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गुजरात से पीटकर भगा दिए एक दलित बिहारी की व्यथा-कथा

गुजरात में रहने वाले बिहारवासियों और उत्तर प्रदेश के लोगों को पीटा जा रहा है। उन्हें भगाया जा रहा है। सरकारें मौन हैं। क्या इसकी वजह केवल यह है कि केंद्र के साथ-साथ गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में एक ही राजनीतिक खेमे एनडीए की सरकर है? इस राजनीतिक सवाल से इतर एक दलित बिहारी की व्यथा

क्या यह मेरा कसूर है कि मैं बिहारी हूं? नहीं, नहीं यह सच नहीं। मेरा असली कसूर तो यह है कि मैं गरीब बिहारी हूं और साथ ही दलित भी हूं। अब तो मुझे बिहार में नीतीश बाबू ने महादलित का भी तमगा दे दिया  है। रोजी-रोटी, थोड़े से सुख और छोटे-छोटे सपने पूरे करने के लिए देश के इस कोने से उस कोने तक दर-बदर-भटकता रहता हूं। मेहनत-मजदूरी करता हूं। हर वह काम करने को तैयार रहता हूं जिससे दो पैसा मिल सके। भले ही उस काम को कितना ही गंदा  ठहरा गया हो, गर्हित माना गया हो और उसमें जान जाने का जोखिम क्यों न हो। आप ने सुना ही होगा, बिना किसी सुरक्षा उपकरण के मैं सेप्टी टैंक और गटर में उतर जाता हूं। यह सब कुछ करने के बाद भी अपमानित होना, पीटा जाना और गालियां सुनना मेरी नियति बन गई है। अब पटना में बैठकर भले ही हमारे सूबे के मुख्यमंत्री बिहारी अस्मिता की बात करें, इसका सच तो हम ही भुगतते हैं।

आजकल मैं गुजरात में पीटा जा रहा हूं। केवल मैं ही नहीं, मेरे बाल-बच्चे भी। बड़े अरमान से गुजरात आया था, भूख, गरीबी और जहालत से छु्ट्टी पाने।  इस बार पत्नी और बच्चों को साथ लेते आया था। बच्चों का यहां सरकारी स्कूल में दाखिला कर दिया था। एक छोटे कमरे में थोड़े से सुकून से रह रहा था। दिवाली आने वाली थी। गुजरात के बड़े लोगों के घरों की  रंगाई-पुताई काम जोर-शोर से चल रहा रहा है। मैं भी रंगाई-पुताई करता था। यह कमाई का समय था। अचानक भीड़ का रेला आया। मां-बहन को गालियां देते हुए कहने लगा, बिहारी हो। वे लोग पीटने लगे। मैं आवाक् रह गया। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? मेरी पत्नी डर के मारे कांपने लगीं,  बच्चे चिल्लान लगे। पीटने वाले मेरे गुजराती भाईयों ने फिर कहा – गुजरात छोड़कर भाग जाओ ,नहीं तो खैर नहीं है।

सूरत स्टेशन पर किसी तरह जान बचाकर वापस जा रहे लोगों की भीड़

मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। जान बचेगी तो दो रोटी कहीं और कमा लेंगे। मैं जल्दी-जल्दी सामान समेटने लगा। बस स्टेशन पंहुचा, मेरे जैसे हजारों बिहारी भाई वहां पहले से मौजूद थे। उनको भी पीटा गया था, गालियां दी गई थी, गुजरात छोड़कर भाग जाने के लिए कहा गया था। सबके चेहरे पर दहशत और आतंक का असर था। किसी तरह जान बचाकर भाग निकलने की जुगत में हम सभी लगे थे। डर लग रहा था कि कहीं हमारे साथ भी वहीं न हो जाए, जो 2002 के दंगों में मुसलमानों के साथ हुआ था। हम सब एक-दूसरे से सवाल कर रहे थे। हमारा कसूर क्या है? हमने तो गुजरात को गुजरात बनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तो यही कहते हैं जब वे बिहार जाते हैं।

वैसे देश के किसी हिस्से में पीटा जाना या वहां से भगाया जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पहले मुंबई में भी मैं कई बार पीटा जा चुका हूं और वहां से  भगाया जा चुका हूं। लेकिन हम बिहारी गरीबों के पास कोई रास्ता नहीं। पेट है, तो पेट की आग है, मां-बाप हैं, छोटे भाई-बहन और पत्नी-बच्चों के पास भी पेट है और उनके पेट में भी आग है। इस आग के बुझाने के लिए देश का कोई ऐसा कोना नहीं है, जहां हम गरीब बिहारी न हों। उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम हर जगह हम आपको दिख जायेंगे। जिसे छोटा काम कहते वह सब हम करते  हैं।

नीतीश संग नरेंद्र मोदी : कब आयेंगे बिहारवासियों के अच्छे दिन?

