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बहुजन-श्रमण परंपरा में तथागत रावण

रावण कौन था? क्या वह ब्राह्मण था और यदि वह ब्राह्मण था तब राक्षस कैसे हुआ? कुछ ग्रंथों में उसे विदेशी कहा गया। वहीं कुछ ग्रंथों में उसे बौद्ध धर्मावलम्बी भी कहा गया है। बहुजन लेखकों ने भी रावण की व्याख्या की है। विश्लेषण कर रहे हैं कंवल भारती :

राजनीति से साहित्य में आए बहुजन चिंतक और विचारक श्री मोतीराम शास्त्री ने पिछली सदी के नवें दशक में 13 सर्गों में एक लघु खंड काव्य लिखा था – ‘राव न लंका’। विचार की दृष्टि से यह अद्भुत काव्य है। उसके ‘तथागत’ सर्ग में उन्होंने लिखा है :

रावन का पुतला मत फूंको, ये रावन नहीं तथागत हैं।

दस पारमिता दस बलधारी, हैं यही अतीत अनागत हैं।।

प्रज्ञा दाता हैं प्रभा पुंज, कोटिक जन मन के नायक हैं।

मानवता के अविरल प्रतीक, पूजा अर्चन के लायक हैं।।

तप, यज्ञ, ब्रह्म हारे जिससे, विषयी हैं भू पति न्यारे हैं।

है यही कथा यदि रावन की, तो बोलो किसने मारे हैं?

चलने पर धरा हिली किसकी, था त्राहि-त्राहि घनघोर कहाँ?

कितना अटपटा मुकदमा है, जब माल नहीं तब चोर कहाँ?

इस सर्ग में ‘दस पारमिता दस बलधारी’, ‘तप, यज्ञ, ब्रह्म हारे जिससे’ और ‘चलने पर धरा हिली किसकी, था त्राहि-त्राहि घनघोर कहाँ?’ पंक्तियां विशेष अर्थ की अपेक्षा रखती हैं। मोतीराम शास्त्री के विचार में रावण ऐतिहासिक बुद्ध का ‘उतारा’ हुआ मिथक है। दस पारमिताएँ दस सिर हैं, जो रावण के पुतले पर भी बनाए जाते हैं, दस बलों की वजह से रावण को दस कन्धर भी कहा जाता है, जिसका बौद्ध नाम दसस्कन्ध है। रावण का युद्ध राम से हुआ था, और बुद्ध का संघर्ष भी मार (बुराई) से हुआ था। मार का उल्टा करोगे तो राम ही होता है, मरा नहीं। बुद्ध का एक भाई (चचेरा) देवदत्त था, जो बुद्ध से द्वेष रखता था। रावण से भी उसका भाई विभीषण द्वेष रखता था। वह भाई ही उसके वध का कारण बना था। रावण के प्राण उसकी नाभि में थे, जिसमें तीर मारकर उसे मारा गया था। नाभि शरीर का मध्य भाग है, जो बुद्ध का मध्य मार्ग भी है। बौद्ध धर्म को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने उसके मध्यमार्ग को खत्म किया था। स्पष्ट है कि ‘तप, यज्ञ, ब्रह्म हारे जिससे’, वह बुद्ध थे। ब्राह्मणों के हिंसक यज्ञों का खात्मा किसने किया था– रावण ने या बुद्ध ने?

रावण की एक प्रतिमा जिसमें उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है

उत्तर है, इतिहास में बुद्ध ने, और मिथक में रावण ने। हिंसक यज्ञों के खात्मे के कारण ही बुद्ध ब्राह्मणों की आँख की किरकिरी बन गए थे। इसलिए बुद्ध को मिटाना जरूरी था। इतिहास में यह काम पुष्यमित्र शुंग ने किया, जो बौद्ध सम्राट बृहद्रथ का ब्राह्मण सेनापति था। उसने सम्राट को मारकर शुंग राज की स्थापना की और राज्य बल से बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम कराया, तथा विहार, संघाराम, मठ, स्तूप आदि सब ध्वस्त करा दिए थे।

उल्लेखनीय है कि रामायण की रचना इसी काल में हुई थी और इसी राजवंश के क़ानून के रूप में मनुस्मृति बनाई गई थी। इसलिए रामायण और मनुस्मृति दोनों में बुद्ध के प्रति नफरत भरी हुई है। रामायण के अनुसार, महान असुर प्रतिदिन सहस्रों ब्राह्मणों का विनाश कर देते थे।  इससे साफ़ समझ में आ जायेगा कि ‘चलने पर धरा हिली किसकी, था त्राहि-त्राहि घनघोर कहाँ?’

