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सलवा जुडूम : 2011 का फैसला नहीं मानना कोर्ट के मुंह पर तमाचा

प्रो. नंदिनी सुंदर ने सलवा जुडूम मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना मामले में सुनवाई को स्थगित करने के छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार के आग्रह को नहीं मानने पर खुशी जताई है। उन्होंने कहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट 2011 के फैसले को नहीं मानकर कोर्ट के मुंह पर थप्पड़ मारा है। फारवर्ड प्रेस से खास बातचीत का संपादित अंश :

सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बीते 11 अक्टूबर 2018 को केंद्र व छत्तीसगढ़ सरकार की इस अपील को खारिज कर दिया है कि विधानसभा चुनाव तक मामले की सुनवाई को स्थगित रखा जाय। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ में चुनाव की अधिसूचना जारी की जा चुकी है। वहां 12 नवंबर और 20 नवंबर को दो चरणों में चुनाव होने हैं। सुप्रीम कोर्ट में होने वाली बहस और टिप्पणियों का विधानसभा चुनाव में असर पड़ सकता है और इस आशंका से केंद्र सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार की नींद हराम हो गयी है। पर इसकी सुनवाई नहीं रोकने के फैसले पर इस मामले में याचिका डालने वालों में एक दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने स्वागत किया है।

यह था सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने नहीं माना

सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को अपने एक अहम फैसले में सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया था। साथ ही उसने छत्तीसगढ़ सरकार को निर्देश दिया था कि सलवा जुडूम के तहत जिन लाेगों को सरकार ने हथियार दिए थे , उनसे हथियार वापस ले। इसके अलावा कोर्ट ने सभी मामलों में प्राथमिकी दर्ज कर मुकदमा चलाने का निर्देश दिया था। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि सरकार सलवा जुडूम के दौरान मारे गये निर्दोष लोगों के परिजनों को समुचित मुआवजा दे।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का तब देश के मानवाधिकार संगठनों ने स्वागत किया था और यह उम्मीद भी बन गयी थी कि हजारों की संख्या में जो लोग मारे गये हैं, उनके परिजनों को मुआवजा मिलेगा। लेकिन उनकी और सुप्रीम कोर्ट की उम्मीद छत्तीसगढ़ सरकार ने 5 जुलाई 2011 को ही तोड़ दी। उसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठंढे बस्ते में डालते हुए एक नया कानून बनाकर सलवा जुडूम में शामिल लोगों को नियमित कर दिया।

याचिकाकर्ता प्रो. नंदिनी सुंदर

उल्लेखनीय है कि सलवा जुडूम एक सशस्त्र अभियान था जिसे केंद्र सरकार की सहमति से छत्तीसगढ़ में चलाया जा रहा था। इसके तहत सरकार आदिवासियों को हथियार और पारिश्रमिक भी देती थी ताकि वे जंगलों में रहने वाले नक्सलियों को खत्म कर सकें। इस अभियान की तब व्यापक आलोचना हुई थी। मानवाधिकार संगठनों ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में 2007 में याचिका दाखिल की थी। इसी की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक व गैर कानूनी करार दिया था।

  • 2007 में दर्ज हुआ था सलवा जुडूम से संबंधित मामला
  • चार साल बाद 5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
  • फैसले के दिन ही छत्तीसगढ़ सरकार ने फैसले के खिलाफ कार्रवाई

सात साल से चल रही सुनवाई अंतिम चरण में

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना किये जाने पर कई संगठनों की ओर से 2011 में ही याचिका दायर की गयी। तबसे लेकर आजतक यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। लेकिन अब यह मामला अंतिम चरण में पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मदन बी लोकुर इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं।

लेकिन सुनवाई प्रारंभ होते ही केंद्र व छत्तीसगढ़ सरकार ने कोर्ट से दरख्वास्त किया कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं। फैसले का असर चुनाव पर पड़ सकता है। लिहाजा मामले की सुनवाई को स्थगित किया जाय। कोर्ट से यह अपील सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता और अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल एएनएस नाडकर्णी ने की जबकि याचिकाकर्ताओं की तरफ से नित्या रामकृष्णन ने अपना पक्ष रखा।

