उपेक्षित बहुसंख्यकों की आवाज ही दलित साहित्य आंदोलन है जो बुध्द, कबीर, फूले, डॉ.अम्बेडकर की विचारधारा को केन्द्र में रखकर दुनिया में सामाजिक न्याय हेतु दस्तक दे रहा है। बात सत्तर के दशक की है जब दिल्ली का शाहदरा  खेतिहर क्षेत्र हुआ करता था। जिसमें नयी-नयी रिहायशी कॉलोनियां बस रही थीं। उत्तर भारत के लोग दिल्ली में सरकारी नौकरियों के लिए आए तो कुछ देवनगर, बापा नगर में किराए पर रहने लगे तो कुछ सरकारी नौकरियों के कारण अपनी स्थायी छत के लिए रिहायशी जगह ढूंढने लगे और शाहदरा में आकर उत्तर प्रदेश व अन्य प्रदेशों के लोग जमीन खरीद कर बसने लगे तो कुछ सरकारी क्वार्टरों मे रहने लगे।

शाहदरा क्षेत्र मे ‘ गोवर्धन बिहारी’ एक विख्यात नाम था। जो दो व्यक्ति और एक शरीर (आत्मा) के नाम से जाने जाते थे। जो दलित समाज के समाज सुधारक जनकवि थे। जिनका लोहा समकालीन साहित्यकार मसलन, संस्कृत के उद्भट विद्वान भरत राम भट्ट, पदमश्री क्षेम चंद सुमन, कैलाश चंद तरुण, हंसराज रहबर,पं त्रिलोक चंद ‘आजम’, आचार्य चतुरसैन शास्त्री, फतेहचंद शर्मा ‘आराधक’, डॉ.विजेन्द्र स्नातक, पदमश्री डा.श्याम सिंह ‘शशी’ , डॉ.बृजपाल सिंह संत, डॉ. जगन्नाथ हंस, डॉ.शंकर देव अवतरे, मदन विरक्त, डॉ.धर्मवीर शर्मा आदि मानते थे। आचार्य जनकवि बिहारी लाल हरित जहां समाज सुधारक कवि थे तो उनके संपर्क  बाबा साहब डॉ. अांबेडकर व बाबू जगजीवन राम से भी घनिष्ठ रहे थे। जिनके नाम से ‘गोवर्धन बिहारी कालोनी’ शाहदरा में बसी है।

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बाद के दिनों में यमुनापार, शाहदरा में सादतपुर कालोनी, दयाल पुर में बसीं। यहां बाबा नागार्जुन आकर बसे और उनसे प्रभावित लोगों/साहित्यकारों ने आकर जमीन खरीदकर अपने निजी मकान बनाये जिनमें हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक, महेश दर्पण, डॉ. माहेश्वर, अरविंद कुमार सिंह, सुरेश सलील, रुपसिंह चंदेल आदि जनवादी विचारधारा के लेखक /पत्रकार आदि शामिल रहे। इसका एक कारण एशिया का प्रिंटिंग प्रकाशन का उद्योग नवीन शाहदरा में होना भी था। आज भी यमुनापार में प्रकाशकों की भरमार है। उत्तर भारत का हिन्दी साहित्य ज्यादातर यही छपता है।

एक तरफ परम्परागत साहित्यकार थे तो दूसरी तरफ प्रगतिशील जनवादी साहित्यकार, इसी में एक तीसरी धारा के दलित साहित्यकार अपना साहित्यिक दबदबा बनाए हुए थे। इस त्रिवेणी धारा में आपसी साहित्यिक तालमेल हमेशा बना रहा और साहित्यिक विमर्श /चर्चा परिचर्चा/कवि-सम्मेलन आदि चलते रहते थे। यहां अनेक साहित्यिक संगठनों द्वारा आयोजन समय-समय पर आयोजित किए जाते रहते थे जो परम्परा अब कम होती जा रही है।

जनकवि बिहारीलाल हरित के साथ रजनी तिलक (दाएं), कंवल भारती (बाएं) और इस लेख के लेखक कुसुम वियोगी (पीछे) (फोटो साभार : कंवल भारती)

आचार्य जनकवि बिहारी लाल हरित के सान्निघ्य में अनेक दलित साहित्यकारों ने आज अपने लेखन से राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। जिनमें एल.एन. सुधाकर, एन.आर. सागर, डॉ. राजपाल सिंह ‘राज’, डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, यादकरण याद, कवि/पत्रकार व ख्यात आलोचक तेजपाल सिंह ‘तेज’,  इंजीनियर श्याम सिंह, आलोचक कंवल भारती, बुध्द संघ प्रेमी, नत्थू सिंह ‘पथिक’, जसराम हरनोटिया, मंशा राम विद्रोही, रामदास शास्त्री, आर.डी.निमेष, मोतीलाल संत, कर्मशील अधूरा, बी.डी.सुजात, अनुसूईया ‘अनु’ ,धनदेवी, आनंद स्वरुप, के.पी. सिंह आदित्य, जालिम सिंह ‘निराला’ , मान सिंह ‘मान’, लख्मी चंद सुमन,महताब सिंह ‘अचल’आदि नाम प्रमुख हैं। वर्तमान में डा. जयप्रकाश कर्दम, ईश कुमार गंगानिया, शीलबोधी, राजेश कुमार हरित, रुप चंद गौतम पत्रकार आदि इसी क्षेत्र से दलित साहित्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दिल्ली का शाहदरा : इस स्लम में सिंचित हुआ दलित साहित्य