रावण और उसकी लंका :

हिंदी में बहुजन साहित्य में रावण पर संभवत: पहला काम चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने किया था। उनकी वह किताब ‘रावण और उसकी लंका’ थी, जिसका पहला संस्करण 1959 में प्रकाशित हुआ था। यह उनकी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक थी। इस किताब के शुरू में ही वह लिखते हैं, ‘हिन्दू गणना के अनुसार रावण त्रेता युग के अंत में मारा गया था, तब से आठ लाख चौसठ हजार साल का द्वापर युग बीत गया और उसके बाद कलियुग के भी प्राय: पांच हजार वर्ष बीत गए, लेकिन तब से आज तक हर साल रावण का पुतला फूंककर जयंती मनाई जाती है।’

जिज्ञासु जी इसका खुलासा करते हुए लिखते हैं-

‘इस रामलीला के द्वारा दर्शकों पर यह प्रभाव डाला जाता है कि रावण बड़ा पापी था, वह वेद-पुराणादि में वर्णित धर्म को नहीं मानता था, ब्राह्मणों और देवताओं को त्रास देता था, ब्राह्मणों को यज्ञ, जप, होम, कथा-पुराणादि नहीं करने देता था, उसने ब्रह्मभोज, श्राद्धभोज आदि बंद करा दिए थे। अत: देवता और ब्राह्मणों ने मिलकर अपने परम हितैषी विष्णु भगवान से स्तुति की और विष्णु ने राम का अवतार का लेकर रावण को वंश सहित मारकर उसका समूल नाश कर दिया। मतलब यह कि यह रामलीला प्रतिवर्ष एक धार्मिक कृत्य के रूप में होती है, और इसके प्रेरक, उत्तेजक, अग्रणी, संचालक, कार्यकर्त्ता, आचार्य और पात्र प्राय: ब्राह्मण ही होते हैं, और जब रामलीला बड़ी शान से सफलतापूर्वक संपन्न हो जाती है, तो ब्राह्मण लोग इसे अपनी धार्मिक विजय मानते हैं।’  

बुद्ध की एक पेंटिंग

जिज्ञासु जी रामलीला को ब्राह्मणों की धार्मिक विजय ठीक ही कहते हैं। इन रामलीलाओं के द्वारा ब्राह्मणों का मकसद ब्राह्मणवाद को स्थापित करना होता है, ठाकुर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं और बनिया अपना व्यापार करता है। दर्शक बनकर बहुजन समाज जाता है, और दशहरा वाले दिन रावण में जब आग लगाई जाती है, तो यह जाहिल बहुजन समाज ही सबसे ज्यादा खुश होता है। और यही ख़ुशी ब्राह्मणवाद की आयु बढ़ा देता है।

इस किताब के तीसरे अध्याय में जिज्ञासु जी लिखते हैं, ‘वाल्मीकि रामायण इसका समर्थन नहीं करती कि रावण के दस सिर, बीस आँखें, बीस हाथ और सबसे ऊपर गधे का सिर था, या रावण के आत्मीय स्वजनों के हिंसक पशुओं के समान बड़े-बड़े दांत और सिर पर बैलों जैसी सींगें थीं, तथा वे नरभक्षी थे-जीवित मनुष्यों को व्याघ्र आदि पशुओं की तरह मारकर कच्चा ही खा जाते थे, और हर समय मदिरा पिए उन्मत्त घूमा करते थे। वाल्मीकि से हमें पता चलता है कि रावण परम नीतिज्ञ, विद्वान, सभ्य और सुसंस्कृत मनुष्य था, और उसकी लंकापुरी सुसभ्य मानवों की नगरी थी। सीता की खोज करते हुए हनुमान ने लंका में जो देखा, उसका वर्णन वाल्मीकि के अनुसार इस प्रकार है—

‘सायंकाल में प्राचीर फांदकर वीर्यवान हनुमान ने विशाल सड़कों में बंटी हुई उस रमणीक लंकापुरी में प्रवेश किया तो देखा कि लंका की सड़कों पर बड़े-बड़े महलों की कतारें बिछी हुई थीं, जिनमें सुनहले खम्भे थे। इन महलों में बड़ी-बड़ी सुनहली खिड़कियाँ थीं। इन महलों के कारण लंका गन्धर्वों की महानगरी प्रतीत होती थी।