नित्यारामकृष्णन  ने पीठ के समक्ष साढ़े तीन घंटे तक की अपनी तक़रीर में पिछले एक दशक में छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर हुए अत्याचार  के बारे में बताया और कहा कि कैसे राज्य सरकार क़ानून को दरकिनार कर बेखौफ दमनात्मक कार्रवाईयां कर रही है। सुनवाई करने वाली पीठ के प्रमुख न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर ने स्पष्ट कहा कि उन्हें चुनाव से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि कोर्ट के फैसले से यदि किसी राजनीतिक दल को नफा या नुकसान होता है तो हो, कोर्ट इससे कोई सरोकार नहीं रखता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोर्ट कभी भी इस मामले में फैसला ही नहीं दे सकेगी।

छत्तीसगढ़ सरकार जो कर रही है वह कोर्ट के मुंह पर थप्पड़ है : नंदिनी सुंदर

सुप्रीम कोर्ट के रूख का प्राख्यात सामाजिक कार्यकर्ता व दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने स्वागत किया है। वह उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने सलवा जुडूम को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर किया है। कोर्ट के निर्देश पर खुशी जाहिर करते हुए उन्हाेंने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि निस्संदेह कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। उन्होंने कहा, “इस केस को दर्ज कराने के बाद से अब तक दो चुनाव बीत चुके हैं। चुनाव से इस केस का क्या लेना देना?”

सलवा जुडूम कार्रवाई की एक तस्वीर (फाइल फोटो)

यह पूछने पर कि अदालत से मामले की सुनवाई को स्थगित करने की मांग के बारे में क्या सरकार को यह भरोसा था कि अदालत उनकी अपील मान लेगी और केस की सुनवाई स्थगित कर देगी, नंदिनी सुंदर ने कहा, “यह कोई नई बात नहीं है। वे तो हमेशा से ही स्थगन के फिराक में लगे रहे हैं। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 5 जुलाई 2011 को दिये गये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न केवल दरकिनार किया बल्कि उसके मुंह तमाचा भी जड़ा हैछत्तीसगढ़ के सरकार साफ साफ कोर्ट को कह रही है कि हम आपकी बात नहीं मानते। यही लोग सीबीआई पर भी हमले कर रहे हैं। सीबीआई जैसी एजेंसी भी अगर छत्तीसगढ़ में सुरक्षित नहीं है तो आम लोगों का क्या?”

  • मामले की सुनवाई अब अंतिम चरण मे
  • सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मदन बी लोकुर कर रहे सुनवाई
  • कई मानवाधिकार संगठनों ने उठाया था सवाल

माओवादियों का खात्मा करे सरकार, लेकिन क्या निर्दोष चुप रहें?

बहरहाल इस पूरे मामले में नंदिनी सुंदर छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार के कृत्यों को खारिज करती हैं। यह पूछने पर कि सरकार ने छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खात्मे की बात कही है, नंदिनी सुंदर कहती हैं, “सरकार को राज्य में माओवाद को समाप्त करना है तो वह करे पर उन निर्दोष आदिवासियों का क्या जो उसके इस अभियान के बीच फँसकर मारे जा रहे हैं? क्या वे चुप रहें? क्या इन लोगों को इसे बर्दाश्त करना चाहिए? उनका क्या कोई हक नहीं है, क्या उनका कोई मौलिक अधिकार नहीं होता? जिन बेगुनाहों को आपने मारा है, जिसका घर जलाया है उनका क्या? उनको तो मुआवजा मिलना चाहिए न? सरकार जिसको कोलेट्रल डैमेज कह रही है तो क्या इन लोगों का कोई मौलिक अधिकार नहीं होता जो कोलेट्रल डैमेज के शिकार हुए हैं?  2011 के अपने आदेश में कोर्ट ने राज्य और माओवादी हिंसा के शिकार निर्दोष आदिवासियों के पुनर्वास के लिए कदम उठाने को कहा था पर इस दिशा में भी सरकार ने कुछ नहीं किया है।”

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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