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डीयू : इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध ही क्यों, अन्य धर्म क्यों नहीं?

दिल्ली विश्वविद्यालय में लेखकाें की किताबें हटाने काे लेकर घमासान मचा हुआ है। विश्वविद्यालय के सिलेबस से बहुजन लेखक कांचा आयलैया की तीन किताबें बाहर करने के प्रयास के बाद इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर बवाल मचा है और कुछ प्राेफेसर्स दूसरे धर्माें की किताबें पढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :    

सिलेबस से किताबें हटाने व जोड़ने में पिक एंड चूज का आरोप

  • कुमार समीर

देश के प्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में सिलेबस से किताबें हटाने और जोड़ने की कवायद चल रही है। लेकिन, वहीं पिक एंड चूज का आरोप लगाकर सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं। बहुजन लेखक कांचा आयलैया की तीन किताबों को पाठ्यक्रम से हटाने के प्रस्ताव पर अभी जहां चौतरफा विरोध हो रहा है, वहीं पाॅलिटिकल साइंस के स्नातकोत्तर स्तर पर इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध को पढ़ाने के प्रस्ताव पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। आलोचकों का कहना है कि सिर्फ इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध ही क्यों पढ़ाए जाने चाहिए और  अन्य धर्मों को क्यों छोड़ा जाना चाहिए?
दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल (एसी) की सदस्य डाॅ. गीता भट्ट ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में बताया कि उन्होंने तो स्टैंडिंग कमेटी की बैठक में प्रस्ताव लाए जाने के साथ ही सवाल खड़ा किया था कि हम अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में अन्य धर्मों- हिंदू, बौद्ध व ईसाई धर्म का अध्ययन क्यों नहीं कर सकते?  उनके मुताबिक, जब इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर कोर्स तैयार हो सकता है, तो फिर अन्य धर्मों पर भी इसी तरह के कोर्स तैयार क्यों नहीं किए जा सकते हैं?  एकेडमिक काउंसिल सदस्य ने कहा कि अगले महीने होने वाली एकेडमिक काउंसिल की बैठक में जब यह प्रस्ताव लाया जाएगा, तब वह इसका पुरजोर विरोध करेंगी कि कोर्स को सीमित दायरे में न रखकर वृहद दायरे यानी सभी धर्मों को जोड़ते हुए तैयार किया जाए।

दिल्ली विश्वविद्यालय

बहुजन लेखक कांचा आयलैया, जिनकी खुद की तीन किताबें कोर्स से बाहर करने का प्रस्ताव लाया गया है, उन्होंने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि शिक्षण क्षेत्र में पिक एंड चूज की जो परंपरा शुरू होती हुई नजर आ रही है, वह घातक है। और समय रहते अगर हम सब नहीं चेते, तो शिक्षण पद्धति का बंटाधार होना तय है। उनके मुताबिक, कोई भी कोर्स तैयार किया जाता है, तो उसके दायरे को वृहद रखा जाता है, ताकि उसके निगेटिव व पाॅजिटिव दोनों पक्षों की समझ बच्चों में डेवलप हो सके। लेकिन, आज ऐसा नहीं होने दिया जा रहा है। इसलिए इसे जड़ से ही खत्म कर दो। जड़ से खत्म करने की परंपरा ही असली परेशानी है और जब तक इस पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक यही हाल रहेगा। कभी हमारी पुस्तकें सिलेबस से हटाई जाएंगी, तो कभी आधे-अधूरे कोर्स तैयार करके छात्रों को परोसे जाएंगे।    