‘हनुमान ने देखा, लंका के कितने ही मकान हीरे की आकृति के अर्थात अंडाकार गोल थे, कुछ अंकुश की आकृति के थे…और कुछ स्वस्तिक के आकार के, जो अपनी सुन्दरता से लंकापुरी को जगमगा रहे थे।’

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

इसके बाद वाल्मीकि ने रावण का वर्णन इन शब्दों में किया है-

‘सीता की खोज में हनुमान जब रावण के महल में शयन गृह में पहुंचे, तो उन्होंने सोते हुए रावण को देखात- राक्षसराज रावण की दोनों भुजाएँ सोने के बाजूबन्दों से सुशोभित थीं, जिन्हें फैलाए हुए वह सो रहे थे और वे इन्द्रध्वज की तरह प्रतीत होता था। उनकी दोनों भुजाओं पर ऐरावत के दांतों के आघात के चिन्ह दिखाई देते थे। अपनी दोनों भुजाओं से राक्षसेश्वर रावण दो शिखरों वाले मन्दराचल की तरह सुशोभित हो रहे थे। वह सफेद रंग की रेशमी धोती पहने और बहुत बढ़िया पीले रंग का दुपट्टा ओढ़े हुए थे।

हनुमान के इस आँखों देखे वर्णन से, जिज्ञासु जी लिखते हैं, ‘रावण के सम्बन्ध में फैली हुई यह कुत्सित, वीभत्स, घृणित और विद्वेष-पूर्ण धारणा (कि रावण के दस सिर थे और बीच में गधे का सिर था,) अपने आप उसी तरह निर्मूल हो जाती है, जैसे गधे के सिर से सींग।  

क्या रावण ब्राह्मण था?

‘दि हिन्दूज : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ में वेंडी डोनिगर लिखती हैं कि रावण ब्राह्मण था और शिव भक्त था।  रावण का शिव भक्त होना तो समझ में आता है, क्योंकि शिव अनार्य देवता थे, जिसे बाद में ब्राह्मणों ने वैदिक देवता रूद्र के साथ मिलाकर उसे विकृत करके गंजेड़ी, भंगेड़ी और कामुक बना दिया। यदि रावण ब्राह्मण होता, तो रामायण में रावण को राक्षसराज और राक्षेश्वर नहीं कहा जाता। अगर रावण ब्राह्मण होता, तो उसका वध नहीं हो सकता था, क्योंकि ब्राह्मण-धर्म में ब्राह्मण अबध्य है, अर्थात उसका वध नहीं किया जा सकता। इस नियम को मुगलों ने भी बरकरार रखा था, और अंग्रेजों ने भी 1817 तक इस नियम का पालन किया था और 1817 में ही क़ानून बनाकर उसे मृत्यु दंड के अंतर्गत रखा था। इसलिए, जब संगीन से संगीन अपराध में भी, मनु के अनुसार, ब्राह्मण का वध नहीं किया जा सकता था, केवल देश निकला दिया जा सकता था , तो रावण का वध क्यों किया गया था? ब्राह्मणों ने अपने ही नियम का उल्लंघन क्यों किया? फिर ब्राह्मण उसे हर वर्ष मारते हैं और जलाते हैं। इतना अपमान वे रावण का क्यों करते हैं? जाहिर है कि रावण ब्राह्मण नहीं था। राम-रावण युद्ध आर्यों का आर्यों से युद्ध नहीं था, वह हो भी नहीं सकता था। चूँकि, रावण अनार्य था, और रक्ष संस्कृति के राक्षस जनजातीय समुदाय से सम्बन्ध रखता था। राक्षस, दानव, दैत्य, असुर, वानर ये सब अलग-अलग समुदायों के मानव थे। इसलिए, राम-रावण युद्ध सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का युद्ध था। वह अनार्य साम्राज्य को मिटाकर उस भूमि पर आर्य साम्राज्य स्थापित करने का वैसा ही युद्ध था, जैसा आज आरएसएस और भाजपा की ताकतें आदिवासी इलाकों में अपना प्रभुत्व कायम कर रही हैं।

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रावण का चरित्र :

यहाँ एक अंश हरिमोहन झा की किताब ‘खट्टर काका’ से देना भी दिलचस्प होगा—

‘मैं – तो आपके जानते रामायण में एक भी पात्र आदर्श नहीं है?