ऐसा नहीं है कि हमें गुजरात में ही अपमानित किया जा रहा है, मारा-पीटा जा रहा है। हमारे अपमान की शुरूआत हमारे अपने बिहार के उस रेलवे स्टेशन से ही हो जाती है, जहां हम देश के अलग-अलग कोनों में जाने के लिए ट्रेन पकड़ते हैं। आप ने देखा होगा कि हम जनरल डिब्बे में चढ़ने के लिए लंबी लाइन घंटों पहले लगा लेते हैं। हमारे बिहारी पुलिस भाई गालियों की बौछार वहीं से शुरू कर देते हैं। मां-बहन-बेटी को लगाकर गालियां देते हैं। हट कायदे से लाइन में खड़ा हो। लाइन बिगाड़ रहे हो। फिर हम किसी तरह डिब्बे मे ठूंसे जाते हैं, कई बार खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती। आप ने देखा होगा कि हममें से कई जो अपने बाल-बच्चों के साथ जाते हैं, वे ट्रेन के शौचालय में अपने परिवार को बैठा देते हैं। दो-तीन दिन की यात्रा हम ऐसे ही भेड़-बकरियों की तरह करते हैं। यह बिहार से आने वाली ट्रेनों के रोज का दृश्य़ है। हम गरीब मेहनतकश मजदूरों से भरी कई ट्रेने रोज देश के अलग- अलग कोनों में जाती हैं।

हमारा दुर्भाग्य ट्रेनों का नाम बता देती हैं। गुजरात में बुलेट ट्रेन की योजना बन रही है। हमारे यहां जाने-आने के लिए गरीब रथ है, जन साधारण है, श्रमजीवी है। हां, हम श्रमजीवी हैं। जन साधारण ही हैं। तभी तो जिन शहरों में हम जाते हैं, उनके स्लम या उससे बदतर कोई जगह हमें रहने को मिलती है। आप लोगों में शायद किसी ने मुंबई में हमारे रहने की जगह देखी होगी। कोई इंसान उन जगहों को देखकर कांप उठेगा। जहां हगना-मूतने की जगह तलाश करना भी एक चुनौती है।

क्या हमारा अपमान मुंबई, गुजरात या दक्षिण के किसी राज्य में ही केवल होता है, नहीं हम गरीब बिहारी हर जगह अपमानित होते हैं। दिल्ली में हमारा कम अपमान होता है क्या?। यहां रिक्शे वाले के लिए बिहारी संबोधन है, अबे ओ बिहारी। कौन दिल्ली की बात करे। बिहार से सटे गोरखपुर और आस-पास के जिले हैं। यहां लोग भईया के रूप में हमारे साथ ही देश-देश के कोने-कोने में काम करते है, अपमानित होते हैं, भगाए जाते हैं, लेकिन जब हम इनके शहर में रिक्शा चलाते है या अन्य कोई छोटा-मोटा काम करते हैं, तो यहां भी हमें बिहारी कहकर अपमानित किया जाता है।

बिहार आने-जाने वाली ट्रेनों में अक्सर दिखता है यह दृश्य

ऐसा नहीं है कि सभी बिहारी अपमानित होते हैं, इस समय भी गुजरात में  पैसे वाले और रसूख वाले बिहारी भी हैं, उनको कोई कुछ नहीं कह रहा है। जब हम मुंबई से भगाए जा रहे थे, तो वहां भी जाने-माने और धनाढ्य यहां तक कि मध्यमवर्गीय बिहारियों के साथ कोई अपमान कि घटना नहीं घटी।

हमारा सबसे बड़ा दोष यह है कि हम गरीब हैं और वह काम करते है, जिसे छोटा काम कहा जाता है। हम अपने कपड़े-लत्ते और बोली-बानी से पहचान लिए जाते हैं। दिल्ली में ही देखिए ना बिहारी रविशंकर प्रसाद का जलवा है, मनोज तिवारी का बोल-बाला है। क्या मजाल है किसी का कि वह प्रकाश झा  या शत्रुघ्न सिन्हा का अपमान कर दे। किसी की हिम्मत है कि वह नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या तेजस्वी भईया का कोई अपमान बिहारी होने के चलते कर दे।

बात लंबी हो गई। हमारी इस अपमानजनक स्थिति का जिम्मेदार कौन है, इस प्रश्न के उत्तर की हमें तलाश है,  हमें इस अपमानजनक हालात और दर-बदर ठोकर खाने से छुट्टी मिल सकती है या नहीं ? या हमारी यह नियति है?

मैं हताश और निराश हूं, मुझे उम्मीद कम दिखाई दे रही है कि मेरी नियति बदलेगी। गांधी जी ने वादा किया किया था कि आजादी मिलने के बाद हमारी नियति बदल जायेगी, फिर नेहरू ने आजादी के बाद कहा कि गरीब और बेरोजगारी चंद वर्षों की बात है। हमने उन पर भरोसा किया। कम्युनिस्टों ने कहा कि क्रांति से तुम्हारा भाग्य बदलेगा, हमने उनका भी साथ दिया। फिर जयप्रकाश ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। हम उनके साथ हो लिए। उनके बाद सामाजिक न्यायवादी लालू, पासवान और नीतीश आए। हमने सोचा कि अब तो हमारा भाग्य जरूर ही बदल जायेगा। ये लोग अपने समाज-जाति के हैं। उनसे उम्मीद पाली और चढ़-बढ़ कर उनका साथ दिया। फिर भी हमारी नियति नहीं बदली। फिर अच्छे दिनों के नारे के साथ, विकास, खुशहाली का वादा करते और दहाड़ते हुए  मोदी आए। हमने उनका भी साथ दिया, लेकिन हमारे अच्छे दिन नहीं आए।

हम जाएं, तो जाएं कहा? जीएं तो कैसे जीएं?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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