कांचा आयलैया, जिनकी तीन किताबाें पर राेक लगाने पर मचा घमासान

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व समाजवादी शिक्षक मंच के सदस्य शशि शेखर सिंह ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि पाठ्यक्रम से एक तरफ क्रिटिकल किताबों को हटाने की कोशिश की जा रही है। वहीं, दूसरी तरफ अगर आधी-अधूरी चीजों को परोसकर कोर्स तैयार किए जा रहे हैं। इससे विश्वविद्यालय के स्तर पर भी बुरा प्रभाव पड़ने का खतरा है। हमें बड़े प्राॅसपेक्ट्स में चीजों को तैयार करना चाहिए, न कि सीमित दायरे में रहकर। इस तरह का कोई भी प्रयास बिलकुल सफल नहीं होने दिया जाएगा। जहां तक इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर कोर्स तैयार करने की बात है, तो यह अच्छा प्रयास है। क्योंकि, वैश्विक स्तर पर क्या कुछ चल रहा है, इसकी जानकारी जरूरी है। लेकिन, यह भी देखा जाएगा कि दायरा क्या रखा गया है? सीमित दायरे में अगर कोर्स तैयार किया गया होगा, तो उसका पुरजोर विरोध करेंगे। जो आपत्तियां हैं, उसके लिए एक्सपर्ट की राय ली जाएगी और उसके बाद ही निर्णय लिया जाएगा।

हालांकि, दिल्ली विश्वविद्यालय के पाॅलिटिकल साइंस विभाग की हेड डाॅ. वीणा कुकरेजा से जब फारवर्ड प्रेस ने बात की, तो उनका कहना है कि विभाग ने एक्सपर्ट की राय लेकर इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर कोर्स का खाका तैयार करवाया है। इसलिए आपत्ति जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए। बैठक में एक-दो सदस्यों ने आपत्ति व्यक्त की थी, जिसे एक्सपर्ट के समक्ष रखा जाएगा और एक्सपर्ट के जरिए उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश की जाएगी।    

वहीं, इस बाबत जब इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विषय पर कोर्स तैयार करने वाले प्रोफेसर संजीव कुमार से फारवर्ड प्रेस ने बात की, तो उन्होंने भी कहा कि स्टैंडिंग कमेटी की बैठक में जो सुझाव आए हैं, उन पर विचार किया जा सकता है और अन्य धर्मों को दूसरे संदर्भों में पढ़ाया जा सकता है। जैसे- उत्तर धर्मनिरपेक्ष विश्व में धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन (comparative religions in post secular international relations) पर एक कोर्स। लेकिन, यह एक अलग ही मुद्दा होगा। हम इस्लाम की तरह अन्य धर्मों और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर पूरा कोर्स तैयार नहीं कर सकते। क्योंकि, विचारों को लेकर जिस स्पेस की संभावना इस्लाम में है, वह अन्य धर्मों में नहीं है।

प्रोफेसर कुमार के मुताबिक, इस्लाम और अंतर्राष्ट्रीय संबंध पर स्टडी की काफी मांग है और इसके कई कारण भी हैं। दुनिया में जो कुछ हो रहा है, अंतर्राष्ट्रीय संबंधाें का पूरा कोर्स, सब कुछ इसी पर आधारित है कि इस्लाम क्या है और इसे बचाना या इसके लिए लड़ना क्यों जरूरी है? इस कोर्स की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय संबंध का संबंध सिर्फ दो देशों के संबंधों से नहीं है, बल्कि यह दो देशों की संस्कृति, उनकी पहचान और उनके बीच के अंतर से है। पाठ्यक्रम छात्रों को यह समझने में मदद करने के लिए है कि कैसे इस्लामोफोबिया की अवधारणा समकालीन वैश्विक मामलों का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है? इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में धर्म कैसे विकृत हो गया है? अन्य धर्मों की तुलना में इस्लामिक अतिवाद क्यों इतना फैला?

ये तो अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन, हकीकत में देखा जाए, तो विश्वविद्यालयों में जिस तरह के फैसले इन दिनों लिए जा रहे हैं। चाहे वह डीयू हो या जेएनयू या फिर वाराणसी का बीएचयू, उसे शिक्षण पद्धति के लिए तो कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता है। अविश्वास बढ़ा है और जरूरत इसे समय रहते पाटने की है। क्योंकि, शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के ही एक बड़े वर्ग ने इस तरह के कदम का विरोध करना शुरू कर दिया है। और अगर इनका विरोध एकजुट होकर वृहद पैमाने पर होना शुरू हो गया, तो फिर शिक्षण माहौल के लिए कतई अच्छा नहीं रहेगा। विश्वविद्यालय प्रबंधन व सरकार को इस पर गौर करना होगा।

(काॅपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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