खट्टर – है क्यों नहीं?

मैं – वह कौन है?

खट्टर काका मुस्कराते हुए बोले – रावण।

मैं – वह तो सीता को हर के ले गया।

खट्टर – सो तो मर्यादा पुरुषोत्तम को शिक्षा देने के लिए कि किसी की बहन का नाक-कान नहीं काटना चाहिए। परदेश में रहकर किसी से बैर नहीं मोल लेना चाहिए। मृगमरीचिका के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। किसी स्त्री का अपमान नहीं करना चाहिए। देखो, लंका ले जाकर भी रावण ने सीता का अपमान नहीं किया। रनिवास में नहीं ले गया, अशोक वाटिका में रखा। लोग राक्षस कहें, परन्तु उसका व्यवहार जैसा सभ्यतापूर्ण हुआ है, वैसा विरले ही मनुष्यों का होता है।’

क्या रावण विदेशी था?

आर्य समाजी विद्वान् रघुनन्दन शर्मा अपने ग्रन्थ ‘वैदिक संपत्ति’ में, जो सत्यार्थ प्रकाश की कोटि का ग्रन्थ है और गुरुकुल विद्यालयों में पढ़ाया जाता है, लिखते हैं, आस्ट्रेलिया से लंका होते हुए विदेशियों का एक दल भारत आकर मद्रास प्रान्त में बस गया था। इस आगत दल का नेता रावण था। वह पंडित और योद्धा होते हुए दुराचारी था। पर, रामचन्द्र द्वारा युद्ध में मारे जाने के कारण राज्य और ऐश्वर्य खोकर बचे हुए अनार्य अपने को हिन्दू कहने लगे, और रावण से सम्बन्ध जोड़कर कुछ लोग ब्राह्मण भी बन गए।’

यह मत रावण को विदेशी और अनार्य द्रविड़ मानता है। रावण अगर विदेशी था, तो अनार्य नहीं हो सकता था। फिर उसे आर्य होना चाहिए। अगर वह विदेशी था, और मद्रास में बस गया था, तो उसकी लंका कहाँ थी, जहाँ का वह राजा था? यह आर्यसमाजी विद्वान् क्यों नहीं बता सके?

‘वैदिक संपत्ति’ का लेखक यहाँ तक कहता है कि ‘द्रविड़ों ने अपने पूर्वज रावण का इतना महत्व बढ़ाया कि मन्त्रों में उसकी दुहाई दी जाने लगी। चक्रदत्त नामक वैद्यक ग्रन्थ में रोगव्याधि-निवारण मन्त्र में रावण को नमस्कार किया जाता है – ‘ऊँ नमो रावणाय अमुकस्य व्याधि हन-हन मुंच-मुंच ह्री फटस्वाहा।’

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु द्वारा लिखित पुस्तक ‘रावण और उसकी लंका’ का कवर पृष्ठ

चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने रघुनन्दन शर्मा के इस मत का खंडन किया है कि रावण विदेशी था। उन्होंने लिखा है कि ‘उनकी इस स्थापना का आधार श्री मेल्लाडी वेंकट रत्नम लिखित ‘रामा : दि ग्रेटेस्ट फ़राऊन ऑफ़ ईजिप्ट’ नामक पुस्तक है, जिसमें सिद्ध किया गया है कि राम और रावण की सारी कथा मिस्र के रामसेस द्वित्तीय की कहानी है। दशरथ, कौसल्या, राम, लक्ष्मण, सीता, वशिष्ठ नाम के व्यक्ति भारत में हुए ही नहीं। इस मत के मान लेने से या असुरों को असीरियन कहने की शोखी व साहस करने से सारी रामायण विदेशी बन जाएगी तथा रावण को विदेशी बनाने में राम से भी हाथ धोना पड़ेगा और सारा गुड़ गोबर हो जायेगा।’

द्रविड़ नेता का मत :

द्रविड़ नेता पेरियार रामास्वामी नायकर ने अपनी बहुचर्चित किताब ‘ट्रू रीडिंग ऑफ़ रामायणा’ में लिखा है कि रावण को वैदिक देवों और ऋषियों से इसलिए घृणा थी, क्योंकि वे यज्ञ के नाम से पवित्र अग्नि में क्रूर रीति से बेजुबान निरीह पशुओं की हत्या करने का अपराध करते थे।’ उन्होंने वाल्मीकि के हवाले से लिखा है कि रावण एक भला आदमी था। वह ब्राह्मणों को उसी समय दंड देता था, जब वह उन्हें यज्ञ करते और सोमरस पीते हुए देखता था।  यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि सुरापान देवताओं और ब्राह्मणों का व्यसन था। सुरापान के कारण ही वे सुर, और सुरापान से विरत रहने की वजह से रावण आदि असुर कहलाते थे। इसकी साक्षी रामायण में मौजूद है

