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पुस्तक समीक्षा : स्वशासन से आज भी वंचित हैं पंचायतें

पंचायती राज संस्थायें केवल नाम की संस्थायें बनकर रह गयी हैं। उनके जिम्मे केवल सरकारी योजनाओं को अमल में लाना रह गया है। जबकि पंचायती राज के मूल में स्वशासन है। लेकिन यह परिकल्पना साकार नहीं हो सकी है। हालांकि बहुजन प्रतिनिधियों की अगुआई वाली कुछ पंचायतें इस बात की झलक प्रदान करती हैं कि अगर दमित तबकों के हाथों में शासन के सूत्र हों तो लक्ष्य हासिल किये जा सकते हैं। जीशान हुसैन की समीक्षा

यह बात संदेह से परे है कि भारत में पंचायती राज संस्थाओं को लेकर हुए 73वें संवैधानिक संशोधन तथा उसपर अमल ने महत्वपूर्ण बदलावों को अंजाम दिया है। कुलदीप माथुर की किताब ‘‘पंचायती राज’’ – जो आक्सफोर्ड इंडिया की शाॅर्ट इन्ट्रोडक्शन सीरिज का हिस्सा है – इन बदलावों पर निगाह डालती है।

किताब प्रस्तावना के अलावा सात अध्यायों में विभाजित है। ‘प्रस्तावना में माथुर जन प्रतिनिधि संस्थाओं के सन्दर्भ को समझने के लिए व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। वह इसे नवउदारवाद की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करते हैं जहां राज्य ने अपनी भूमिका को सरकार के बजाय सुशासन के प्रदाता के रूप में बदल दिया है। (पृष्ठ xiii) सुशासन की परिभाषा अब केवल निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना (सहायता करना) रह गया है ताकि निजी क्षेत्र अपने हिसाब से जनता (उपभोक्ताओं) तक वस्तुओं व सेवाएं उपलब्ध कराये। (पृष्ठ xv) जबकि विश्व बैंक के हिसाब से, सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता में सुधार के लिए विकेन्द्रीकरण जरूरी है। (पृष्ठ xviii-xix)

पहला अध्याय ‘‘‘ग्राम स्वराज्य’’ में गांधी के विचार और भारत में व्यापक राजनीतिक विमर्श में उसके प्रभाव की चर्चा की गयी है। जहां गांधी ने भारतीय गांव को आदर्श के रूप में देखा था, वहीं आंबेडकर की राय अलग थी। हम देखते हैं कि पंचायती अधिनियम को बनाने का विमर्श इन दोनों के विचारों के मध्य में निहित है। राज्य नीति निर्देशक तत्वों  के तहत (धारा 40 में उद्धृत) राज्य को अधिकार देकर प्रोत्साहित किया गया है कि वह ग्राम पंचायतों को संगठित करके उन्हें स्वशासन की इकाई के तौर पर विकसित करे और उन्हें सहायता प्रदान करें। (पृष्ठ 17)

दूसरा अध्याय पंचायती राज कानून की ऐतिहासिक यात्रा पर निगाह डालता है। जनप्रतिनिधि संस्थाओं को माथुर तीन पीढ़ियों में वर्गीकृत करते हैं। पहली पीढ़ी ने बलवन्त राय मेहता कमेटी की सिफारिशों (1956) का अनुकरण किया, दूसरी पीढ़ी ने अशोक मेहता कमेटी की सिफारिशों का पालन किया और तीसरी पीढ़ी संविधान के 73वें संशोधन के बाद अस्तित्व में आये नये कानूनों का पालन किया। पंचायती राज कानूनों में बदलाव हमें हमारे कम्प्यूटर में इस्तेमाल इंटेल प्रोसेसर्स की याद दिलाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी संशोधित होते रहते हैं। पहली दो प्रावधानों का अनुभव अपेक्षाकृत अधिक नकारात्मक रहा। पंचायती राज संस्थाओं को केन्द्र और राज्य सरकारों की उपेक्षा, वित्तीय आज़ादी की कमी, अनियमित चुनावों और अन्य मुददों का सामना करना पड़ा। यह देखा जा सकता है कि पंचायतों को लोगों की सहभागिता की संस्थाओं के तौर पर देखा ही नहीं गया, जो जनतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में भूमिका निर्वहन करती हैं। (पृष्ठ 25)

सारंगी, झाबुआ, मध्यप्रदेश में आयोजित ग्राम सभा (फोटो सौजन्य: पंचायती राज मंत्रालय)