1984 में भारतीय दलित साहित्य मंच व भारतीय दलित साहित्य अकादमी का गठन किया गया तो  15,अगस्त 1997 को दलित लेखक संघ (दलेस) का गठन भी यमुनापार शाहदरा, रामनगर विस्तार अवस्थित मेरे ही निवास व प्रयास पर अनेक सहयोगी साहित्यकारों के सहयोग से हुआ था। वर्ष 2001 में मेरे चंडीगढ़ नियुक्ति के दौरान डा. आंबेडकर स्टडी सर्कल चंडीगढ़ के माध्यम से 21वीं शताब्दी का प्रथम दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें देश-विदेश से लगभग 450 अकादमिक व गैर-अकादमिक सामाजिक कार्यकर्ता कवि लेखक साहित्यकारों ने भाग लिया था, जिसमें मुकेश मानस द्वारा ख्यातिनाम दलित कवियों की कविताओं की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी थी। जिसका कोआर्डिनेटर लेखक स्वयं रहा। रजनी तिलक व अश्वनी कुमार ने इस आयोजन में अपनी महती भुमिका निभाई।

उल्लेखनीय है कि इस दो दिवसीय कार्यक्रम का मंच संचालन तेजपाल सिंह ‘तेज’ द्वारा ही किया गया। इस प्रकार  दलित साहित्य पूरी शिद्दत के साथ पूरे भारत मे छा गया। इस आयोजन मे विशेष रुप पंजाब के क्रांति चेता कवि लाल सिंह ‘दिल’ को आमंत्रित किया गया था। बाद के  दिनों में दलित लेखक संघ के बैनर तले डॉ. तेज सिंह के अध्यक्ष रहते उनके नेतृत्व में दो-तीन सेमिनार भी आयोजित किए गये। डॉ. तेज सिंह के संपादन में दलित लेखक संघ की केन्द्रीय पत्रिका ‘अपेक्षा’ भी निकली। दलित साहित्य के मूल मे डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी ही सर्व स्वीकार्य है, जो विषमता मूलक समाज में सदैव केंद्र मे रहेगी। बकौल डॉ. विमलकीर्ति – “प्रगतिशील लेखक आधुनिक काल के बाद को उत्तर आधुनिक काल /उत्तर सती कह कर अपने लेखन को आगे बढाते हैं तो अम्बेडकरवादी दलित साहित्यकार आधुनिक काल के बाद के काल को अर्थात 1947 से “प्रश्नोत्तर काल का साहित्य ( सन् 1947 से आज तक ) मानते है।”

दलित साहित्यकारों ने समाज की जड़ता व विद्रूपताओं पर करारा प्रहार किया है, जो दलित उत्पीडित समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, धार्मिक व राजनीतिक प्रश्नों को लेकर व्यवस्था के सामने बेबाक हो, अपनी अस्मिताओं के संरक्षण के सवालों को लेकर आज भी खडे हुए हैं और सतत लिख रहे हैं। दलित साहित्य सही अर्थो मे व्यवस्था परिवर्तन के साथ जातिविहीन, वर्गविहीन समाज की स्थापना को संघर्षरत साहित्य ही है।

राजनीतिक आंदोलन की जमीन तैयार करने मे आंबेडकरवादी साहित्यकारों की महती भूमिका को कभी भुलाया व नकारा नहीं जा सकता। आज दलित साहित्य पूरे देश व दुनिया में अपनी दस्तक ही नहीं दे रहा है बल्कि शैक्षिक पाठ्यक्रमों मे शामिल कर देश-विदेशों मे पढाया भी जा रहा है। आज पुस्तकों के बाजार में तीसरी धारा के दलित साहित्य को पढने वालों का एक व्यापक पाठक वर्ग उभर कर सामने आया है जो अपनी अस्मिता के सवालों को इस साहित्य मे खोजता  है और पढ-लिखकर सामाजिक न्याय आंदोलन का सूत्रधार भी बनता है। आज दूसरी पीढी के अनेक कवि/ कवियत्री व लेखक/पत्रकार साहित्यकारों ने अपनी मजबूत दस्तक देनी शुरू कर दी है जो एक समतामूलक समाज के निर्माण हेतु अच्छा संकेत है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

कुसुम वियोगी

दलित साहित्यकार कुसुम वियोगी हिंदी अकादमी, दिल्ली के सदस्य हैं

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