रावण के दस सिरों को पेरियार नायकर ने उसके दस गुण बताए हैं, जो ये हैं– (1) एक महान विद्वान्, (2) बहुत बड़ा संत, (3) वेद शास्त्रों का ज्ञाता, (4) अपने सम्बन्धियों व प्रजा का दयालुतापूर्वक पालनकरता, (5) वीर योद्धा, (6) शक्तिशाली पुरुष, (7) शूरवीर सिपाही, (8) पवित्र आत्मा, (9) परमात्मा का प्रिय पुत्र, और (10) वरदानी पुरुष।  

क्या सीता रावण की पुत्री थी?

जितनी रामकथाएं, उतनी ही अलग स्थापनाएं हैं। 14 अक्टूबर 1962 को लखनऊ के दैनिक ‘नवजीवन’ के साप्ताहिक परिशिष्ट में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें कश्मीरी ‘प्रकाश रामायण’ के हवाले से लिखा गया था कि सीता रावण की पुत्री थी। इस लेख के अनुसार, ‘रावण ने मन्दोदरी नाम की एक अप्सरा से विवाह किया था। मन्दोदरी के गर्भ से एक कन्या ने जन्म लिया। जिस समय कन्या का जन्म हुआ, रावण वहां उपस्थित नहीं था। ज्योतिषियों ने कन्या को कुल का विनाश करने वाली बताया। अत: भयभीत होकर मन्दोदरी ने कन्या के गले में पत्थर बांधकर उसे नदी में फेंकवा दिया। किन्तु कन्या डूबी नहीं, बहते-बहते काफी दूर जाकर किनारे जा लगी। सौभाग्यवश राजा जनक ने उसे पाया। उन्होने उसे अपने घर ले जाकर उसका बड़े लाड़-प्यार से पालन किया।’  

रावण और सीता की एक पेंटिंग

इस कथा पर टिप्पणी करते हुए जिज्ञासु जी लिखते हैं कि मन्दोदरी नाम की कोई अप्सरा थी, यह बात विश्वास योग्य प्रतीत नहीं होती। वह आगे लिखते हैं कि किसी और पुराण शायद पद्म पुराण में भी ऐसा उल्लेख मिलता है कि सीता रावण की पुत्री थी, और वह मन्दोदरी के ही गर्भ से पैदा हुई थी। किन्तु वह मन्दोदरी अप्सरा नहीं थी, बल्कि मयदानव की पुत्री थी। रावण का सम्पर्क और आना-जाना मय के यहाँ पहले से था, और मन्दोदरी जब कंवारी थी, तभी उसके साथ रावण का प्रेम हो गया था। सीता का जन्म उसी कंवारेपन की दशा में हुआ  और मन्दोदरी ने लज्जा के कारण अपनी पुत्री को मिथिला में घी भरे घड़े में रखकर खेत में डलवा दिया और वह राजा जनक को मिल गई और उन्होंने उसे पाला। मय यद्यपि मेरठ में रहता था, किन्तु शैवी होने के कारण वह कभी-कभी जनक जी के यहाँ जाता था, क्योंकि विदेह जनक भी आत्मवादी शिवभक्त थे। इसी कारण शिवजी का पिनाक धनुष उनके यहाँ रखा हुआ था। एक बार मय जब अपनी पुत्री मन्दोदरी के साथ मिथिला गया, तो वहीँ उसकी पुत्री ने प्रसव किया और उसने लज्जावश अपनी नवजात पुत्री को खेत में डलवा दिया। बाद में मय ने अपनी पुत्री का प्रेम जानकर रावण के साथ विवाह कर दिया।’

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जिज्ञासु जी लिखते हैं कि ‘कुमार अवस्था में मन्दोदरी का रावण के साथ प्रेम हो जाने वाली बात में स्वाभाविकता पाई जाती है, तथा सीता और मन्दोदरी के रूप में समता वाली बात भी सीता के मन्दोदरी की पुत्री होने की पुष्टि करती है, एवं रावण का सीता के प्रति और सीता का रावण के प्रति जो व्यवहार रहा है, उस से भी रावण और सीता के बीच पिता-पुत्री सम्बन्ध की पुष्टि होती है।’  