तीसरा अध्याय जन प्रतिनिधि संस्थाओं के ढांचे, उनकी शक्ति और उनके कार्यों की चर्चा करता है। वर्ष 1993 में संवैधानिक संशोधन के जरिए स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को ग्रामीण और शहरी इलाकों में अनिवार्य बनाया गया। इसने पंचायतों को भारतीय राज्य के तीसरे और अंतिम स्तर के तौर पर रूपांतरित किया, जिन्हें इस बात की स्वायत्तता थी कि वह आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाओं को तैयार करे। (पृष्ठ 35) इस संशोधन ने ग्राम सभाओं को, जिनमें पंचायत के दायरे में आने वाले सभी पंजीकृत वोटर शामिल थे, जन प्रतिनिधि संस्थाओं के आधार के तौर पर प्रस्तुत किया। हालांकि राज्य की विधायिका जनप्रतिनिधि संस्थाओं की शक्तियों और प्रभावों को तय करती है, यह जन प्रतिनिधि संस्थाओं के उपर राज्य सरकारों को वरीयता प्रदान करता है और इस तरह उन्हें ‘कागजी़ बाघ’ में तब्दील कर देता है। यह अध्याय अपने कामों को अंजाम देने में पंचायतों की सहायता प्रदान करने के लिए एनजीओ की भूमिका को रेखांकित करता है। विभिन्न एनजीओ पंचायत के प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण प्रदान करते हैं ताकि वह उनके लिए नियत कामों को पूरा कर सकें।

चौथा अध्याय जन प्रतिनिधि संस्थाओं की शक्तियों और उनके कार्यो के बारे में – खासकर वित्तीय मामलों के सन्दर्भ में – एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। जन प्रतिनिधि संस्थाओं को फंड मिलता है, लेकिन वह अपनी स्थानीय जरूरतों के हिसाब से नहीं। एमपीएलएडीएस (सांसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना) और जिला नियोजन कमेटियां, दोनों ही पंचायत के कार्य क्षेत्र को ढांकने का काम करती हैं (पृष्ठ 72-76)। वे जन प्रतिनिधि संस्थाओं को ‘‘केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं की अमलकर्ता एजेंसियों में सीमित कर देती हैं, और उन्हें अपने स्थानीय सरोकारों के हिसाब से काम करने के लिए बेहद सीमित आज़ादी देती हैं।’’ (पृष्ठ 70)

पांचवां अध्याय, सबसे लम्बा और महत्वपूर्ण है। इसमें जन प्रतिनिधि संस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं  के प्रतिनिधित्व और सहभागिता का उल्लेख है। माथुर उदाहरणों के साथ दिखाते हैं कि किस तरह दलित और महिला सरपंचों ने काम किया है। वह पाते हैं कि जातिवादी और पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में उन्हें अक्सर विरोध का सामना करना पड़ता है।

इन सबके बावजूद, भारत की विविधतापूर्ण संस्कृतियों के चलते, चीजें रफ्ता-रफ्ता ही सही, बेहतर हो रही हैं। माथुर एन पलानीस्वामी की रचना ‘‘सरपंच राज’’ (2010) को उद्धृत करते हैं, ‘‘अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि तब बेहतर काम कर पाते हैं जब आरक्षित पद पर बैठे (अनुसूचित जाति) अध्यक्ष से संवाद करते हैं – यह इसी बात का संकेत देता है कि साझा पहचान और इस वजह से जाति आधारित सामाजिक तानाबाना आरक्षण नीति की प्रभावोत्पादकता को ढालता है।’’ (पृष्ठ 99)

ग्राम जरापा, रायगढ़, उड़िसा में जारी बारहवीं ग्राम सभा / फोटो सौजन्य : द हिन्दू

अनुसूचित जनजातियों के मामले में, पंचायती राज संस्थाओं से जुड़ी समस्यायें अधिक जटिल है। वर्ष 1996 में ‘पेसा’ अधिनियम (पंचायत एक्स्टेन्शन टू शेडयूल्ड एरियाज अर्थात अनुसूचित इलाकों तक पंचायतों के विस्तार) के पारित होने के बावजूद, आदिवासी जनता की वंचना की स्थिति में कुछ भी सुधार नहीं हुआ है। इसके बजाय राज्य ने दोहरी भूमिका अदा की है: कागज़ों पर आदिवासी हितों की हिमायत करना और व्यवहार में उन्हें कार्पोरेटों की दया पर छोड़ देना। आज, जबकि नवउदारवाद और हिन्दुत्व ने हाथ मिलाया है, तब आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों की स्थितियों में बदतरी प्रत्यक्ष दिख रही है।

छठा अध्याय, चौथे अध्याय की तरह, फिर एक बार जन प्रतिनिधि संस्थानों के रास्ते में आने वाली प्रमुख बाधाओं की बात करता है। माथुर के मुताबिक तीन प्रमुख संस्थाएं और प्रणालियां जन प्रतिनिधि संस्थाओं के साथ मिल कर काम करती हैं। जिला प्रशासकीय प्रणाली (जैसे जिला ग्रामीण विकास एजेंसी), एनजीओ और जाति पंचायतें सभी जन प्रतिनिधि संस्थाओं के समानान्तर काम करती हैं। लेकिन ये प्रणालियां पंचायतों को सरकारी मशीनरी की तमाम संस्थाओं तक सीमित कर देती हैं। भारतीय राज्य का तीसरा स्तर अभी आकार नहीं ग्रहण कर सका है जैसे कि उसके बारे में सोचा गया था। जिला प्रशासकीय प्रणाली और एनजीओ जहां जन प्रतिनिधि संस्थाओं को ऐसे निकायों तक सीमित कर देते हैं जिनका काम महज उन कार्यक्रमों पर अमल करना होता है जो उन्हें बताए जाएं, वहीं जाति पंचायतें कई गैरजनतांत्रिक आचरणों को बढ़ावा देती हैं और इस तरह जन प्रतिनिधि संस्थाएं माखौल बन कर रह जाती हैं।

सातवां अध्याय उपसंहार है। समग्रता में माथुर का निष्कर्ष है कि ‘‘विवादों और टकरावों’’ के बावजूद पंचायती राज संस्थाएं ‘‘जनतंत्र को मजबूत करने में’’ सहायता प्रदान कर रही हैं।

हालांकि किताब जन प्रतिनिधि संस्थाओं की चर्चा नवउदारवाद के सन्दर्भ में करती है, लेकिन इस परिदृश्य की विस्तार से चर्चा नहीं की गयी है। अधिक जोर पंचायतों के वास्तविक कामकाज और भारतीय राजनीति और समाज से उसे मिलने वाली चुनौतियों पर दिया गया है। जन प्रतिनिधि संस्थाओं के जटिल अस्तित्व का चित्रण करने में किताब सफल होती है। कुछ स्थानों पर, उन्होंने रैडिकल बदलावों की चर्चा की है जबकि कुछ अन्य स्थानों पर उन्होंने इसे बुरी तरह असफल करार दिया है। अपनी किताब में उन्होंने पंचायती राज संस्थाओं के प्रति हमें आशावान बने रहने और चिन्तित रहने की वजहें प्रदान की है।

मसलन एनजीओ/गैरसरकारी संस्थाओं की भूमिका के बारे में माथुर असमंजस में दिखते हैं। एक स्थान पर, वह कहते हैं कि उनका समानान्तर अस्तित्व और कामकाज जन प्रतिनिधि संस्थाओं को कमजोर बनाता है, जबकि एक अन्य स्थान पर वह इससे बिल्कुल विपरीत बात कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि किताब को जल्दी जल्दी लिखा और सम्पादित किया गया है। मिसाल के तौर पर, चौथा और छठा अध्याय एक हद तक एक दूसरे को दोहराते दिखते हैं। उसी तरह से पांचवां अध्याय कहता है कि प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है लेकिन वह स्पष्ट नहीं करता कि ऐसा क्यों है।   ग्रामीण इलाकों से ऐसे कई उदाहरण दिखते हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब पंचायत का प्रमुख वंचित समूह से सम्बधित होता है तो गांव की पंचायत अधिक प्रभावी दिखती है (मिसाल के तौर पर, ‘‘इन्क्लुजन एण्ड एक्सक्ल्युुजन इन लोकल गवर्नंस’ जी मैथ्यूज एण्ड बी एस बाविसकर, 2009)। किताब में कम से कम इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए था कि किस तरह जनप्रतिनिधि संस्थाओं में अल्पसंख्यकों, मुख्यत: मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नाममात्र दिखता है और किस तरह प्रशासकीय मशीनरी इस समुदाय को बाहर रखने में भूमिका अदा करती है। जैसा कि योगेन्द्र यादव, जो स्वराज अभियान पार्टी के नेता हैं, ने हाल में लिखा है कि भारत के विचार के लिए आज की तारीख में सबसे बड़ा खतरा साम्प्रदायिकता से है। मुमकिन है कि इस किताब के परिचयात्मक स्वरूप के चलते ऐसा हुआ हो कि ये मुददे छुट गए हों। लेकिन दिलचस्पी रखने वाले आम लोगों से जन प्रतिनिधि संस्थाओं को परिचित कराने का अच्छा काम यह करती है।

पुस्तक : पंचायती राज (आक्सफोर्ड इंडिया शार्ट इन्टोडक्शन सीरिज)

लेखक: कुलदीप माथुर

प्रकाशक: आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस

कीमत: 230 रूपए (पेपरबैक)

प्रकाशन वर्ष : 2013

(अनुवाद : सुभाष गताडे, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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