लंकावतार सूत्र की नई कथा :

आचार्य नरेंद्र देव ने अपने विशाल ग्रन्थ ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ में ‘लंकावतार सूत्र’ का उल्लेख किया है। ‘लंकावतार सूत्र’ का अर्थ है लंकाधीश रावण को सद्धर्म का उपदेश। यह एक नया कथासूत्र है, जो बताता है कि रावण को बुद्ध ने सद्धर्म का उपदेश दिया था। आचार्य नरेंद्र देव ने यह भी जानकारी दी है कि ‘लंकावतार सूत्र के चीनी (भाषा) में तीन रूपांतर हुए। ई. सन 443 में गुणभद्र ने, ई. सन 513 में बोधिरूचि ने और ई. सन 700-704 में शिक्षानन्द ने इसके चीनी अनुवाद किए थे, जो उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ का सम्पादन बुनयिड नंजियो, क्योटो (जापान) ने 1923 में किया है। डा. सुजकी ने इस ग्रन्थ पर विशेष अध्ययनपूर्ण ग्रन्थ भी लिखा है। इस ग्रन्थ में दस बड़े-बड़े परिवर्त हैं। प्रथम परिवर्त में लंका के राक्षसाधीश रावण का बुद्ध से संभाषण है। अन्य परिवर्तों में बुद्ध ने रावण के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। यह ग्रन्थ महायान मार्ग के विज्ञानवाद का मूल और विशाल ग्रन्थ है।  

जिज्ञासु जी अपने निष्कर्ष में लिखते हैं कि इस ग्रन्थ का नामकरण लंकेश्वर रावण के नाम पर होने होने तथा स्वयं रावण द्वारा बुद्ध से प्रश्नोत्तर करने से इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि रावण अहिंसा धर्मपरायण, दार्शनिक, विद्वान्, और धर्मात्मा बौद्ध था। वह भगवान गौतम बुद्ध का समसामयिक था, जिसने स्वयं भगवान बुद्ध से धर्मोपदेश ग्रहण किया था।

इस सूत्र के हवाले से जिज्ञासु जी एक और जानकारी साझा करते हैं। वह आगे लिखते हैं –

‘लंकावतार सूत्र के दसवें परिवर्त से यह भी पता चलता है कि ब्राह्मणी साहित्य के व्यास, कणाद, कपिल, पाणिनि, बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, आश्वलायन इत्यादि सब भगवान् बुद्ध के बाद नमूदार हुए और रामायण, महाभारत, गीता, राम और कौरव-पांडव का आविष्कार भी भगवान् बुद्ध के बाद हुआ। बाली, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान आदि अठारह पद्म युथप बंदरों और भालुओं की सृष्टि भी रामायण लेखकों का दिमागी तिलिस्म है। लंकावतार सूत्र के सामने आ जाने से सारी कलई खुल गई – ब्राह्मणी कल्पना का चमकता सोना निरा पीतल निकल आया – जिन झूठी कल्पनाओं का घटाटोप उन्होंने छा दिया था, वह लंकावतार सूत्र की वेगवती वायु से छिन्न-भिन्न होकर उड़ गया और वास्तविक नीला आकाश आँखों के आगे चमकने लगा।’  

वह आगे लिखते हैं, ‘यदि कोई ब्राह्मण पंडित अथवा ब्राह्मणी साहित्य का हिमायती विद्वान् यह कहे कि लंकावतार सूत्र झूठा ग्रन्थ है, अथवा लंकावतार सूत्र का दसवां परिवर्त आधुनिक है रावण और राम भगवान् बुद्ध से बहुत पहले त्रेता युग में हुए थे और गौतम बुद्ध कलियुग में हुए हैं, तो उसकी यह बात संस्कृत भाषा के आदि कवि वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में सर्ग 109 के श्लोक 34 से बिल्कुल कट जाती है। इसमें श्रीरामचन्द्रजी नास्तिकों का विरोध करते हुए जाबालि से कहते हैं – ‘जैसे चोर दंडनीय है, उसी तरह वेदविरोधी बुद्ध भी दंडनीय है। तथागत बुद्ध और नास्तिक को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।  यथा –

यथा ही चोर: स तथा बुद्ध्स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।

तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यात।।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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